शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

झूठे विज्ञापनों का ख़तरनाक सच

उस 12-13 वर्ष के बच्चे ने दुकानदार से कहा, ''अंकल, एक पैकेट नमक दे दो।'' दुकानदार ने नमक का पैकेट बच्चे की तरफ़ बढ़ा दिया। बच्चा कुछ देर उसे उलट-पुलटता रहा, फिर कुछ सोचते हुए बोला, ''नहीं ये वाला नहीं, दूसरा दो।'' दुकानदार ने दूसरी कंपनी का पैकेट निकाला। बच्चा अब कुछ परेशान हो उठा, ''नहीं अंकल, ये भी नहीं चाहिए। ऐसा है, कल टी. वी. पर देखकर आऊँगा फिर बताऊँगा कि कौन वाला नमक चाहिए।'' यह कहते हुए वह सरपट घर की तरफ़ दौड़ पड़ा।

यह कोई काल्पनिक नहीं, एक सच्ची घटना है जो मेरी ही ऑंखों के सामने घटी। इस घटना से विज्ञापनी मायाजाल की इनसानी जेहन पर मज़बूत होती पकड़ और उसके ख़तरों के चिंताजनक संकेत मिलते हैं। इससे यह अहसास और ज्यादा तीव्र, स्पष्ट और गहरा होता है कि कैसे बाज़ारी शक्तियाँ सिर्फ़ मुनाफ़े के लिए आदमी के विराट क्षमताओं वाले दिमाग़ को विकलांग बना रही हैं। और असल में तो बचपन से ही आदमी के दिमाग़ को, जिसे कि स्वतंत्र विकास करना चाहिए, विपरीत दिशा में मोड़कर कुंद कर देना, एक राष्ट्र ही नहीं पूरी मानवीय सभ्यता के लिए कितना नुक़सानदेह हो सकता है, इसकी कल्पना तक भयावह है। कहने को विज्ञापनों का असली उद्देश्य जनसामान्य तक विभिन्न उत्पादों की जानकारी पहुँचाना है, लेकिन अब जुनून की हद तक उपभोक्तावाद की मानसिकता पैदा करना ही इनका मुख्य उद्देश्य रह गया है। विज्ञापन अब बाज़ार तैयार करने के सबसे शक्तिशाली हथियार हैं।

भारतीय संस्कृति और परम्परा में जिन चीज़ों के बारे में अपरिचय की स्थिति हो, उनके इस्तेमाल की मनाही रही है। वस्तुओं की निर्माण प्रक्रिया की पवित्रता और जीवनचर्या में उनकी ज़रूरत, ये दो उपयोग के निर्णायक बिन्दु रहे हैं। विज्ञापनी मायाजाल ने इन दोनों ही निर्णायक पहलुओं को बेमानी बना दिया है। विज्ञापन इतने आक्रामक रूप में सामने आते हैं कि किसी उत्पाद के उपादान क्या-क्या हैं, या कि उसके उत्पादन की प्रक्रिया में कितनी सफ़ाई और पवित्रता है, ये सवाल बहुत पीछे छूट गए हैं। यह विज्ञापनों का ही कमाल है कि घर में अपनी ही ऑंखों के सामने बनी चीज़ों से भी ज्यादा विश्वसनीय विज्ञापित ब्रांड की चीज़ें हो गई हैं। हालत यह है कि ऐसे तमाम लोग, जो शाकाहार के हिमायती हैं और मांस जैसी चीज़ों को देखना भी पसंद नहीं करते, वे भी बाज़ार में पहुँचकर मांस या दूसरी अभक्ष्य चीज़ें मिली हुई जाने कौन-कौन सी वस्तुएँ बड़े शौक़ से हलक़ के नीचे उतारने में लग जाते हैं।

विज्ञापनी संस्कृति ने हमारी ज़रूरतों का बिलकुल नया ही संसार रच दिया है। अब हमारी ज़रूरतें हम ख़ुद नहीं, बल्कि विज्ञापन तय करते हैं। उत्पादन ज़रूरतों के हिसाब से नहीं, बल्कि ज़रूरतें उत्पादन के हिसाब से तय होने लगी हैं। कोई नया उत्पाद आ जाता है, फिर विज्ञापन उसे अनिवार्य ज़रूरत बनाकर प्रस्तुत करते हैं। इसका उदाहरण लेना हो तो नहाने के साबुन की बात कर सकते हैं। मेरे लिए भी यह कल्पना के बाहर की बात थी कि भला साबुन के बग़ैर नहाने के बारे में कैसे सोचा जा सकता है? लेकिन अब एक लंबे अरसे से बिना साबुन के ही नहाते रहने के बाद समझ में आ रहा है कि जो लोग शरीर की सफ़ाई के लिए साबुन को अनिवार्य समझते हैं, वे दरअसल एक तरह की मानसिक गुलामी के ही शिकार हैं। नहाने के बाद सिर्फ़ रोयेंदार तौलिए से शरीर को रगड़-रगड़कर साफ़ कर लेने या बेसन, दही, मुलतानी मिट्टी वगैरह लगाकर नहाने के बाद की स्फूर्ति, ताज़गी और त्वचा की निरोगता का अहसास तो वे ही कर सकते हैं जो साबुन की गुलामी छोड़कर ये विकल्प अपना चुके होंगे। यह विज्ञापनों का ही जादू है कि साबुन जैसी और भी ढेरों एकदम से ग़ैरज़रूरी चीज़ें आधुनिक जीवनशैली में अनिवार्यता की हद तक ज़रूरी लगने लगी हैं।

विज्ञापन अधिकांशत: अतिशयोक्तिपूर्ण और झूठ के पुलिंदे होते हैं, पर प्रभाव सच का पैदा करते हैं। इस प्रभाव का ही नतीजा होता है कि वाहियात चीजें भी रोज़मर्रा की ज़रूरतें और ज़िंदगी की शान बनने लगती हैं। यह विशुध्द विज्ञापनों का प्रभाव है कि अब गाँव-देहात के लोग तक नीम, बबूल की दातून को दकियानूसी मानकर छोड़ते जा रहे हैं और भाँति-भाँति के टूथपेस्ट दाँतों पर रगड़ने लगे हैं। कितने पढ़े-लिखे जागरूक लोगों को तो मालूम भी होता है कि टूथपेस्ट दाँतों के लिए निश्चित रूप से नुक़सानदेह ही हैं, पर विज्ञापनों ने ऐसी मानसिक गुलामी पैदा कर दी है कि वे दातून या तमाम अच्छे देशी मंजनों की वकालत करते हुए भी रसायन मिले टूथपेस्ट के झाग का आकर्षण नहीं छोड़ सकते। पेप्सी-कोका कोला जैसे तमाम शून्य पोषकता के नुक़सानदेह शीतलपेयों की भी यही कहानी है।

दरअसल विज्ञापनों की चकाचौंध का सबसे काला पक्ष यह है कि वे आदमी की स्वतंत्र निर्णय की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। विज्ञापन विवेक को कुंद कर देते हैं; और इस तरह, ख़ुद को समझदार समझने वाला व्यक्ति भी अनजाने में कब उपभोक्तावाद का शिकार बन जाता है, उसे पता ही नहीं चलता। बार-बार ऑंखों के रास्ते अवचेतन तक पहुँचने वाला विज्ञापनों का झूठा संदेश जब सयाने लोगों के लिए इतनी आसानी से सच का संस्कार बन जाता है, तो फिर मासूम बच्चों पर इन प्रभावों का क्या कहा जाए

बच्चे सबसे आसानी से विज्ञापनों के प्रभाव में आते हैं। इसीलिए विज्ञापनी आक्रमण के मुख्य निशाने पर भी अब बचपन ही है। बच्चों का अबोध मन तो विज्ञापनों को एकदम सच मानकर ही ग्रहण करता है। विज्ञापन के किसी हैरतअंगेज़ कारनामे से प्रभावित होकर अगर कोई बच्चा भी वैसा ही कारनामा कर दिखाने की कोशिश में अपना नुक़सान कर लेता है तो यह इस तरह के प्रभावों का ही असर है।

जो लोग मनुष्य के विवेक पर भरोसा करते हुए विज्ञापन जैसी चीज़ों के मन पर पड़ने वाले स्थायी प्रभावों को निश्ंचित भाव से ख़ारिज़ कर देते हैं, वे लोग दरअसल यह भूल जाते हैं कि मनुष्य अंतत: एक सीखने वाला प्राणी है। बचपन से ही मन पर जैसे-जैसे संस्कार पड़ते हैं वैसी ही हमारी मानसिकता बनती जाती है। जाति, भाषा, धर्म, संस्कृति आदि की जितनी भी विविधताएँ हैं, यह सब संस्कारों का ही खेल है। मुसलमान के बच्चे को अगर हिंदू के घर में पाला जाए तो वह हिंदू प्रतीक ही ग्रहण करेगा; इसी तरह हिंदू का बच्चा यदि मुसलमान के घर में बड़ा होगा तो 'अल्लाहो अकबर' पुकारेगा ही। कहने का साफ़ अर्थ यह है कि आदमी वैसा ही बनता है जिस तरह के उसे संस्कार मिलते हैं।

पहले संस्कार देने का काम माँ, बाप, बड़े-बुज़ुर्ग, विद्यालय और समाज करते थे; पर अब नये युग की संस्कार-व्यवस्था पर विज्ञापन, सीरियल और फ़िल्में क़ाबिज़ हो गए हैं। इस नए वातावरण में नई पीढ़ी के मानसपटल पर जिस तरह के संस्कार पड़ रहे हैं वे आख़िरी नतीजे के तौर पर एक उपभोक्तावादी, गैरज़िम्मेदार, ज़िद्दी और उच्छृंखल समाज निर्माण के ही औज़ार बन रहे हैं।

आख़िर जब विज्ञापनों का झूठापन और नकारात्मक असर इतना स्पष्ट है तो सवाल यह उठता है कि हमारी राज्य और केंद्र सरकारें इनके लिए कोई प्रभावी आचार संहिता क्यों नहीं लागू करतीं ? क्यों सच की सूचना देने के लिए बने सरकारी दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे माध्यम तक इन्हीं झूठे और लोगों को मूर्ख बनाने वाले विज्ञापनों के प्रसारण में दिन-रात लगे रहते हैं? वैसे जवाब भी इसका सीधा और जगजाहिर-सा है कि विज्ञापनों से सूचना माध्यमों को बेहिसाब मुनाफ़ा होता है। इस मुनाफ़े का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट दोनों ही माध्यमों का वजूद वर्तमान में विज्ञापनों पर ही टिका हुआ है। विज्ञापनों पर इस निर्भरता को देखते हुए ही पत्रकारिता जगत में समाचार की यह मजेदार परिभाषा प्रसिध्द है कि - 'विज्ञापनों के बीच-बीच में जो कुछ छपता है उसे समाचार कहते हैं।'

असल में अब इस विज्ञापनी फ़रेब के ख़िलाफ़ जनसामान्य की ओर से आवाज़ उठनी चाहिए। सत्ताधीशों को यह चेताने की ज़रूरत है कि मुनाफ़े से ज्यादा महत्वपूर्ण एक समाज का सकारात्मक चरित्र होता है। हमारे नेताओं को यह समझना चाहिए कि व्यवस्था के हर पायदान पर अगर भ्रष्टाचार की कोई न कोई घिनौनी शक्ल मौजूद है तो यह उपभोक्तावाद के जाल में फँसते जा रहे समाज के ही कारण है। भाँति-भाँति की चीज़ों का उपभोग ही जिस समाज का मुख्य उद्देश्य बन जाएगा, वह समाज राष्ट्रनिर्माण के लिए किसी संयम का प्रदर्शन तो नहीं ही कर सकता। ज़रूरत यही है कि समय रहते विज्ञापनों, फ़िल्मों, सीरियलों आदि संस्कारों को प्रभावित करने वाले सभी रूपों के लिए ही एक प्रभावी आचार संहिता लागू हो। ऐसा हो तो नए ज़माने के बदलावों के साथ क़दमताल करते हुए भी नई पीढ़ी के दिलो-दिमाग़ को सकारात्मक दिशा में मोड़ना कोई बहुत मुश्किल नहीं है।

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

चकलाघर चलाइए, रोजगार पाइए

दुनिया का सांस्कृतिक भूगोल बदल रहा है। नैतिकता के सबसे वर्जित इलाकों की बाड़ टूट रही है। कब कौन सा अजूबा घट जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। अकल्पनीय लगने वाला एक ऐसा ही अजूबा है - वेश्यावृत्ति विद्यालय। जी हाँ! बेल्जियम के एंटवर्प में चल रहे इस विद्यालय में स्त्री, पुरुष दोनों ही 'वेश्यावृत्ति' व्यवसाय की बाकायदा तालीम ले सकते हैं। अपने हिसाब से एक नई क्रांति का सूत्रपात करने वाले इसके आयोजकों के मुताबिक इस विद्यालय में स्वच्छ यौन संबंध, व्यवसाय प्रबंधन और वेश्यावृत्ति से संबंधित कानूनों की जानकारी दी जाएगी। मतलब यह कि यहाँ, वेश्यावृत्ति अपनाने वालों को ग्राहकों को लुभाने, ललचाने, पटाने और कामुकता के पाश में फांसने की सारी जुगत बताई और सिखाई जाएगी।

वेश्यावृत्ति की शिक्षा बाँटने वाले इन लोगों का कहना है कि वे इस धंधे की छवि सुधारना चाहते हैं और इस व्यवसाय के प्रति लोगों में आत्मविश्वास जगाना चाहते हैं। यानी, वेश्यावृत्ति को शुध्द व्यवसाय समझिए और इसमें कामयाबी के झंडे गाड़ने हैं तो सारी शर्मो-हया ताक पर रखकर मैदान मे कूद जाइए। मजेदार बात यह है कि इस तरह के अजूबे सबसे पहले पश्चिम में ही सुनने को मिलते हैं। मुनाफे को समर्पित पश्चिमी नजरिया दरअसल हर चीज को व्यापार और बाजार की तरह देखने का आदी होता जा रहा है। फिर तो पश्चिमी समाजों के लिए नैतिकता की आखिरी हद भी लाभ की खातिर ढहा देना वाजिब लग रहा है, तो इसमें कोई बहुत ताज्जुब की बात नहीं है। किसी भी उपभोक्तावादी समाज को बेरोजगारी की विकराल होती समस्या के चलते इस तरह की परिणतियों से गुजरना पड़ सकता है। बेरोजगारी की समस्या वास्तव में त्याग और संयम के ठीक विपरीत खड़ी उपभोक्तावादी जीवन दृष्टि की नई देन है। ऐसे में उपभोग के मंजिल विहीन मार्ग पर सरपट दौड़ लगाते समाज में रोजगार की तलाश में तमाम सनातन वर्जनाएँ भी टूटेंगी ही। यह उपभोक्तावादी संस्कृति के देह-विमर्श का अनिवार्य नतीजा है।

वेश्यावृत्ति को पश्चिम के कई देशों में जिस तरह से सम्मान दिया जाने लगा है, उसके नतीजे धीरे-धीरे पूरी दुनिया को और खास तौर से गरीब देशों को गंभीर रूप से भुगतने होंगे, यह स्पष्ट रूप से समझ लिया जाना चाहिए। पश्चिम में पनपे मूल्य, मान्यताएँ और रोग अंतत: हिन्दुस्तान जैसे गरीब देशों तक पहुँचते ही हैं और उन्हें ही ज्यादा कष्ट देते हैं। इस मामले में थाईलैंड का उदाहरण दिया जा सकता है, जहाँ की अर्थव्यवस्था में वेश्यावृत्ति के धंधे की भागीदारी बढ़ती ही जा रही है, लेकिन देश निरंतर कमजोर हो रहा है। हमारे लिए असली सवाल यह है कि किसी दिन भारतीय संस्कृति की छाती पर वेश्यावृत्ति के प्रशिक्षण संस्थान और उद्योग खड़े होंगे तो हम क्या करेंगे? भारतीय संस्कृति पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करने वाले कुछ लोगों को यह हास्यास्पद लग रहा होगा, लेकिन है यह गंभीर बात। इसी देश में जब समलैंगिकता के समर्थक खुलेआम खड़े होने लगे हैं तो वेश्यावृत्ति को वैधानिक जामा भी देर-सबेर पहनाने का काम किया ही जा सकता है।

अभी ही इस देश में जाने ही कितनी बेबस लड़कियों को वेश्यावृत्ति के इस नारकीय धंधे में जाने के लिए चोरी-छिपे मजबूर किया ही जाता है। जब यह वैधानिक तौर पर व्यवसाय का रूप लेगा तो हालात क्या होंगे, यह सोचकर सिहरन होती है। आखिर इस देश ने उपभोक्तावादी बयार में आकर अपने उन सांस्कृतिक मूल्यों को लगभग भुला ही दिया है, जिन पर चलते हुए उसके सामने बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझने का सवाल ही नहीं उठता। भारतीय समाज भी अब पश्चिम के नक्शे-कदम पर है, तो उस समाज की विकृतियाँ भी झेलनी ही पड़ेंगी। यानी, जिस भारतीय समाज में शरीर को किसी परम आध्यात्मिक उद्देश्य तक ले जाने का साधन माना जाता रहा हो, जहाँ रत्ती भर भी अनैतिक अर्थोपार्जन अमान्य हो, वहाँ भी अब अगर देह को नितांत बाजार की वस्तु बना दिया जाय और किसी दिन अपने सांस्कृतिक मूल्यों के ठीक विपरीत जगह-जगह वेश्यावृत्ति प्रशिक्षण संस्थान खोलकर उनके मुख्य दरवाजे पर 'चकलाघर चलाइए, रोजगार पाइए' जैसे आमंत्रण वाक्य चस्पाँ कर दिए जाएँ, तो फिर आश्चर्य ही क्या?

क्यों नहीं लगता विज्ञान में मन

आज विकास की दौड़ में वही देश विजयी होगा जो विज्ञान और तकनीकी में भी आगे रहेगा। इस वस्तुस्थिति की पहचान के साथ ही राष्ट्रीय विज्ञान नीति के पुनर्विश्लेषण की जरूरत है कि आखिर हमारे विद्यार्थी क्यों विज्ञान नहीं पढ़ना चाहते

भले ही दिल के खुश करने को हमारे सत्ता-रथ पर सवार लोगों को देश में विज्ञान शिक्षण का परिदृश्य सब तरफ हरा-हरा ही नजर आए, पर वस्तुस्थिति यही है कि हमारी शिक्षण संस्थाओं में विज्ञान विषय की लोकप्रियता घट रही है। निष्पक्ष सर्वेक्षणों के नतीजे चीख-चीख कर यही कह रहे हैं। और उस हाल में, जब दुनिया के मौजूदा विकास के चमकते चेहरे का मूलाधार विज्ञान बन चुका हो, तो वास्तव में भारत के लिए यह अजब विरोधाभास और विडंबनापूर्ण स्थिति ही कही जाएगी। इसके संकेत ग्रहण किए जाएं तो मजमून बहुत शुभ नहीं निकलेगा। दुर्भाग्य यह है कि जिम्मेदार लोग विज्ञान के प्रति विद्यार्थियों की विरक्ति स्वीकारते भी हैं तो इसके नकली कारण गिनाकर संतुष्ट हो जाते हैं। अक्सर विज्ञान को लेकर ढांचागत परेशानियों का रोना रोया जाता है, पर दिक्कतें नीतिगत कहीं ज्यादा हैं।

ठीक से देखें तो विज्ञान को बढ़ावा देने की कोई दुरुस्त नीति अभी तक हमारे देश में नहीं बनाई जा सकी है। नीतिगत कमजोरियां ऐसी हैं कि अनुसंधान कार्यों के लिए कोई ज्यादा राशि नहीं आवंटित की जाती, फिर भी हमारे विज्ञान और प्रौद्योगिकी के संस्थान इसका पूरा सदुपयोग नहीं कर पाते। वैज्ञानिक शोध और विकास पर हमारा पड़ोसी चीन हमसे तीन गुना, यानी 900 अरब रुपये और अमरीका 45 गुना यानी 13500 अरब रुपये खर्च करता है। इस विपुल राशि के बावजूद ये देश हर साल इस मद में खासा इजाफा करते हैं और हम हैं कि जीडीपी का 1 प्रतिशत भी इस काम के लिए नहीं निकाल पाते। भारत के एक छोटे प्रदेश से भी छोटा इजराइल जैसा देश भी जीडीपी का 5 प्रति तक इस मद में खर्च करता है। हमारी दयनीय स्थिति का अंदाजा इससे भी लगता है कि कनाडा में 1000 व्यक्ति पर 180 और रूस में 140 वैज्ञानिक हैं तो हमारे देश में सिर्फ 8 वैज्ञानिक। सौ करोड़ की आबादी के इस देश में हर साल विज्ञान विषय में सिर्फ सात हजार लोग ही डॉक्टरेट करते हैं तो इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है?
एक तरफ विकास के सबसे ऊपरी पायदान पर देश को आनन-फानन में पहुंचा देने के वादे और दावे; और दूसरी ओर जिस विज्ञान और तकनीकी के बूते ये सपने सज रहे हैं उसका ऐसा बुरा हाल! आखिर हम कब तक हाल में उभर आए समृध्दि के इने-गिने सिर्फ कुछ टापुओं को देख-देखकर खुशफहमी पालते रहेंगे? हमें याद रखना चाहिए कि यथार्थ की जमीन से उखड़े पांव सिर्फ आसमानी खयालों के सहारे देर तक टिके नहीं रह सकते।

हमारे नीति-निर्माताओं को यह सत्य अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि आज विकास की दौड़ में वही देश विजयी होगा जो विज्ञान और तकनीकी में भी आगे रहेगा। इस वस्तुस्थिति की पहचान के साथ ही राष्ट्रीय विज्ञान नीति के पुनर्विश्लेषण की जरूरत है कि आखिर हमारे विद्यार्थी क्यों विज्ञान नहीं पढ़ना चाहते? क्या वजह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शोधपत्रों के मामलों में भारत का दस फीसदी तक रहता आया योगदान आज महज ढाई फीसदी पर आकर सिमट गया है? वैसे थोड़ा गहरे उतरें तो यह समझना कोई बहुत मुश्किल नहीं है कि हमारे देश में विज्ञान के पाठयक्रम बेहद लचर हैं और शोधकार्यों के लिए समुचित प्रोत्साहन-सम्मान का प्राय: अभाव है। कुछ वर्ष पहले की स्थिति थी कि नीरस और उबाऊं पाठयक्रम के बावजूद विज्ञान विषय में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थी ठीक-ठाक संख्या में हुआ करते थे। इसकी वजह थी कि यदि विद्यार्थी थोड़ा भी प्रतिभाशाली हुआ तो उसे विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ने पर अन्य क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा प्रोत्साहन और सम्मान की आशा थी। लेकिन वर्तमान स्थिति यह है कि व्यावसायिक और औद्योगिक संस्थानों-गतिविधियों में प्रोत्साहन और सम्मान कई गुना बढ़ गया है। विज्ञान और तकनीकी कामों में लगे लोग कहीं नेपथ्य में पहुंचा दिए गए हैं, भले ही इन्हीं की मेहनत के बूते औद्योगिक प्रगति की स्थिति भी बनती हो। यही वजहें हैं कि विज्ञान के प्रतिभाशाली विद्यार्थी बड़ी-बड़ी कंपनियों के व्यावसायिक पद संभालने को प्राथमिकता देने लगे हैं। असल में विज्ञान के विद्यालयी पाठयक्रमों और वैज्ञानिक शोध के कामों में बगैर आकर्षण पैदा किए हम विद्यार्थियों की रुचि को इस तरफ नहीं मोड़ सकते।

हमारे नीति-निर्माता थोड़ी भी इच्छाशक्ति दिखाएं तो विज्ञान के पाठयक्रमों की नीरसता खत्म की जा सकती है। विज्ञान के सिध्दांत सार्वभौम हैं, वे किसी देश काल से नहीं बंधे होते, फिर विद्यार्थियों को समझाने के लिए पराए अनजाने उदाहरणों की जरूरत क्या है? गुरुत्वाकर्षण का नियम समझाने के लिए अबूझ उदाहरणों के बजाय अपने आसपास घट रही रोजमर्रा की दस-बीस घटनाओं की बात क्या ज्यादा रोचक नहीं साबित होगी? असल में विज्ञान के पाठयक्रमों में स्थानीयता का तत्तव शामिल किए जाने की जरूरत है। यह हो तो विज्ञान एक जीवंत और सरस विषय बन जाएगा। मूलत: विज्ञान के नियम तो जीवंत ही हैं, क्योंकि वे समूची सृष्टि में स्वत: व्यहृत हो रहे हैं। कमी हमारी है कि हम उन्हें भाषा की जड़ता में बांध देते हैं। विज्ञान कठिन नहीं है, पर यह हम पर निर्भर है हम उसके साथ कितनी सहज-सरल भाषा और व्यावहारिक-दिलचस्प दृष्टांत जोड़ते हैं। एक उदाहरण लें। हमारे देश में किसान मटर जैसी फसलों के साथ सदियों से सरसों भी बोते रहे हैं। मिश्रित खेती का विनाशकाल आ पहुंचने के बावजूद अभी भी यह स्थिति जहां-तहां देखी जा सकती है। अब विज्ञान ने यह सिध्द कर दिया है कि मटर जैसी फसलों के साथ सरसों की खड़ी फसल पाले के प्रभाव को रोकती है। यदि गांव के विद्यार्थी को रोजमर्रा के आंखों के सामने के इन उदाहरणों के साथ विज्ञान के सिध्दांत बताए जाएं, तो कोई कारण नहीं है कि विज्ञान विषय की रोचकता में चार चांद न लग जाएं। यह तो पढ़ाया जाता है कि धरती को हर दिन सूरज से जितनी वैद्युत चुंबकीय ऊर्जा मिलती है वह एक वर्ष में विश्व की कुल ऊर्जा खपत का सौ गुना है। लेकिन इस जानकारी के साथ विद्यार्थी को अपने गांव के क्षेत्रफल के हिसाब से सूरज से मिल रही ऊर्जा का आकलन करने और उपयोग की संभावनाओं का पता लगाने का व्यावहारिक काम दे दिया जाए, तो संभवत: इस प्रक्रिया में ही कई विद्यार्थियों का मन स्वत: ही वैज्ञानिक अनुसंधानों की दिशा में बढ़ने लगेगा।

कम से कम हाईस्कूल-इंटर तक के पाठयक्रमों का उबाऊपन तो आसानी से खत्म किया ही जा सकता है। और यदि, इस स्तर तक युवाओं में सहज वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित हो जाए, तो आगे का रास्ता अपने आप आसान हो जाएगा। विज्ञान विषय के साथ स्थानीयता का तत्तव जोड़ने का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि यदि किसी विद्यार्थी का बाद में इस विषय से नाता टूट गया, तो भी उसके जीवन में प्राप्त ज्ञान की व्यावहारिक उपयोगिता बनी रहेगी; अन्यथा, आज की स्थिति में तो विज्ञान विषय का अर्थ पढ़ाई छूट जाने के बाद सिर्फ भूल जाने तक ही रह गया है।

विज्ञान में दिलचस्पी जगाने के लिए अनुसंधान कार्यों को प्रोत्साहन और भरपूर सम्मान दिया जाना भी नितांत जरूरी है। होना यह चाहिए कि विद्यार्थी स्तर से ही अनुसंधानात्मक कार्यों के लिए प्रोत्साहन दिया जाए। देश में ऐसे अनेक प्रतिभाशाली लोग हैं जो कम पढ़े-लिखे हैं या अनपढ़ हैं, पर उन्होंने अपने ही बूते वैज्ञानिकों को भी आश्चर्य में डाल देने वाले तकनीकी काम कर दिखाए हैं। मेरठ के साधारण से मिस्त्री का स्कूटर के इंजनों को जोड़कर बनाया हेलीकाप्टर हो, पूणे के चंद्रकांत पाठक का बिना किसी ईंधन के जलापूर्ति का यंत्र हो, राजकोट के गांधीवादी वेलजी भाई देसाई का एकदम सरल तकनीक से बना सोलर कुकर हो; ये सभी आश्चर्य में डालने वाली चीजें हैं। लेखक ने स्वयं इन चीजों को नजदीक से देखा-समझा है। दुर्भाग्य से ऐसे कामों को प्रोत्साहित करने की किसी नीति का अभाव है, उल्टे ऐसे लोगों को अक्सर प्रशासनिक स्तर से प्रताड़ित करने की ही घटनाएं हुई हैं।

सही प्रोत्साहन-नीति हो तो प्रयोगशालाओं से बाहर खेत-खलिहानों में भी विद्यार्थी स्तर पर या जनसाधारण के स्तर पर भी उपयोगी अनुसंधानों की एक धारा निकल सकती है। अर्थशास्त्र के पंडितों को भले अटपटा लगे, लेकिन इस देश को विकास के ऊंचे पायदान पर पहुंचाना है तो विज्ञान और तकनीकी के लिए जीडीपी का दस प्रतिशत तक खर्च किया जाना चाहिए। मात्र 17000 कालेजों में हो रही विज्ञान की नीरस पढ़ाई से बहुत काम नहीं निकलने वाला। विकास की जिस राह पर हम खड़े हैं, वहां विज्ञान के संस्थानों की वृध्दि और अनुसंधान कार्यों पर खर्च कभी घाटे का सौदा नहीं हो सकता। विज्ञान और तकनीकी के लिए काम कर रहे साधारण लोगों से लेकर विद्यार्थी और वैज्ञानिक स्तर तक के लिए भरपूर प्रोत्साहन और पुरस्कार की योजनाएं अब बननी ही चाहिए। यह हो, तो विज्ञान में भी भविष्य उज्ज्वल दिखाई देगा। और इस तरह, जीवंत पाठयक्रम के साथ उज्ज्वल भविष्य की संभावना दिखाई दे, तो कोई कारण नहीं बचता कि देश के युवाओं में विज्ञान से विरक्ति पैदा हो।

बुधवार, 7 जनवरी 2009

अपना डॉक्टर आप बनने का जोख़िम उठाएँ

इस लेख का शीर्षक पढ़कर पाठक कुछ आश्चर्य में पड़ सकते हैं, क्योंकि पत्र-पत्रिकाओं से लेकर टेलीविजन तक में जनसामान्य के लिए यही मशवरा दिया जाता है कि किसी को अपना डॉक्टर ख़ुद बनने का जोख़िम नहीं उठाना चाहिए। लोग बग़ैर किसी डॉक्टरी सलाह के अपनी छोटी-मोटी तकलीफ़ों के लिए मनमर्ज़ी से दवाएँ खाकर अक्सर ही जिस तरह से बड़ी-बड़ी तकलीफ़ों को न्यौता दे बैठते हैं, उसे देखते हुए डॉक्टरी सलाह से ही दवा खाने के मशवरे को जायज़ कहा ही जाएगा, लेकिन मैं अगर अपना डॉक्टर आप बनने की सलाह दे रहा हूँ तो उसकी भी जायज़ वजहें हैं।
मेरा मानना है कि लोग अपना डॉक्टर ख़ुद बनने का जोख़िम नहीं उठाते, इसीलिए दुनिया में बीमारियाँ बढ़ रही हैं और सेवाभाव वाली चिकित्सा मुनाफ़े का व्यवसाय बना दी गई है। मौजूदा हालात ये हैं कि जिसके पास पर्याप्त धन है वह तो आसानी से चिकित्सा सुविधाएँ जुटा लेता है, पर सामान्य आदमी के लिए साधारण बीमारी भी मुसीबतों का पहाड़ लेकर आती है। आदमी ज्यादा ग़रीब हुआ तो कई बार डॉक्टरी फ़ीस की व्यवस्था न कर सकने के कारण साधारण बुख़ार भी उसके लिए मौत का पैग़ाम बन जाता है। सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था का हाल यह है कि बड़े शहरों में बड़े लोगों के लिए तो बड़ी-बड़ी सुविधाएँ हैं, पर गाँव-देहात और छोटे शहरों के लिए बुनियादी सुविधाएँ तक नदारद हैं। देश की 90 फ़ीसदी आबादी बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं से दूर है। देश के लगभग 25 हज़ार प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों का हाल भी बुरा ही है। इसी का नतीजा है कि प्राइवेट नर्सिंग होमों और अस्पतालों में सुविधा के नाम पर मरीज़ों को बेरहमी से लूटा जाता है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य की हालत यह है कि देश की लगभग एक तिहाई महिलाएँ और आधे से भी ज्यादा बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। लगभग 55 प्रतिशत महिलाओं और 75 प्रतिशत बच्चों में ख़ून की कमी है। देश के हर पंद्रहवें शिशु की एक वर्ष के भीतर ही मौत हो जाती है। औसतन 10 में 4 नवविवाहिताओं को प्रजनन संबंधी कम से कम एक स्वास्थ्य समस्या ज़रूर रहती है। लगभग दो-तिहाई महिलाओं को अपनी प्रजनन संबंधी समस्याओं के लिए दवाएँ नहीं मिल पातीं। यदि इन समस्याओं का समुचित इलाज नहीं हो पाता तो वे गंभीर बीमारियों से भी ग्रस्त हो जाती हैं। ऐसे में आने वाली संतति का स्वास्थ्य भला कैसे बेहतर रह सकता है? सामान्य आबादी के हिसाब से देखें तो औसतन 1 लाख की आबादी वाले छोटे से इलाक़े में भी लगभग तीन हज़ार लोग दमा से, पाँच-छह सौ लोग टी. बी. से, लगभग डेढ़ हज़ार लोग पीलिया से और लगभग 4 हज़ार लोग मलेरिया से ग्रस्त मिल जाएँगे। छोटी-मोटी बीमारियों से तो हर कोई परेशान मिलेगा। आज के समाज में पूरी तरह से एक स्वस्थ आदमी को ढूँढ़ निकालना दुनिया का सबसे बड़ा अजूबा ही होगा।
स्वास्थ्य विज्ञान की ढेरों उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने के बाद भी राष्ट्रीय स्वास्थ्य की यह दशा है तो इसका एक बड़ा कारण यही है कि लोगों का स्वास्थ्य ठीक रखने की ज़िम्मेदारी मुनाफ़े को ही अपना धर्म मान चुके डॉक्टरों, नर्सिंग होमों और अस्पतालों को ही सौंप दी गई है और लोगों को डराया जा रहा है कि वे अपनी चिकित्सा ख़ुद करने का ख़तरा मोल न लें। ऐसे में हो यह रहा है कि जागरूक क़िस्म के लोग भी स्वास्थ्य विज्ञान को सिर्फ़ चिकित्सा व्यवसाय से जुड़े लोगों का ही विषय मानकर इसकी साधारण जानकारी तक करने की ज़रूरत नहीं समझते; और अगर, कभी किसी सामान्य सी तकलीफ़ में डॉक्टर की फ़ीस से बचने के लिए या लापरवाही में ही किसी सुनी-सुनाई दवा का इस्तेमाल कर लेते हैं तो अक्सर इसका दुष्प्रभाव भी उन्हें झेलना ही पड़ जाता है।
वास्तव में स्वास्थ्य विज्ञान की ज़रूरी जानकारी तो हर व्यक्ति को ही होनी चाहिए। सिर्फ़ आहार-विहार की ही समुचित जानकारी हो तो आधी से ज्यादा बीमारियाँ पास ही न फटकने पाएँगी। दुनिया के हर पशु-पक्षी को अपने आहार-विहार का सहज ज्ञान है। उसे किसी अस्पताल की ज़रूरत नहीं पड़ती, लेकिन सृष्टि के सबसे बुध्दिशाली मनुष्य का हाल यह है कि उसे ही नहीं मालूम कि वह क्या खाए, क्या पिए, कैसे सोए, कैसे रहे? यहाँ एक जानने लायक़ महत्वपूर्ण बात यह है कि प्राचीन भारतीय व्यवस्था में आज के जैसी स्थिति नहीं थी। हमारी प्राचीन संस्कृति में हर विद्यार्थी के लिए ही स्वास्थ्य शिक्षा अनिवार्य रही है। तब जीवन के अन्य ज़रूरी ज्ञान के साथ आयुर्वेद का भी ज्ञान शिक्षा का ज़रूरी हिस्सा था। आयुर्वेद का अर्थ सिर्फ़ जड़ी-बूटियों से ही नहीं, बल्कि उस समय तक विकसित समूचे चिकित्साविज्ञान से था। तब के साधारण आदमी को भी जड़ी-बूटियों आदि के बारे में इतना गहरा ज्ञान होता था कि ज्यादातर बीमारियों को वह ख़ुद ही ठीक कर सकता था। किसी विशेषज्ञ वैद्य के पास तो कुछ विशेष परिस्थितियों में ही जाने की नौबत आती थी। स्वास्थ्य के प्रति इस दृष्टिकोण का ही नतीजा है कि प्राचीन सांस्कृतिक धारा छिन्न-भिन्न हो जाने के बावजूद अभी-भी कहीं किसी गाँव-गिराँव में कोई न कोई बूढ़ा-बुजुर्ग़ जड़ी-बूटियों का थोड़ा-बहुत जानकार मिल ही जाता है।
आज भी ज़रूरत इसी बात की है कि कम से कम समाज के जागरूक और पढ़े-लिखे लोगों को स्वास्थ्य विज्ञान का अध्ययन ज़रूर करना चाहिए और आमतौर पर होने वाली अधिकांश बीमारियों का इलाज करने में उन्हें सक्षम होना चाहिए। ऐसा हो तो वे अपना स्वास्थ्य तो ठीक ही रख सकेंगे, अपने परिवार और गाँव-समाज के ग़रीब लोगों की भी बड़ी सेवा कर सकेंगे। एलोपैथी को अगर ख़तरे की पध्दति मानकर छोड़ भी दिया जाय तो प्राकृतिक चिकित्सा, एक्यूप्रेशर, आयुर्वेद और होम्योपैथी-बायोकैमी जैसी चिकित्सा पध्दतियों को तो आसानी से सीखा ही जा सकता है। प्राकृतिक चिकित्सा और एक्यूप्रेशर की बुनियादी बातें तो अनपढ़ लोगों को भी सिखाई जा सकती हैं। इतनी जानकारी से ही ढेर सारी तकलीफ़ों से निजात मिल सकती है। जो लोग पढ़े-लिखे और जागरूक क़िस्म के हैं उन्हें आयुर्वेद और होम्योपैथी जैसी पध्दतियों को गंभीरता से सीखना चाहिए। होम्योपैथी तो आधुनिक युग के लिए बहुत ही क्रांतिकारी पध्दति है। यही एक पध्दति ऐसी है जिससे गंभीर आनुवंशिक बीमारियाँ तक बड़ी आसानी से ठीक की जा सकती हैं। इसके अलावा एलोपैथी में जिन बीमारियों में शल्यक्रिया अनिवार्य बताई जाती है उनमें भी लगभग 90-95 फ़ीसदी स्थितियाँ होम्योपैथी में बिना किसी चीड़-फाड़ के ठीक की जा सकती हैं। यह एक आश्चर्यजनक बात है कि कई असाध्य बीमारियाँ इस पध्दति में आसानी से साध्य हो जाती हैं।
यह सब जो मैं कह रहा हूँ तो इसलिए कि इसका मैं प्रत्यक्ष अनुभवकर्ता भी हूँ। बचपन से लेकर कुछेक वर्ष पहले तक मैंने काफ़ी बीमारियाँ भुगती हैं। एलोपैथी की कितनी दवाएँ और कितने इंजेक्शन मेरे शरीर में समा चुके हैं, इसकी गिनती कर पाना मेरे लिए भी मुश्किल ही है। और तो और, इन दवाओं का दुष्प्रभाव यह हुआ कि मेरे लीवर, फेफड़े, गुर्दे और ऑंतें बुरी तरह प्रभावित हो गए। यदि अभी तक डॉक्टरों अस्पतालों के ही चक्कर में होता तो एक तो ख़र्च लाखों में पहुँचता ही और तब पर भी मेरे अभी तक जीवित बचे रहने की गारंटी होती, इसमें भी संदेह ही था। जीवन को संकटग्रस्त जानकर मैंने आत्मबल जुटाया और अपना डॉक्टर आप बनने की शुरूआत की। प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद, एक्यूप्रेशर, होम्योपैथी का मैंने विशेष अध्ययन किया तो आज स्थिति यह है कि मैं अपने स्वास्थ्य की रक्षा तो कर ही रहा हूँ, प्रतिदिन अपने व्यस्त समय में से एक दो घंटे निकालकर लोगों को चिकित्सा परामर्श और होम्योपैथी की नि:शुल्क दवाएँ भी देता हूँ। इस दौरान शायद उन ग़रीब मरीज़ों को भी उतनी ख़ुशी न हुई होगी जितनी कि उनकी कई असाध्य बीमारियाँ ठीक करने के बाद मुझे हुई हैं।
हर परिवार में न सही तो हर गाँव में ही यदि एक-दो लोग भी इन दुष्प्रभावहीन चिकित्सा पध्दतियों की जानकारी कर लें तो डॉक्टरों अस्पतालों की लूट पर अंकुश लग जाए। एक व्यक्ति का सालाना चिकित्सा ख़र्च यदि औसतन हज़ार रुपये भी मानकर चलें तो दस लोगों के सामान्य परिवार का इस तरह कम से कम दस हज़ार रुपया हर साल बच सकता है। पूरे गाँव के स्तर पर यह रक़म लाखों में पहुँचेगी और इस बचत से गाँव के विकास के कई ज़रूरी काम किए जा सकते हैं। तो निष्कर्ष साफ़ है कि जागरूक लोग अपना डॉक्टर ख़ुद बनने का जोख़िम जरूर उठाएँ, लेकिन अधकचरेपन के साथ नहीं। दो-चार दवाओं के ही नाम न रटें, बल्कि चिकित्सा विज्ञान के सिध्दांतों की समझ बनाएँ तो 'नीम हक़ीम ख़तरे जान' वाली स्थिति नहीं रहेगी। एलोपैथी दवाओं में विशेष सावधानी की ज़रूरत इसलिए पड़ती है कि इसकी ज्यादातर दवाएँ दुष्प्रभाव भी करती हैं। हालाँकि एलोपैथी का सीखना भी होम्योपैथी वग़ैरह से कठिन नहीं है, पर दवाओं के मिश्रणों के समुचित ज्ञान के बगैर इनका इस्तेमाल मनमानी तरीक़े से नहीं ही करना चाहिए। ऐसे में एलोपैथी दवाओं के लिए डॉक्टर की सलाह ज्यादा ज़रूरी हो जाती है; अन्यथा, इस पध्दति की भी पर्याप्त जानकारी हो तो कोई संकट नहीं है।
इस तरह की सलाह पर अमल करके यदि गाँव-गाँव में लोग चिकित्सा सेवा के काम करने लगें तो एक बड़ी अड़चन यह आएगी कि सरकार इस बात की इजाज़त नहीं देगी। चिकित्साशास्त्र की पढ़ाई के लिए बड़े-बड़े मेडिकल कालेज खुले हैं और बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ दी जाती हैं। विज्ञान की पढ़ाई अनिवार्य है। ऐसे में मान लिया गया है कि बिना कालेज की पढ़ाई किए चिकित्साशास्त्र का ज्ञान असंभव है। एलोपैथी की जान-बूझकर जटिल बनाई गई पध्दति के लिए इस धारणा को किंचित ठीक मान भी लें, तो आयुर्वेद या होम्योपैथी के लिए तो इस तरह के अध्ययन की व्यवस्था सरासर अनुचित ही है। होम्योपैथी के बारे में तो यह ग़ज़ब का सच है कि जिसका भी मनोविज्ञान में, सोच-विचार में, समाजसेवा करने में रुचि हो, वह इस पध्दति का बेहतर चिकित्सक बन सकता है।
सिर्फ़ मेडिकल कालेज की डिग्री वालों को ही चिकित्सा क्षेत्र में आने की छूट है, तो इसलिए कि यह अब सेवा का क्षेत्र न रहकर धंधा बन गया है और चिकित्सा माफ़िया नहीं चाहते कि व्यक्ति, परिवार या गाँव-समाज अपने स्वास्थ्य की देख-रेख खुद कर ले। लेकिन यदि राष्ट्रीय स्वास्थ्य की विकराल होती समस्याओं पर क़ाबू पाना है, तो जो भी लोग सेवाभाव से चिकित्सा का काम करना चाहते हैं, उनके लिए बिना कालेज की डिग्री की अनिवार्यता के भी चिकित्साशास्त्र की पढ़ाई की सहूलियत सरकारों को देनी चाहिए। वैसे सरकारी सहूलियत न भी मिले तो भी हर जागरूक व्यक्ति को प्राकृतिक, आयुर्वेदिक, एक्यूप्रेशर, होम्योपैथी आदि में से एक या एकाधिक पध्दतियों की जानकारी करके कम से कम अपना डॉक्टर ख़ुद बनने का पुरुषार्थ तो करना ही चाहिए। वास्तव में संपूर्ण स्वास्थ्य का सपना पूरा हो सकता है तो कुछ इसी तरह।

सोमवार, 5 जनवरी 2009

भगवान के घर

ईश्वर की प्रार्थना के लिए भक्तों को क्या चाहिए? मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च या और कुछ? राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का कहना था - 'देश के करोड़ों ग़रीबों और भूखों मरते लोगों की सेवा करनी है तो प्रार्थना मंदिर ईंट-चूने का मकान नहीं हो सकता, इसके लिए तो आकाश का छप्पर और दिशाओं रूपी खंभे ही काफ़ी होने चाहिए।' गाँधीजी अपनी इस मान्यता के साथ ही जिए और मरे, और बीती सदी के सबसे बड़े जनसेवक साबित हुए। बापू के इस वक्तव्य को अहसास में उतारना हो तो एक बार उनकी आख़िरी साधना-स्थली सेवाग्राम आश्रम (वर्धा) देखना चाहिए। वहाँ 'बापू कुटी' और 'आदि निवास' के बीच वह स्थान है जहाँ गाँधीजी आश्रम के रहवासियों, सहयोगियों के साथ सर्वधर्म प्रार्थना किया करते थे। बिल्कुल सीमाहीन प्रार्थना मंदिर। ईंट-पत्थरों की कोई चहारदीवारी नहीं। एक अदना-सा चबूतरा भी नहीं। खुली धरती, खुला आसमान और चहुँ ओर की खुली-खुली प्रकृति। ऐसा था गाँधीजी का सीमाहीन, बंधनविहीन प्रार्थना मंदिर कि आसपास का वातावरण भी प्रार्थनारत दिखाई दे।

     आज गली-गली, चौराहे-चौराहे पर दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बन रहे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च वग़ैरह आदमी के गिरते चरित्र को नहीं बचा पा रहे हैं तो ऐसे में गाँधीजी की मान्यता ही ज्यादा प्रासंगिक लगती है। शायद हम ईंट-पत्थरों को जोड़-जोड़कर अपने-अपने भगवानों के भाँति-भाँति के भव्य घर बनाने में उलझ गए हैं। इस उलझाव में प्रभु का असली काम कहीं पीछे छूट गया है। ऐसा न होता तो भगवान के जिन घरों में प्रेम, सेवा, सहिष्णुता के सुवास की अनुभूति होनी चाहिए, वहाँ सांप्रदायिक तनावों की सड़ांध न महसूस होती।

     भगवान के ये घर कभी मानवीय बुराइयों पर विजय पाने की साधना-स्थली भले ही रहे हों, पर अब तो बनवाने वालों के आत्म-प्रदर्शन से बहुत आगे की बात नहीं लगते। जितने भव्य मंदिर, उतना ही ऊँचा निर्माताओं का अभिमान। मंदिर विशालकाय हो, भव्य हो तो भक्तों का हुजूम उमड़ पड़ता है। जीर्ण-शीर्ण छोटे मंदिर के पुजारी को तो रोटी के भी लाले पड़ जाएँ। दक्षिण भारत की यात्रा करें तो मंगलौर से कोई तीस किलोमीटर की दूरी पर मिलेगा हीरे-पन्ने के व्यापार का गढ़ - मूड़बिदरी। यहाँ जिधर भी निगाह दौड़ाएँगे मंदिर ही मंदिर नज़र आएँगे। एक से एक भव्य मंदिर। कहते हैं मूड़बिदरी में पहला व्यापारी आया तो उसने अपने लिए एक विशेष मंदिर बनवाया। जब दूसरे व्यापारी आए तो वे भी पीछे क्यों रहते? सबने एक से बढ़कर एक भव्य मंदिर बनवाने की जैसे होड़ लगा दी। नतीजन, यहाँ चप्पे-चप्पे पर ऐसे भव्य मंदिर देखने को मिल जाएँगे कि राजाओं के महलों की चमक फीकी पड़ जाए। लेकिन ये मंदिर किसी संवेदनशील दर्शक के मन पर कोई सौम्य प्रभाव नहीं छोड़ते; बल्कि, आतंक बनकर छा जाते हैं और वितृष्णा पैदा करते हैं। जिस देश में लाखों-करोड़ों लोग अभी भी दो जून की रोटी का ठीक से इंतज़ाम न कर पाते हों, वहाँ भव्यता की यह कैसी ईश्वर भक्ति? भक्त तो कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, नानक, रैदास भी थे जिन्होंने अपने भगवान अपने मन-मंदिर में ही पा लिए थे। महापुरुषों का संदेश यही है कि दीन-दुखियों की सेवा, देश-समाज की सेवा ही सबसे बड़ी प्रभु-भक्ति है। महर्षि दयानंद सरस्वती ने तो आर्यसमाज के छठे नियम के रूप में प्रभु-भक्ति का पैमाना ही बना दिया कि- 'संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है।' वास्तव में यदि हम महापुरुषों की वाणी और उनके जीवन-व्यवहार से प्रेरणा लें तो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे सबके ही रूप बदल जाएँगे। भगवान के ये घर सही मायने में सेवा-स्थली और दीन-दुखियों के लिए आश्रय-प्रदाता बन जाएँगे और जीवन दया, करुणा, सेवा के भाव-संगीत से झंकृत हो उठेगा।

रविवार, 4 जनवरी 2009

भारतीय संस्कृति की पहचान

भारतीय संस्कृति की पहचान का सवाल आसान और कठिन दोनों ही है। आसान इसलिए है कि भारतीय संस्कृति का उत्स बहुत स्पष्ट है और इसे इसके उत्स से देखने की सहज कोशिश करें तो इसकी विराटता का रहस्य परत-दर-परत आसानी से खुलता चला जाता है। इसके विपरीत, यदि सांस्कृतिक पहचान का यह सवाल काफ़ी जटिल लगता है तो इसलिए कि भारतीय परिवेश में जन्मे विभिन्न मत, पंथ या सम्प्रदाय भारतीय संस्कृति की अपने-अपने हिसाब से अलग-अलग परिभाषाएँ करते हैं। इस देश के बुध्दिजीवियों की भी इस मुद्दे पर अलग-अलग स्थापनाएँ हैं। पश्चिमी शिक्षा-दीक्षा में पले-बढ़े विद्वान, बुध्दिजीवी, इतिहासकार वग़ैरह तो कुछ ज्यादा ही आत्मविश्वास के साथ इस मुद्दे पर अपने विचार व्यक्त करते हैं और निश्चित रूप से इस सवाल को और जटिल बना देते हैं।

      भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए ढेर सारे लोग, ढेर सारे संगठन और ढेर सारे जनान्दोलन अक्सर आवाज़ उठाते ही रहते हैं, लेकिन समस्या यह है कि जब संस्कृति की पहचान ही स्पष्ट न हो तो आख़िर बचाया क्या जाए? संस्कृति की रक्षा के लिए मुहिम चलाने वालों से यदि पूछ लिया जाए कि आख़िर वे किन मूल्यों की रक्षा करना चाहते हैं, तो वे प्राय: असमंजस में पड़ जाते हैं। कोई भारतीय संस्कृति के लिए एक शब्द देना चाहता है - संयम; और इसको लेकर ज़ोरदार और लुभावना भाषण दे डालता है। कोई कहता है कि हमारी संस्कृति की पहचान 'त्याग' के रूप में होती है। किसी का विचार है कि भारतीय संस्कृति के मूल में दया, करुणा, अहिंसा जैसे मूल्य हैं। इसी तरह से अपने को समझदार समझने वाले हर आदमी और हर सम्प्रदाय की संस्कृति को लेकर अलग-अलग मान्यताएँ हैं। यहाँ ध्यान देने वाली एक बात ज़रूर है कि सांस्कृतिक पहचान को लेकर ये सभी विचार व मान्यताएँ अलग-अलग होते हुए भी एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं। सब कहीं न कहीं से भावनात्मक स्तर पर एक ही अन्तर्धारा में प्रवाहित होते हुए दीखते हैं। ऊपर से अगर कुछ मतभेद दिखते भी हैं तो आन्तरिक रूप में वे फिर भी एक सूत्र में ही जुड़े हैं। इन कुछ मतभेदों के बावजूद यदि सभी अपनी संस्कृति को संयम, त्याग, दया, करुणा, अहिंसा आदि के रूप में ही व्याख्यायित करते हैं और हिंसा या भोगवाद को अपसंस्कृति के रूप में देखते हैं तो इसका साफ़ अर्थ है कि इस देश की भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के मूल उद्गम का मनोभाव अन्तत: एक ही है।

      भारतीय इतिहास दृष्टि से देखे तो दरअसल हुआ यह है कि महाभारत काल के बाद जब इस देश का सामाजिक ढाँचा काफ़ी अव्यवस्थित होने लगा तो इस अव्यवस्था को ही अपने-अपने हिसाब से व्यवस्थित रूप देने के लिए इस देश के विचारकों, महापुरुषों ने सम्प्रदायों की नींव डाली। छिन्न-भिन्न होते सांस्कृतिक पहचान के एक लम्बे दौर में अलग-अलग सम्प्रदायों और विचारशील लोगों के लिए समग्रता में अपनी सांस्कृतिक विरासत की पहचान मुश्किल हुई तो उन्होंने अपने-अपने हिसाब से इसके सिर्फ़ कुछ अंगों को ही लेकर उन्हें अपनी मौलिक व्याख्याएँ दीं और संस्कृति का समग्र रूप कहकर प्रचारित किया। कहने का अर्थ यह है कि संयम, त्याग, अहिंसा, दया, करुणा आदि भारतीय संस्कृति के मूल उत्स और समग्र रूप की पहचान नहीं कराते, बल्कि ये सब हमारी संस्कृति के विराट रूप के सिर्फ़ कुछ उदात्ता मूल्य या अंग ही हैं।

      भारतीय संस्कृति की पहचान हर तरह की रूढ़ियों से मुक्त होकर सहजता से करने की कोशिश करें तो हमें इसकी शुरुआत वेदों से करनी पड़ेगी। पाश्चात्य विद्वानों और उन्हीं के मानसपुत्र कुछ भारतीय इतिहासकारों द्वारा तमाम भ्रम फैलाए जाने के बावजूद वेद ही भारतीय सभ्यता-संस्कृति के आदि ग्रन्थ सिध्द होते हैं। इस तरह से स्पष्टत: भारतीय संस्कृति के उत्स्रोत भी वेद ही माने जाने चाहिए। वेदों की बात करते हुए स्पष्ट रूप से यह भी समझ लेना चाहिए कि ये कोई हिन्दुओं के धर्मग्रन्थ नहीं हैं। वैदिककाल में तो हिन्दू ही क्या, किसी भी सम्प्रदाय का अता-पता ही नहीं था। 'हिन्दू' शब्द तो बहुत बाद का है और बौध्द, जैन आदि सम्प्रदाय भी बहुत बाद के हैं। वास्तव में विरासत के रूप में तो वेद कम से कम भारतीय परिवेश में जन्मे सारे ही सम्प्रदायों के सांस्कृतिक स्रोत माने जाने चाहिए, भले ही कुछ सम्प्रदायों ने वेदों की मनमानी व्याख्याएँ करके उन पर अधिकार करने की कोशिश की हो या कि कुछ ने इनका विरोध किया हो। इस तरह से जब यह समझ स्पष्ट हो जाती है कि भारतीय संस्कृति के उद्गम स्थल वेद हैं तो संस्कृति का मूल स्वरूप समझना भी आसान हो जाता है।

      वेदों में पहला वेद है--ऋग्वेद। ऋग्वेद का पहला मन्त्र है -'अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्'। यह पहला मंत्र ही वास्तव में संस्कृति की बुनियाद को स्पष्ट कर देता है। 'यज्ञ' की बात से वेदों की शुरुआत क्या हुई है कि चारों वेद ही यज्ञ की महिमा गाते दिखाई देते हैं। वास्तव में वेदों में जो कुछ भी कहा गया है, उस सबका उद्देश्य यज्ञ ही है। 'यज्ञ' के इतने रूप और इतनी व्यापकता है कि तमाम विद्वानों ने इसका मर्म न समझकर वेदों को निरा स्थूल कर्मकांडों के व्यवस्था-ग्रन्थ ही घोषित कर दिए हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि 'यज्ञ' का मूलभाव समझ लिया जाय तो स्पष्ट समझ में आएगा कि भारतीय संस्कृति को एक शब्द में समाहित करने के लिए उसे 'यज्ञ' ही कहना सर्वोचित होगा। जरा गहरी विचारणा में उतरें तो इस उपपत्ति के 'इति सिध्दम्' तक पहुँचना मुश्किल नहीं है।

      'यज्ञ' शब्द संस्कृत के 'यज्' धातु से बना है और इसका अर्थ निकलता है - देवपूजा, संगतिकरण और दान। इन तीनों शब्दों को थोड़ा और स्पष्ट करें तो चर-अचर सम्पूर्ण जगत् में चल रहे स्थूल या सूक्ष्म क्रिया और व्यवहार की सुन्दर व्याख्या हो जाती है। समस्त संसार में तीन तरह की स्थितियाँ बनती हैं। या तो कोई बड़ा होगा, या बराबरी पर होगा अथवा छोटा होगा। ये तीनों स्थितियाँ जड़-चेतन सभी पर लागू होती हैं और शक्ति या गुण किसी भी स्तर पर हो सकती हैं। इस तरह से जो किसी स्तर पर बड़ा होगा या कहें कि किसी न किसी रूप में दाता की स्थिति में होगा उसे 'देव' कहा जाएगा और वह पूजा (आदरणीयता) का सहज अधिकारी होगा। जो बराबरी पर होगा वह संगतिकरण या तालमेल का सहज अधिकारी होगा। और, जो छोटा होगा तो वह कुछ पाने का अर्थात् दान लेने का सहज अधिकारी होगा ही। जड़ जगत् का एक उदाहरण लेकर इसे आसानी से समझा जा सकता है। हम देखते ही हैं कि दो गड्ढों में से यदि एक का जलस्तर ऊँचा हो और दूसरे का नीचा, तो ऊँचे जलस्तर का बहाव निचले स्तर में तब तक होता रहता है जब तक कि दोनों बराबरी पर न आ जाएँ। मतलब यह कि उँचाई पर मौजूद जलस्तर देव की या दाता की स्थिति में है, नीचे का जल स्तर कुछ पाने की या दान लेने की स्थिति में है और जब दोनों का स्तर बराबर हो जाता है तो उनमें संगति या तालमेल चरितार्थ होने लगता है। इसी तरह से हम सब ही किसी को कुछ देने, किसी से संगति बिठाने या किसी से कुछ पाने के अधिकारी हैं। वास्तव में जड़-चेतन सम्पूर्ण जगत में परस्पर एक दूसरे से लाभ पहुँचाने के इस व्यवहार को ही 'यज्ञ' कहा गया है।

      भारतीय संस्कृति की स्थापना यह है कि यह सम्पूर्ण जगत् यज्ञमय है और इस जगत् का नियन्ता सबसे बड़ा यज्ञकर्ता है। चूँकि मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसे कि सोच-विचार कर कर्म करने या न करने की स्वतन्त्रता दी गई है, इसलिए इसे चाहिए कि सृष्टि में सहज भाव से चल रही यज्ञमयता से प्रेरणा लेकर अपने कर्मों को भी यज्ञमय बनाए। मनुष्य के सन्दर्भ में यज्ञ की परिभाषा है-'यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म:।' अर्थात् श्रेष्ठतम कर्म ही यज्ञ है। यज्ञीय कर्मों को ज्ञान-यज्ञ, कर्म-यज्ञ और उपासना-यज्ञ के वर्गीकरण से और स्पष्टता दे दी गई। इस वर्गीकरण से ही सामान्य व्यवहार से लेकर विज्ञान की बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ तक नियन्त्रित हो जाते हैं। लेकिन यहाँ यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि चाहे सामान्य व्यवहार हो या विज्ञान की उपलब्धि, कोई भी कर्म 'यज्ञ' तभी बनता है जबकि उसमें श्रेष्ठतम् भाव हो अर्थात् स्व-अर्थ यानी स्वार्थ से ऊपर उठकर परस्पर एक-दूसरे को लाभ पहुँचाने का लोककल्याणकारी भाव हो।

      परस्पर एक दूसरे को लाभ पहुँचाने के इस लोक कल्याणकारी भाव या कहें कि श्रेष्ठतम् कर्म की साधना के लिए प्राचीन भारतीय संस्कृति में 'पंच महायज्ञ' की व्यवस्था दी गई थी। यह एक महत्तवपूर्ण बात है कि यज्ञों की विशाल शृंखला में से मनुश्य की सामान्य दिनचर्या में शामिल बहुत कम समय में सम्पन्न होने वाले सिर्फ़ पाँच यज्ञों को 'महायज्ञ' कहा गया है तो इसकी ख़ास वजह है। दरअसल ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ, अतिथि यज्ञ और पितृ यज्ञ के नाम से प्रचलित ये यज्ञ ही मनुष्य को सही मायने में मनुष्य बनाते हैं। इन यज्ञों को इनकी मूल भावना के साथ व्यवहार में उतारने का ही परिणाम था कि भारत हज़ारों वर्षों तक सम्पूर्ण संसार के लिए एक उदात्ता संस्कृति का प्रचारक और आदर्श बना रहा।

      पंचमहायज्ञ की व्याख्या के साथ भारतीय संस्कृति की पहचान एकदम स्पष्ट हो जाती है। पहले 'ब्रह्मयज्ञ' को लें। 'ब्रह्मयज्ञ' में स्वाध्याय और संध्या, ये दो मुख्य चीजें समाहित हैं। स्वाध्याय का अर्थ है 'स्व' का अध्याय अर्थात् स्वयं का अध्ययन तथा 'सु' अध्याय अर्थात् जो कुछ स्वयं से इतर बेहतर है उसका अध्ययन। 'स्वाध्याय' के द्वारा मनुष्य स्वयं के आचरण की समीक्षा तथा अच्छी-अच्छी पुस्तकों आदि से ज्ञान प्राप्त करके कर्म की श्रेष्ठता सम्पादित करता है। 'संध्या' के द्वारा मनुष्य प्रतिदिन दोनों संधि बेलाओं में, जिसकी अनुकम्पा से यह शरीर मिला है, उस सृष्टि निर्माता परमशक्ति के समर्पण होकर अपने अहंभाव को नष्ट करता हुआ लोककल्याणकारी कर्म करने की संकल्पशक्ति धारण करता है। इस तरह से ब्रह्मयज्ञ का उद्देश्य है - स्वाध्याय द्वारा ज्ञान प्राप्ति, प्रभुभक्ति और संकल्प-संचय।

      'देवयज्ञ' के तहत अग्निहोत्र या हवन आता है। यह सामान्यत: समूह में किया जाने वाला यज्ञ है। मनुष्यों से लेकर जगत् के विभिन्न भौतिक पदार्थों तक में परस्पर सामंजस्य बिठाकर कार्य सम्पादन की एक तरह से कला है देवयज्ञ। इसका एक सामान्य उद्देश्य यह है कि मनुष्य अपने विभिन्न कर्मों से जाने-अनजाने पर्यावरण को जो कुछ भी नुकसान पहुँचाता है, इस यज्ञ के द्वारा उसे उसकी यथासम्भव भरपाई भी करनी चाहिए। विभिन्न तरह की लाभकारी जड़ी-बूटियों और गोघृत आदि के द्वारा किए गए अग्निहोत्र का आरोग्यकारी प्रभाव अब आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं ने भी अच्छी तरह प्रमाणित कर दिया है।

      'बलिवैश्वदेव यज्ञ' का उद्देश्य यह है कि मनुष्य जो कुछ भी अर्जित करता है उसमें मनुष्येतर प्राणियों का भी योगदान रहता है और इसलिए उसे स्वार्थी वृत्ति के वशीभूत नहीं रहना चाहिए। स्वार्थ-वृत्ति त्यागने का सबसे अच्छा अवसर रोज़मर्रा के जीवन में भोजन के समय उपस्थित होता है। इसलिए हमारी प्राचीन संस्कृति में यह व्यवस्था दी गई कि बलिवैश्वदेव यज्ञ के रूप में हम अपनी उदरपूर्ति से पहले पशु-पक्षियों से लेकर असहाय और रोगी मनुष्यों का भी अवश्य ध्यान रखें। चींटी, कुत्तो, गाय आदि को आटा या रोटी देने की आज भी जारी भारतीय परम्परा वास्तव में बलिवैश्वदेव यज्ञ का ही भूला-बिसरा हुआ सा एक रूप है।

      'अतिथि यज्ञ' का अनुष्ठान इस बात के लिए बनाया गया कि हम समाज के ज्ञानी, अनुभवी लोगों का सम्मान करते हुए उनसे व्यवहार ज्ञान प्राप्त करें। 'अतिथि' में बिना किसी निश्चित तिथि के आने का भाव तो है पर ज्ञानी, अनुभवी होना भी अतिथि के लिए ज़रूरी है। आज हम चाहे जिसको भी जिस तरह से अतिथि मान लेते हैं, प्राचीन भारतीय संस्कृति में ऐसा नहीं था।

      पाँचवाँ 'पितृयज्ञ' इसलिए बनाया गया कि जिन लोगों ने हमें पाल-पोसकर बड़ा किया उन पितरों अर्थात् माता-पिता और बड़े-बुजुर्ग़ों के प्रति हम सदैव कृतज्ञ रहें। आज जो हिन्दू धर्म में मरने के बाद श्राध्द-तर्पण के रूप में पितृयज्ञ का अनुष्ठान किया जाता है, वह वास्तव में वैदिक संस्कृति का विकृत रूप है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में तो श्राध्द-तर्पण मृत नहीं, बल्कि जीवित पितरों के लिए किए जाने का विधान है। श्राध्द और तर्पण का आशय ही यह है कि श्रध्दापूर्वक कृतज्ञभाव से सेवा करके तृप्त करना। श्रध्दापूर्वक सेवा करके तृप्त करना स्पष्टत: जीवित पितरों के लिए ही सम्भव हो सकता है।

      इस तरह से इस 'पंचमहायज्ञ' के अनुष्ठान से ही मनुष्य सही मायने में कर्म की श्रेष्ठता पर पहुँचता है, यह भारतीय संस्कृति की मूल स्थापना है। इसीलिए मनु ने स्पष्ट कहा है- 'पंचमहायज्ञेन् यथाशक्ति न हापयेत्।' अर्थात् पंचमहायज्ञों के अनुष्ठान में जहाँ तक सम्भव हो अनवधान नहीं होना चाहिए। यहाँ तक कहा गया है कि जैसे हम नियमित साँस लेते हैं और भोजन करते हैं, वैसे ही हमें पंचमहायज्ञों को भी आजीवन निभाना चाहिए। इन यज्ञों की अनिवार्यता के पीछे असली उद्देश्य यह है कि इन्हें आस्थापूर्वक व्यवहार में उतारने वाला मनुष्य स्वार्थ से हटकर लोककल्याणकारी भाव से ही जीवन जिएगा और सही मायने में मनुष्य बनेगा।

      इस व्याख्या से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संस्कृति के त्याग, संयम, दया, करुणा, परोपकार आदि उदात्ता मूल्य 'यज्ञ' के मूल विचार से ही नि:सृत होते हैं और भारतीय संस्कृति की असली पहचान 'यज्ञ' के रूप में ही की जानी चाहिए।