गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

शक्ति से निकलेगा समाधान

हर बार धमाका, इस बार हमला। बात गंभीर है, इसलिए हमारी सरकार पाकिस्तान के ख़िलाफ़ पुख्ता सबूत जुटाने में जुट गई है। असल में जब भी देश के किसी कोने में धमाके होते हैं, तो हमारा प्रशासन आतंकवादी गतिविधियों में पाकिस्तानी सक्रियता के सबूत जुटाने में जुट ही जाता है। भारत का अकसर कहना होता है कि भारत में चल रही आतंकवादी गतिविधियों में पाकिस्तान की संलिप्तता को लेकर उसके पास पर्याप्त जानकारियाँ हैं, बस कुछ कड़ियाँ और जोड़नी हैं; परंतु पाकिस्तान की जवाबी भाषा में वही पुरानी स्थायी-सी अकड़न हमेशा होती है कि- यह सब बकवास है - और भारत में दम हो तो सबूत पेश करे। वैसे, बहुतों को यह भी याद होगा कि दो साल पहले हुए मुंबई विस्फोटों के मामले में पक्के सबूतों के तमाम दावों के बाद सबूतों के कमज़ोर होने की बात कह कर भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने कैसे अपनी फ़ज़ीहत कराई थी। बहरहाल, मान लीजिए कि सचमुच भारत पाकिस्तान के ख़िलाफ़ ढेर सारे पुख्ता सबूत प्रस्तुत भी कर देता है, तो क्या होगा?
अब तक का इतिहास देखते हुए यही कहा जा सकता है कि भारत अपने पुख्ता सबूतों की राग अलापता रहेगा और पाकिस्तान उन्हें उतने ही पुख्ता तरीक़े से ख़ारिज कर देगा। जैसे कि इस बार भी ऐसे संकेत मिलने ही लगे हैं। इन सबूतों से पाकिस्तान के तौर-तरीक़ों में किसी परिवर्तन की उम्मीद बेमानी है। पाकिस्तान में हुए हाल के व्यवस्था परिवर्तन की ताज़ी बयार में भले ही भारत चंद दिनों के लिए आतंकवाद के ख़िलाफ़ वहां के नेताओं के सकारात्मक से लगने वाले बयानों की ख़ुशबू महसूस कर ले, पर याद यही रखना चाहिए कि पाकिस्तान कम से कम पट्टी पढ़ाने की कला में माहिर हो चुका है। वह अमरीका तक को भरमा कर अपना मतलब साधने में कामयाब होता ही रहा है, तो हिंदुस्तान किस खेत की मूली है!
इसका अर्थ यह नहीं है कि हम सबूत न जुटाएं। सबूत ज़रूर जुटाएं और उन्हें दुनिया के सामने सार्वजनिक भी करें; क्योंकि ये सबूत ही हमारे पक्ष को दुनिया के सामने मज़बूत करेंगे। लेकिन, भारत विरोधी पाकिस्तानी हरकतों पर लगाम सबूतों और साल-दर-साल ज़ोर-शोर से आयोजित होने वाली शांतिवार्ताओं से नहीं लगने वाली। सबूत हमारे पास पहले भी रहे हैं पर हम इतने अक्षम साबित हुए हैं कि उनका कोई प्रभावी परिणाम नहीं निकाल सके हैं। जहाँ तक शांतिवार्ताओं की बात है तो यह लगभग स्पष्ट ही हो चुका है कि इन वार्ताओं में अमरीकी इशारे बहुत हद तक प्रभावी रहे हैं।
असल में अमरीका शक्तिशाली है इसलिए उसके निरर्थक इशारे भी अर्थवान हो जाते हैं और भारत या पाकिस्तान के लिए उन्हें नज़रअंदाज़ कर देना आसान नहीं रह जाता। ऐसे में, इन वार्ताओं के नतीजों पर कम से कम हमारे जैसे लोग बहुत आशान्वित तो नहीं ही हो सकते। उल्टे, इस तरह के संधि-समझौतों पर भरोसा करके भारत आतंकवाद से लड़ने की अपनी ताक़त कुछ और कमज़ोर ही करता रहा है और पाकिस्तान दरअसल यही चाहता भी है।
इन वार्ताओं के युगांतरकारी फलित की उम्मीद लगाए लोग नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं कि हम जैसे लोग अकसर ही नकारात्मक और दिल बैठाने वाली बातें ही सोचते हैं। लेकिन हमारी मुश्किल यह है कि पाकिस्तान ने अपने जन्मकाल से ही अपना जो राष्ट्रीय चरित्र विकसित किया है, उसे कैसे भूल जाएं? महात्मा गाँधी की प्रेरणाओं में जीने वाले हम जैसे लोग भी चाहते तो यही हैं कि कश्मीर ही क्या, दुनिया की दूसरी समस्याएं भी शांतिपूर्ण बातचीत से हल हों। लेकिन, यथार्थ से मुँह तो नहीं मोड़ा जा सकता। यथार्थ से मुँह मोड़े रहने की ग़लती एक बार चीन के साथ करके हम नतीजा भुगत चुके हैं; और, उससे भी अगर कोई सबक न ले सके तो हमारे नेताओं की ज़बरदस्ती की खुशफहमी का क्या किया जा सकता है
बडे-बड़े राजनीतिक विश्लेषक और मीडिया के लोग भले ही इन वार्ताओं से किसी अप्रत्याशित परिणाम की उम्मीदें लगाए बैठे हों, पर सामान्य जागरूक आदमी भी अगर इन्हें बातचीत की निरर्थक कवायद ही मानकर चलता है, तो वह यूँ ही नहीं है। आज़ादी के बाद से ही भारत-पाकिस्तान के बीच वार्ता और विश्वासघात का जो सिलसिला चला है, उसने इस तरह का निष्कर्ष निकालने को मजबूर किया है। जब एक आदमी का चरित्र आसानी से नहीं बदलता, फिर पूरे राष्ट्र का चरित्र अचानक से बदल जाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? किसी राष्ट्र का चरित्र उसके अपने लोगों के सामूहिक चरित्र का ही प्रतिबिंब होता है। जो लोग पाकिस्तानी सांसदों की सौहार्दपूर्ण भारत-यात्रा और जब-तब वहाँ के कुछ लोगों के साक्षात्कार वगैरह पढ़-सुनकर यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि कश्मीर समस्या तो सिर्फ़ सत्ता की राजनीति करने वाले पाकिस्तानी शासकों के दुराग्रह का नतीजा है, तो वे बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं। वास्तव में कश्मीर पाकिस्तान की आम जनता के लिए भी भावनात्मक रूप से प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका है। यदि ऐसा न होता तो पाकिस्तान में भारत के ख़िलाफ़ आतंकवाद का खुला प्रशिक्षण अभियान संभव न होता।
यह सब कहने का यह भी अर्थ नहीं है कि पाकिस्तान की जनता भारत के साथ हर हाल में दुश्मनी ही निभाने पर तुली है। वह भी शांति चाहती है, लेकिन अपने हिसाब से अपना आत्मसम्मान ऊँचा रखते हुए। पाकिस्तानी जनता के मानस में बँटवारे के बाद से ही यह ग्रंथि बनी हुई है कि भारत उसके साथ ज्यादती करता रहा है। ऐसे में कश्मीर के मामले में जिस स्तर की आशाएं वहाँ की जनता ने लगाई हुई हैं, उससे नीचे उतरकर कोई समझौता कर पाना पाकिस्तानी शासकों के लिए आसान नहीं है। यदि किसी दबाव या राजनीति के तहत दोनों देशों के शासकों ने अपनी-अपनी कुछ ज़िदें छोड़कर ऐतिहासिक सा दिखने वाला कोई समझौता कर भी लिया तो कुछ दिनों की वाहवाही के बाद उसका भी हश्र पिछले तमाम समझौतों की तरह ही होने की संभावनाएं बनी रहेंगी।
असल में असली समाधान तो शक्ति ही है। पाकिस्तान सरासर ग़लत होते हुए भी अगर भारत के ख़िलाफ़ अभियान छेड़े हुए है तो इसीलिए कि वह भारत को बहुत शक्तिशाली नहीं समझ रहा है। पिछले कुछ युध्दों में जीत जाने के बावजूद भारत अभी तक अपने को इतना शक्तिशाली नहीं साबित कर पाया है कि पाकिस्तान की भविष्य में जीतने की उम्मीदें ख़त्म ही हो जाएं। पाकिस्तान को यह भरोसा है कि वह एक न एक दिन भारत को सबक सिखाने की ताक़त इकट्ठी ही कर लेगा। वह दिन-रात अपनी सामरिक शक्ति बढ़ाने में लगा हुआ है तो उसकी वज़ह यही है।
भारत के पास यदि पर्याप्त शक्ति होती तो पाकिस्तान क्या, चीन भी हमसे ऑंखें तरेरने से बचता। आज़ादी के बाद से ही भारत के पास इतना संसाधन, इतनी प्रतिभा और इतनी जनशक्ति थी कि वह दुनिया में सबसे बड़ी ताक़त के रूप में अपना लोहा मनवा सकता था। लेकिन हमने अहिंसा की नक़ली रट लगा-लगाकर अपने को शक्तिशाली नहीं बनने दिया। इसका अर्थ यह नहीं है कि अहिंसा कोई फ़ालतू की चीज़ है। अहिंसा की नीति बड़ी चीज़ है, बल्कि कहें कि सबसे बड़ी चीज़ है, लेकिन तब जबकि इस नीति पर चलने वालों का चरित्र गाँधी जैसा हो। बिना चरित्र की साधना के जुबानी अहिंसा कमज़ोर ही बनाने का काम करेगी। आज़ादी के बाद न तो हमारे नेताओं ने अपने चरित्र में अहिंसा को उतारने की कोशिश की और न ही देश की जनता को अहिंसा के संस्कार देने की कोई योजना बनी। ऐसी हालत में किसी राष्ट्रीय संकट के समय हम अहिंसा की दुहाई देकर अपनी रक्षा की कोशिश करें तो इससे तो 'आ बैल मुझे मार' वाली स्थिति ही बनेगी।
वास्तव में अहिंसा के लिए भी ताक़त की ही दरकार है। थोड़ी देर के लिए शब्द का ही मनोरंजन करें तो हम देखेंगे कि अहिंसा में हिंसा की पूरी ताक़त छुपी हुई है। 'अहिंसा' शब्द 'हिंसा' से ही बना है, इसके आगे नकारात्मक 'अ' लगाकर। मतलब यह कि अहिंसा में हिंसा कर सकने का दम मौजूद है। हिंसा करने का दम हो फिर भी कोई हिंसा न करे तब तो कोई बात है, अहिंसा का कोई अर्थ है; अन्यथा, कमज़ोर आदमी की अहिंसा उसकी मजबूरी और कायरता ही समझी जाएगी। इसे यूँ समझिए कि एक जर्जर सी काया वाले आदमी को कोई पहलवान एक घूँसा जड़ दे और वह कमज़ोर आदमी कहे कि- जाओ तुम्हें माफ़ किया- तो यह हास्यास्पद बात हुई। लेकिन यदि वह पहलवान कमज़ोर आदमी का थप्पड़ खाकर भी उसे माफ़ कर दे तो पहलवान की अहिंसा अर्थवान हो जाएगी।
बात गाँधीजी के साथ भी वही है। उन्होंने इतनी बड़ी लोकशक्ति पैदा की कि उनकी अहिंसा हर तरह की हिंसा पर भारी पड़ने लगी थी। गाँधीजी वीरता की अहिंसा के ही क़ायल थे और उन्होंने साफ़ कहा था कि- यदि कायरता और हिंसा में से मुझे किसी एक का चुनाव करना हो, तो मैं निश्चित रूप से हिंसा को ही चूनूँगा। मतलब साफ़ है कि अहिंसा के लिए जिस तरह की शक्ति और जैसे चरित्र की ज़रूरत है, अगर वह नहीं है, तो आत्मरक्षा के लिए अपनी सामरिक शक्ति न बढ़ाना मूर्खता ही है।
अमरीका की सामरिक शक्ति सबसे ज्यादा है, इसलिए वह दुनिया का सबसे बड़ा दादा भी है। अफ़गानिस्तान और इराक को उसने अपने मनमानी तर्कों पर बग़ैर कोई सबूत पेश किए ही रौंद डाला तो अपनी ताक़त की ही वजह से। संयुक्त राष्ट्र संघ को उसने ठेंगे पर रखा हुआ है तो ताक़त की वजह से। उसकी कंपनियों के लिए दुनिया भर के बाज़ार खुल जाते हैं तो ताक़त के ही भय से। सीरिया, उ. कोरिया, ईरान को वह ताज़ा शिकार बनाने की फिराक़ में है तो अपनी ताक़त के ही बल से। दुनिया में सबसे ज्यादा ताक़तवर सिध्द हो जाने के बावजूद पेंटागन अगर 30 हज़ार अरब डॉलर नए हथियारों पर शोध करने के लिए ख़र्च करता है तो इसीलिए कि अमरीका को मालूम है कि जब तक उसकी सामरिक शक्ति बढ़ती रहेगी तब तक दुनिया उसके आगे नतमस्तक होती रहेगी; अन्यथा, ताक़त घटी तो उसका अघोषित साम्राज्य भी ढह जाएगा। यही वजह है कि अमरीका दुनिया में किसी और देश को ताक़तवर नहीं देखना चाहता। किसी भी नई ताक़त के उभरने का अंदेशा होते ही उसे वह वहीं कुचल देना चाहता है। आतंकवाद से लड़ना, उसका सिर्फ़ नाटक है। आतंकवाद से वह वहीं तक लड़ना चाहता है जहाँ तक कि उसे ख़तरा दिखता है।
अफ़गानिस्तान और इराक की तरह अमरीका अगर दूसरे कई देशों को नि:शस्त्र नहीं कर पा रहा है तो यह उसकी मजबूरी है। फ्रांस, जर्मनी, रूस वगैरह सामरिक शक्ति के मामले मे एक मुक़ाम हासिल कर चुके हैं और अमरीका को उसकी किसी हरकत का मुँहतोड़ जवाब दे सकते हैं। परमाणुबमों का अम्बार ये सभी ही देश जुटा चुके हैं। ऐसे में जबकि किसी देश का नामोनिशान मिटा देने के लिए सिर्फ़ कुछ ही परमाणुबम काफ़ी हों तो एक के पास हज़ार-दो हज़ार और दूसरे के पास सौ-पचास परमाणुबम ही होने से कोई बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ता। इसीलिए अमरीका परमाणुशक्ति सम्पन्न देशों को दूसरे कूटनीतिक तरीक़ों से कमज़ोर बनाने की कोशिश करता है।
तो, परिस्थितियों की माँग यही है कि भारत को भी अपनी शक्ति बढ़ानी चाहिए। सामरिक और आर्थिक दोनों। अमरीका जैसा दुष्ट देश अगर दुनिया का स्वयंभू न्यायाधीश बन सकता है तो भारत जैसा सचमुच का अमन-चैन चाहने वाला देश क्यों न बनें? भारत अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे न बढ़ाने की बार-बार सफ़ाई क्यों दे? भारत को तो सही मायने में सबसे ज्यादा शक्तिशाली बनने की इसलिए भी ज़रूरत है क्योंकि शक्तिशाली हो जाने के बावजूद आक्रामक की भूमिका निभाने वाली इस देश की संस्कृति है ही नहीं। भारत शक्तिशाली होगा तो दुनिया में अमन-चैन आना आसान हो जाएगा। शक्तिसंपन्न भारत का शांतिसंदेश ज्यादा ध्यान से सुना जाएगा। शक्तिसंपन्नता की स्थिति में इस देश से निकली अहिंसा की सीख भी विश्वव्यापी प्रभाव पैदा करेगी। ऐसे में कश्मीर ही क्या, दूसरी ढेरों समस्याएं भी आसानी से हल होंगी। वैसे यह ज़रूरी नहीं है कि भारत मारक तकनीकी में ही महारत हासिल करे, बल्कि वह अपने स्वभाव और संस्कृति के हिसाब से रक्षात्मक तकनीक की दिशा में भी अग्रणी होकर शक्तिशाली बन सकता है। इस इलेक्ट्रॉनिक युग में दुनिया भर के परमाणु हथियारों के सिस्टम को जाम कर देने की तकनीक विकसित करना कोई असंभव नहीं है। रूस वग़ैरह ने कुछ क़दम इस दिशा में बढ़ाए भी हैं। भारत के पास प्रतिभाओं की कमी नहीं है और वह अमरीका जैसे देशों के ख़तरनाक से ख़तरनाक हथियारों की काट ढूँढ़ने की दिशा में काम कर सकता है। यह स्थिति आएगी तो हर तरह की दादागीरी पर भी लगाम लगेगी। विज्ञान और तकनीकी के मौजूदा वर्चस्वकाल में तकनीक के मामले में पिछलग्गू बने रहना हमें हमेशा झुकने-समझौते करने पर ही मजबूर करेगा। हमारे नेता, जो इस देश को दुनिया का सिरमौर बनाने का सपना दिखाते रहते हैं, उन्हें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि सिरमौर बनने के लिए पहले शक्तिशाली बनने का पुरुषार्थ भी करना ही पड़ेगा। हमारे सीधे-सरल और शांत स्वभाव के मिसाइल मैन डॉ. अब्दुल कलाम अगर बार-बार भारत को शक्तिशाली बनाने की अपील करते रहते हैं तो दरअसल वे वर्चस्व क़ायम करने का असली मर्म समझते हैं। उनकी यह बात बिल्कुल दुरुस्त है कि-- 'जब तक भारत दुनिया का डटकर सामना नहीं करता, तब तक कोई हमारा सम्मान नहीं करेगा। इस संसार में भय का कोई स्थान नहीं है। शक्ति केवल शक्ति का ही सम्मान करती है। स्वयं को कभी तुच्छ और निस्सहाय नहीं समझना चाहिए। हम सभी अपने भीतर एक दिव्य अग्नि लेकर पैदा हुए हैं। हमारा प्रयास इस अग्नि को पंख देना और विश्व को अच्छाई की आभा प्रदान करना होना चाहिए।'