शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

खेल के लिए यमुना से खिलवाड़

आख़िर अदालत ने यमुना किनारे राष्ट्रमंडल खेलों के लिए विभिन्न तरह के निर्माणों की इजाज़त दे ही दी। लेकिन, सवाल तो फिर भी है कि राष्ट्रमंडल खेल या एक नदी की ज़िन्दगी से खिलवाड़! काश, यमुना अपने अहसास बाँट सकती तो अपनी वेदना ज़रूर व्यक्त करती कि-- अरे, सृष्टि के सबसे समझदार प्राणी, क्या यही तेरी समझदारी है कि अपने चन्द दिनों के खेल-तमाशे के लिए युग-युग से मेरे खेलने-विचरने की, मेरे हिस्से की ज़मीन भी हड़प ले। लेकिन दुर्भाग्य! यमुना सिर्फ़ एक नदी है। प्रकृति की मूक बेजान संरचना। उसके हर्ष-विषाद की कोई परिभाषा नहीं है, न कोई ज़ुबान। एक मरती हुई नदी के अहसास से गुज़रना, उसकी पीड़ा उसके क्रंदन को महसूस कर पाना तो दरअसल किसी बड़े जिगरे का काम है, जो प्रकृति के साथ समरस होकर जीवन जीने से संभव बनता है। और यह, शायद प्रकृति को रौंदकर विकास के महल बनाने के जुनून में पगलाए जा रहे आज के आदमी में नहीं रहा। और इस नाते, ढेर सारे प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों, विरोधों-आपत्तियों के बीच विकास के नाम पर यमुना किनारे अतिक्रमण चलता रहेगा; उसके तटों पर पंचतारा होटल, मॉल, हेलीपैड और खेल प्रशाल बनते रहेंगे; और अंतत: सन्-2010 में दस दिनों तक कभी के उपनिवेश देशों की आज़ाद धमा-चौकड़ी भी चलेगी ही।
सवाल सन्-2010 में दिल्ली में आयोजित किए जा रहे राष्ट्रमंडल खेलों के औचित्य पर नहीं है। खेल तो होने ही चाहिए; क्योंकि वे मनुष्य जीवन की नीरसता कम करते हैं, संघर्षों के लिए हौसला देते हैं, देह-दिमाग़ की सक्रियता के महत्वपूर्ण उपादान हैं। यह बात अलग है कि दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन को जिस पैमाने पर राष्ट्रीय गौरव घोषित किया जा रहा है, वैसा बहुत कुछ है नहीं। यह हमारे लिए कोई जग जीतने वाली बात भी नहीं है। फिर भी ये खेल हों और सफलता के साथ हों, तो राष्ट्र का सम्मान बढ़ने से भला कहाँ इनकार।
मूल सवाल दरअसल यह है कि क्या सिर्फ़ दस दिन के जोश के लिए सदियों से हमारी तहज़ीब का हिस्सा रही एक नदी की अस्मिता से ऐसा अविवेकपूर्ण बरताव किया जाएगा, जिसके परिणाम भविष्य में ख़तरनाक हो सकते हैं? क्या राष्ट्रमंडल खेलों के लिए इस देश में और कोई जगह नहीं बची? दिल्ली में यमुना किनारे ही ये आयोजन आख़िर क्यों? और अगर, राष्ट्र का गौरव दिखाने को दिल्ली की ही दरकार है, तो यमुना तट छोड़ और भी तमाम जगहें दिल्ली में या दिल्ली के इर्द-गिर्द चिह्नित क्यों नहीं की जा सकती थीं?
चन्द दिनों के लिए ही यमुना के तटों पर अस्थायी अतिक्रमण की बात होती तो भी बहुत ज्यादा चिंता की बात नहीं थी। चिंता तो इस बात से पैदा होती है कि खेल ख़त्म होने के बाद भी यमुना को उसका मूल स्वरूप वापस नहीं मिलेगा। उसकी प्राकृतिक संरचना हमेशा-हमेशा के लिए बिगाड़ दी जाएगी। यमुना सिमट जाएगी। दिल्ली में उसके तट से 47 किलोमीटर का दायरा समाप्तप्राय: सा हो जाएगा और निरंतर गंदे नाले में तब्दील होती जा रही इस नदी की दशा और भी दयनीय हो जाएगी।
दुर्भाग्य है कि सारी दुनिया में पर्यावरण चेतना के ढेर सारे अभियानों के बावजूद हमारे नीति-निर्माताओं, योजनाकरों को यह बात समझ में नहीं आती कि अविरल बहती एक नदी का मनुष्य के जीवन से कितना घना रिश्ता है। बात शहरों की, घनी आबादी की हो, तो यह सवाल और मौज़ूँ हो उठता है। प्राचीनकाल से ही हमारे शहर नदियों से नज़दीकी बनाकर बसते रहे हैं तो यह यूँ ही नहीं है। ख़ास बात यह भी है हमारा नगरीय जीवन नदी तटों से सटकर भले ही शुरू हुआ, पर उसने कभी इन तटों को अतिक्रमण का शिकार नहीं बनाया। प्रकृति की यह हमारी पुरातन समझ है कि नदी अपने किनारों का जो विस्तार करती है वह प्राकृतिक संतुलन की अनिवार्य माँग होती है। हमारे पुरखों को मालूम था कि नदी के तटों पर कंक्रीट के जंगल नहीं, हो सके तो पेड़-पौधों की हरियाली पैदा की जाती है, ताकि नदी की निर्मल धार और हरियाली का सुयोग हमारे फेफड़ों को साफ़ स्वास्थ्यप्रद हवा प्रदान करने का माध्यम बने, और बाढ़ की विभीषिकाएँ विनाश के त्रासद अध्याय न लिख पाएँ। यमुना का तट, कदम्ब का पेड़ और बंसी बजैया - मिलकर इस देश का सांस्कृतिक प्रतीक गढ़ते हैं। यह बात हमारे रहनुमाओं को समझ में आ जाय तो शायद वे यह भी जान-समझ पाएँगे कि यमुना के किनारों को पाट देने का उनका पुरुषार्थ अंतत: हमारे जीवन से बहुत कुछ छीन लेने का धतकरम ही साबित होगा।
राष्ट्रमंडल खेलों के चलते यमुना के साथ कैसा खेल शुरू हुआ है और इसके क्या नफ़ा-नुक़सान हैं, इसे समझने के लिए पूरी योजना पर ही एक निगाह डालनी होगी। जो खेलगाँव यमुना के तटों को पाटकर बनाया जा रहा है, उसके तहत पाँच सितारा होटल, हेलीपैड, मॉल, मनोरंजन केंद्र वगैरह बनेंगे। 8500 खिलाड़ियों के ठहरने के लिए 4500 कमरों की आलीशान इमारतें बनाने का काम जारी है। यमुना के सीने पर ही आरामदेह दिल्ली को समर्पित मेट्रो का बुलडोजरी अक्स तो ख़ैर बहुत पहले से ही साफ़ दिखने लगा है। मेट्रो डिपो का काम दिन-दूनी रात-चौगुनी रफ्तार से जारी है। भगवान का नाम लेकर बना अक्षरधाम मंदिर भी यमुना की देह में ज़बरदस्ती पनपा दिया गया एक नासूर ही है। खेल के नाम पर तो ख़ैर जिस तरह से नित नई योजनाओं की घोषणा जारी है उसके चलते कहा नहीं जा सकता कि इस नदी के साथ अभी और कितने हादसे गुज़रेंगे।
राष्ट्र के इस तथाकथित आत्मगौरव के लिए पहले का तय पूरा बज़ट 1700 करोड़ रुपए तो जाने कब का पानी की तरह बहा दिया गया है। अब तो बात 23000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा ख़र्चने तक जा पहुँची है। ज़ुबान से अंक-ऑंकड़े तो आप बड़ी आसानी बोल-बताकर आगे बढ़ सकते हैं, पर देश के आम आदमी को तो तब अहसास होगा जब उसे यह पता चले कि इतने पैसों में देश के सारे गरीब बच्चों की पढ़ाई का इन्तज़ाम किया जा सकता है। या, इतने पैसों में पाँच सौ बेहतर सुविधाओं के अस्पताल खोले जा सकते हैं। इतना धन ठीक से समायोजित कर दिया जाए तो आत्महत्या कर रहे किसानों की ज़िन्दगी ख़ुशहाल बन जाए। याकि, इतने धन से गाँवों में पीने के साफ़ पानी की व्यवस्था बहुत बेहतर बनाई जा सकती है। लेकिन अरबों रुपयों के खर्च के बाद कुल नतीजा यह होगा कि दिल्ली में यमुना और दुबली हो जाएगी। दुखद यही है कि यमुना के दुबलाने का अर्थ सिर्फ़ उसका किनारा-कछार ख़त्म हो जाने तक ही सीमित नहीं रहेगा। इसके नतीजों को तो यमुना के जल अधिग्रहण क्षेत्र के सिमट जाने के ख़तरों के अन्यान्य रूपों में पहचानना होगा। इससे बरसात में जल सोखने का क्षेत्र घट जाएगा, जिससे दिल्ली और उसके इर्द-गिर्द के इलाकों की सतह के नीचे जो भूजल भंडार है उसकी पुनर्भरण की अब तक की सहज प्राकृतिक प्रक्रिया भी बाधित हो जाएगी। मतलब यह कि अभी से पानी की किल्लत झेल रहा महानगर और मुश्किल में फँसेगा। नदी के जल अधिग्रहण क्षेत्र के सिमटने का यह भी अर्थ है कि दिल्ली जैसी घनी आबादी वाले शहर से खुले इलाके का एक बहुत बड़ा हिस्सा ख़त्म हो जाएगा। नतीजतन, हवा में प्रदूषण का ख़तरा अब और बढ़ेगा। अजब विडम्बना है कि यमुना की खादर पर विकास और राष्ट्रीय सम्मान के नाम पर बेहद घनी आबादी की उस दिल्ली में अतिक्रमण का खेल चल रहा है, जहाँ खुले तटों की ज़रूरत ज्यादा है। इसके भावी संकेत यह भी हो सकते हैं कि कहीं एक दिन यमुना को पूरी तरह पाटकर समतल बना दिए जाने की ही कोई योजना न सामने आ जाए।
विकास की आधुनिक सोच के पंडित ख़ुशहाली का रास्ता जिस तरह 'नदी जोड़ो' जैसी योजनाओं में देख रहे हैं, उसके चलते नाला बन चुकी यमुना की राह नदियों को जोड़ने के क्रम में सचमुच बदलकर दिल्ली से उसका वजूद ही मिटा दिया जाए तो सचमुच कोई बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिए? भविष्य की पीढ़ियाँ अस्तित्व के संकट से जूझने को अभिशप्त हों तो अपनी बला से! अभी हाल तो हमें अपनी तकनीकी उपलब्धियों पर इतना भरोसा हो चला है कि नदी की धारा बदल देने, उसके तटों को पाटकर वहाँ बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर देने में ही विकास और समॄध्दि के सूत्र दिखाई दे रहे हैं। लेकिन शायद यह हम भूल रहे हैं कि प्रकृति के नियमों में किंचित भी फेरबदल कर सकने की बिसात आदमी में नहीं हैं। आख़िर हम उत्पाद तो प्रकृति के ही हैं, तो प्रकृति पर भारी पड़ने का मुग़ालता अंतत: हम पर ही भारी पड़ेगा। नदी प्रकृति की महान निर्मितियों में से एक है। नदी के स्वरूप में इतना बड़ा परिवर्तन कोई गङ्ढा खोदने-पाटने जैसी छोटी-मोटी परिघटना नहीं है कि इसके परिणामों की अनदेखी कर दी जाए। प्रकृति की बड़ी संरचनाओं के साथ छेड़छाड़ के परिणाम भी बड़े ही होंगे। धरती की हरियाली की अहमियत हमने कम की, हवा में ज़हर घोला तो उसके दुष्प्रभावों के तौर पर प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, जीव-जन्तुओं की तमाम प्रजातियों पर मँडरा रहे ख़तरे का सामना तमाम वैज्ञानिक-तकनीकी उपलब्धियों के बाद भी सारी दुनिया को करना ही पड़ रहा है। ऐसे में दिल्ली में यमुना के तटों पर बड़ी-बड़ी इमारतों का जाल खड़ा कर देने का प्रकृति विरोधी काम भी किसी भी ख़तरे को आमंत्रित कर दे, तो ताज्ज़ुब की बात न होगी। जगह-जगह बंधी हुई यमुना दिल्ली में नाला जैसी हो गई है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि भविष्य में इसमें कभी पानी नहीं उफनेगा। बरसात या पिघलते ग्लेशियरों ने कभी बाढ़ की स्थिति पैदा की अथवा टिहरी जैसे बाँधों की दीवारें - भगवान न करे - कभी दरक गईं तो उफनता पानी यमुना का तल तलाश ही लेगा और तब उसके जल अधिग्रहण क्षेत्र में खड़ी बहुमंजिली इमारतों का क्या हाल होगा, यह सोच लेना भर रोंगटे खड़े करने को काफ़ी है। ख़तरा भूकंप का भी है। दिल्ली सिस्मिक जोन चार में आता है। यानी भूकंप के बड़े ख़तरे यहाँ की धरती ने अपने गर्भ में छुपा रखे हैं। उसमें भी यमुना के तटों पर ख़तरा अन्य जगहों की तुलना में ज्यादा ही है। ऐसे में भूकंप की स्थितियों में विनाश का शिकार भी यमुना का तट ही ज्यादा होगा। प्रकृति के शायद ये संकेत हैं कि उसने आदमी के स्थायी निवास न बन लायक़ ख़तरे की जगहों पर नदी, पहाड़, समंदर बना रखे हैं, ताकि वहाँ आबादी की स्थितियाँ कम बनें या न बनें; पर आदमी प्रकृति के संकेत समझने से इनकार कर दे तो दैवी आपदाओं में दोष किसका?
यमुना के शीलहरण की दरअसल यह 'रियल स्टेट' कहानी है। रियल स्टेट के बड़े-बड़े खिलाड़ियों, बिल्डर माफियाओं की निगाहें अब यमुना के खुले तटों पर ही लगी हैं। दिन-दिन फैलती दिल्ली में घटती ज़मीनों ने मुनाफ़े के कारोबारियों को यमुना के किनारे के दस हज़ार हेक्टेयर खाली इलाके में अकूत पैसा बनाने की संभावना दिखा दी है। राष्ट्रीय सम्मान के राष्ट्रमंडल खेलों को तो असल में क़ब्ज़े की शुरुआत के लिए एक बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। इसका प्रमाण यह भी है कि खेल ख़त्म होने के बाद इसके निर्माणों को बड़े पैमाने पर बेचने की योजना अभी से बना ली गई है। बड़ी संख्या में बने फ्लैट दो-दो करोड़ में बिकेंगे। 'राष्ट्रीय सम्मान' का शोर मचाकर तमाम विरोधों के बावजूद सौ एकड़ के तट पर डीडीए के क़ाबिज़ होने की प्रक्रिया पूरी होने को है। यहाँ रिहायशी और व्यावसायिक इमारतें बनेंगी। पर्यावरण और वन मंत्रालय पर दबाव डालकर 'पर्यावरण स्वीकृति' भी प्राप्त कर ली गई है। भले ही मंत्रालय ने यमुना तट की स्थितियों के मद्देनज़र सिर्फ़ अस्थायी निर्माण की स्वीकृति दी हो, पर सत्ता-तंत्र का मिज़ाज पहचानें तो साफ़ कहा जा सकता है कि खेल ख़त्म होते ही अस्थायी को स्थायी में बदलते देर न लगेगी। मज़े की बात यह है कि इस सारे निर्माण में प्राइवेट बिल्डरों की सबसे बड़ी भूमिका रहेगी। मतलब, खेल के बहाने मुनाफ़े का खेल। आम आदमी की इसमें भी कोई जगह नहीं। असल में विकास के नाम पर हर तरह के खेल-तमाशे में 80 फ़ीसद उस आबादी की नियति में तो त्रासदी भोगना ही बदा है जो जल-जंगल-ज़मीन का सिर्फ़ ज़रूरत भर को इस्तेमाल करके अपनी ज़िन्दगी गुज़ार रहा है।
कहने को सरकारी ऐलान यही है कि यमुना को बरबाद नहीं होने दिया जाएगा, बल्कि राष्ट्रमंडल खेलों के चलते उसका कायाकल्प कर दिया जाएगा। 3150 करोड़ रुपए की योजना सिर्फ यमुना की साफ़-सफ़ाई के लिए तैयार की गई है। यमुना के किनारों के लिए बनी योजनाओं से पूर्वी और मध्य दिल्ली का हुलिया तक बदल देने की बात कही जा रही है। डीडीए ने यमुना की अभी तक किसी भी तरह की छेड़छाड़ से बच गई 7300 हेक्टेयर ज़मीन का कायाकल्प करने की घोषणा की है। इसमें से 85 फ़ीसद ज़मीन मनोरंजन गतिविधियों के काम में ली जाएगी। इसके तहत पार्क, वाटर स्पोट्र्स, पक्षी अभ्यारण्य, हेरिटेज वॉक से लेकर फार्मूला वन रेसिंग कार के टैक वगैरह बनेंगे। वादा यह भी है कि यमुना किनारे पक्के निर्माण कम से कम किए जाएंगे।
यमुना को बचाने-सँवारने की सरकारी चिंता अगर असली हो तो कुछ राहत महसूस की जा सकती है, पर दुर्भाग्य से अब तक यमुना के कायाकल्प की जो भी सरकारी चिंताएं सामने आई हैं, उनके नतीजे उल्टे दुखी करने वाले ही रहे हैं। पिछले डेढ़ दशक में यमुना की सफ़ाई पर 1500 करोड़ रुपए से ज्यादा ख़र्च कर दिए गए, पर इस नदी में गंदगी की कालिमा बढ़ती ही रही। यमुना को बचाने की ढेर सारी आयोजनाओं का कुल नतीजा यह हुआ है कि 30 जगहों पर इस नदी का तट अब तक ख़त्म हो चुका है। ढेर सारी कोशिशों के बावजूद 22 नाले 3296 मिलियन गैलन लीटर गंदा पानी और औद्योगिक कचरा यमुना में दिन-रात उड़ेल ही रहे हैं, भले देश का 40 फ़ीसद सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अकेले दिल्ली में ही हो।
इन हालात में समाज, संस्कृति और आबोहवा बचाए रखने के हामी लोग अगर चिंतित हो रहे हैं कि कहीं राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन यमुना के वजूद पर कहर बनकर न टूटे, तो स्वाभाविक ही है। त्रासदीपूर्ण स्थिति यह है कि तथाकथित विकास का कालिया नाग यमुना के सीने पर सवार है, और उसे नथ सकने की कूवत वाला कोई कृष्ण दूर-दूर तक नजर नहीं आता।
सन्त समीर

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

नास्तिक कौन!

नास्तिक-अर्थात् जो ईश्वर को न माने। यही इसका प्रचलित अर्थ है। मतलब यह कि ईश्वर में विश्वास करने वाले आस्तिक हैं भले ही वे किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के हों। नास्तिक हुए जैन, बौध्द, चार्वाक; या आधुनिक साम्यवादी क़िस्म के लोग। लेकिन नास्तिकता की मूल परिभाषा कुछ और कहती है। मूल परिभाषा है - 'नास्तिको वेद निन्दक:'। यानी जो वेद निन्दक हैं, वेद विरोधी हैं, वेद को अमान्य करते हैं, वे नास्तिक हैं।

      ध्यान देने पर पता चलेगा कि यह प्राचीन और मूल परिभाषा ही नास्तिकता और आस्तिकता का अर्थ ज्यादा सही ढंग से व्यक्त करती है और विज्ञानवाद का प्रतिपादक भी है। 'विद्' धातु से निष्पन्न 'वेद' शब्द का मूल अर्थ है-ज्ञान। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद इसीलिए वेद कहे जाते हैं क्योंकि माना जाता है कि इनमें मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक मूल ज्ञान की बातें बतायीर् गई हैं। इस तरह 'नास्तिको वेद निन्दक:' का अर्थ हुआ कि जो ज्ञान का विरोध करे, ज्ञान को प्रतिष्ठा न दे, अमान्य करे वह नास्तिक है। थोड़ा और गहरे उतरें तो पता चलेगा कि ज्ञान का स्थूल रूप है- अस्तित्व, वजूद। इस संसार में जो कुछ है अस्तित्वमान है। सूक्ष्म, स्थूल असंख्य मूर्तिमान पदार्थों से लेकर अमूर्त विचारों, भावनाओं तक सब कुछ अस्तित्व के ही रूप हैं। अस्तित्व भाव से ही आस्तिक निकला है। अस्तित्व का स्वीकार आस्तिकता है, अस्तित्व का नकार नास्तिकता।

      जीवनविद्या के प्रवर्तक बाबा नागराज कहते हैं, इस सृष्टि का सत्य है- अस्तित्व। इस अस्तित्व को जान लिया जाय तो जीवन का मर्म समझ में आ जाएगा और हम सहज, सुन्दर जीवन जीने लगेंगे। इस तरह देखें तो अस्तित्व में आस्था रखने वाले, उसे मानने वाले आस्तिक कहे जाने चाहिए। यही विज्ञानवाद है। इस तरह यह भी स्पष्ट होता है कि ईश्वर को न मानने वाले पन्थ, विचारधारा के लोग अस्तित्व को मानते हैं तो वे आस्तिक ही हैं। आज के साम्यवादी और विशेष रूप से विज्ञान को ही सब कुछ मानने वाले धुर आस्तिक हुए, क्योंकि वे आस्तित्व के या कहें 'अस्ति' भाव के पुजारी है। बल्कि देवी-देवता और भगवान में आस्था रखने वाले या धर्मभीरु लोग हो सकता है कि ज्यादा नास्तिक क़िस्म के सिध्द हों, क्योंकि ऐसा प्राय: देखा जाता है कि कई तरह के धार्मिक विश्वास ज्ञान का, संसार के यथार्थ सत्य या अस्तित्व का विरोध करते हैं। हो सकता है कई तरह की धार्मिक आस्थाएँ सिर्फ़ रूढ़ियाँ हों और सत्य से उनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता ही न हो।

      जीवन-व्यवहार में अस्तित्व भाव के स्वीकार का अर्थ है - जैसे हमारा अस्तित्व, वैसे ही हमसे इतर प्राणियों का भी अस्तित्व। इससे जीवन के प्रति सम्मान भाव पैदा होता है और समस्त जीव जगत के सुख-दुख के अहसास का यथार्थ भाव प्रबल बनता है। अस्तित्व मो मान्य करने से ही सृष्टि के विविध पदार्थों के यथोचित उपयोग में लेने और प्रकृति-सम्मत जीवन जीने का विज्ञान-भाव पैदा होता है। यदि हम सृष्टि को जैसा चलना चाहिए, वैसा चलने देने में सहयोगी हैं, इस संसार में अपनी भूमिका कुशलता से निभाते हैं, तो सृष्टि में अस्तित्व की स्थिति का ही सम्मान करते हैं; और यदि, हम प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करते हैं, सृष्टि के सुचारु रूप से संचालित होने में बाधा पहुँचाते हैं, तो इसका अर्थ है कि अस्तित्व भाव की ही उपेक्षा करते हैं। दूसरों को दुख देना, एक तरह से दूसरों के अस्तित्व की उपेक्षा है। महावीर स्वामी ने यदि कहा कि -जियो और जीने दो- तो इसका अर्थ यही है कि सिर्फ़ हमीं हम नहीं है इस संसार में, हमसे इतर भी हमारे जैसे अस्तित्व वाले हैं, इसलिए हमारे जैसा ही जीने का हक उनका भी बनता है। इस तरह देखें तो सृष्टि में अस्तित्व को स्वीकार करना, यानी प्रकृति के साथ समरसता और सहजता में जीना ही जीने की कला है, जीवन विद्या है और यही आस्तिकता है। इस सृष्टि में जीव-जगत से लेकर जड़-जगत तक के आपसी अन्तर्सम्बन्धों को समझ लेना और अन्योन्याश्रितता की अनिवार्यता को हृदयंगम करके जीवन-व्यवहार चलाना अस्तित्व का स्वीकार है, सम्मान है, जीवन का ज्ञान है, आस्तिकता है। कुल निहितार्थ यही है कि अच्छे काम करने वाले आस्तिक हैं, भले ही वे देवी-देवताओं से दूर रहते हों और बुरे काम करने वाले, स्वयं का स्वार्थ साधने के लिए दूसरों का जीवन नष्ट करने वाले नास्तिक हैं, भले ही वे भाँति-भाँति के भगवानों और देवी-देवताओं के पूजा-पाठ में दिन गुज़ार देते हों।

सोमवार, 15 दिसंबर 2008

बिन ईमानदारी दुनिया कहाँ रहेगी

अन्तरजाल के संसार में विचरते हुए जिन बन्धु ने यह प्यारी सी कहानी याद दिला दी, उनका बहुत-बहुत आभार। लीजिए, आप भी सुनिए!
महाभारत युध्द अपनी परिणति को प्राप्त हो चुका था और राज्य पाण्डवों को वापस मिल गया था। शासन की बागडोर युधिष्ठिर के हाथ थी। कहानी युधिष्ठिर के शासनकाल की ही है। एक किसान ने अपना खेत दूसरे किसान को बेच दिया। दूसरे किसान ने जब खेत जोतना शुरू किया तो हल का फल एक जगह पर अटक गया। किसान ने उस स्थान को खोदा तो स्वर्ण मुद्राओं से भरा एक कलश निकल आया। इस कलश को लेकर फौरन वह उस किसान के पास पहुँचा, जिससे उसने खेत ख़रीदा था। उसे कलश सौंपते हुए बोला कि यह लो, इस पर तुम्हारा ही अधिकार है, क्योंकि मैंने जब खेत ख़रीदा था तो सिर्फ़ मिट्टी के दाम दिए थे, इस कलश के नहीं। तुम्हारे पूर्वजों ने कभी इसे ज़मीन में गाड़ा रहा होगा, इसे अब तुम ही सँभालो। लेकिन, पहले किसान ने कलश लेने से इनकार कर दिया। उसने कहा कि मैंने तो खेत बेच दिया, अब उसमें से अनाज निकले या कुछ और, उस पर तो तुम्हारा ही अधिकार है।
बात उलझ गई। काफ़ी देर तक तर्क-वितर्क चलता रहा, पर दोनों में से कोई भी उन स्वर्ण मुद्राओं भरे कलश को अपने पास रखने को तैयार न हुआ। अन्तत: समस्या सुलटाने दोनों महाराज युधिष्ठिर के पास पहुँचे। युधिष्ठिर ने उन दोनों को ही समझाने की बहुतेरी कोशिश की, परन्तु बात न बनी। कुछ सोच-विचार कर दोनों किसानों ने सुझाव दिया कि महाराज राज्य आपका है, सो इसे आप ही सँभाले। क्यों न इन स्वर्ण मुद्राओं को राजकीय ख़जाने में जमा कर दिया जाए? पर, युधिष्ठिर भी ऐसा करने को तैयार न हुए। अन्त में यह गुत्थी इस तरह सुलझाई गई कि एक निर्धन कन्या के विवाह में इन स्वर्ण मुद्राओं को ख़र्च किया गया। यानी दोनों किसानों के साथ महाराज युधिष्ठिर ने भी उस धन पर अपना अधिकार नहीं समझा।
काश! ऐसी ईमानदारी आज के समाज में भी होती तो कल्पना करिए कि यह संसार कैसा होता! हम घर से बाहर निकलते, निर्भय-निर्द्वन्द्व। घर से खाकर निकलें या बाहर जाकर होटल-ढाबे में खा लें, बात बराबर। कहीं कोई मिलावट नहीं; खाने में असली तेल-घी है या जानवर की चर्बी, ऐसे किसी सन्देह की भी गुंजाइश नहीं। ईमानदार समाज हो तो बाज़ार में कहीं भी कुछ भी ख़रीदें तो सही दाम, ठीक सामान और फिर तो मोल-तोल की नोंक-झोंक भी क्यों? कितना सुकून मिले, जब आप किसी सरकारी दफ्तर पहुँचें और बगैर आपकी जेब पर ऑंख गड़ाए बाबू आपकी फाइलें निबटा दे, पूरी मुस्तैदी के साथ। न कोई रिश्वत न लेट-लतीफ़ी। ईमानदारी का समाज हो तो मनुष्य, मनुष्य के साथ तो विश्वासघात नहीं ही करे, प्रकृति के साथ भी समरस होकर जिए। ईमानदारी का वातावरण हो तो निठारी जैसे वीभत्स काण्ड भी न देखने पड़ें और हर तरफ़ अमन-चैन का साम्राज्य हो।
लेकिन दुर्भाग्य! आज की दुनिया में ऐसे समाज की कल्पना सिर्फ सपने की सी बात लगती है। और, ऐसा सपना देखने वाले के लिए सामान्यत: हर कोई यही कहेगा कि - दिल के बहलाने को ग़ालिब ख़याल अच्छा है। व्यवस्था के हर पायदान पर भ्रष्टाचार जो पसर चुका है। ईमानदारी तो जैसे अजायबघर की वस्तु बन गई है। हाल का ही सर्वे है कि भारत में भ्रष्टाचार निरन्तर बढ़ रहा है और ईमानदारी घट रही है। 180 देशों के बीच भ्रष्टाचार के मामले में भारत जहाँ पहले 72वें स्थान पर था, वहीं अब खिसककर और नीचे 85वें स्थान पर पहुँच गया है। ईमानदारी का अंक 3.5 से घटकर 3.4 हो गया है। दिन-दिन घटती ईमानदारी और बढ़ते भ्रष्ट आचरण का ही परिणाम है कि समाज के हर हिस्से में सड़ान्ध सा फैलता दिखाई देता है। हाल यह है कि आज दिन-दोपहर भरे बाज़ार में भी एक अकेली लड़की कहीं किसी काम से निकले तो लगता है जैसे भूखे शेर-चीतों के झुण्ड के सामने से गुज़र रही हो। सैकड़ों शिकारी निगाहें उसे घूरने लगती हैं। जबकि, होना तो यह चाहिए था कि आधी रात को भी कोई बला की ख़ूबसूरत स्त्री भी अकेली कहीं निकल जाए, तो कम से कम मनुष्य नाम के प्राणी से डरने की ज़रूरत तो उसे न ही पड़े। भय की स्थिति तो हिंस्र जानवरों को देखकर पैदा होनी चाहिए। मनुष्य को देखकर तो सुरक्षा-भाव का अहसास होना चाहिए। किसी स्वस्थ समाज की मूल पहचान वास्तव में यही है।
परन्तु आज, इस तरह के समाज-निर्माण की बात करिए तो लोग आप पर हँस पड़ेंगे और फ़ब्ती कसते हुए कहेंगे कि बन्धुवर! इस युग में ईमानदारी की राह चलेंगे तो कभी आगे नहीं बढ़ सकेंगे।
क्या सचमुच ईमानदारी की राह इतनी कठिन हो गई है; या कि ईमानदारी भरे जीवन की नियति असफलता के अन्धकार में पहुँचकर विलीन हो जाना है? नहीं, बिलकुल नहीं! ऐसा नैराश्य तो प्रतिगामी लोगों के मन में ही पैदा हो सकता है। डगर कठिन अवश्य है, पर इतनी बड़ी निराशा की कोई वजह नहीं है। रास्ते कण्टकाकीर्ण हो सकते हैं, पर बन्द नहीं हैं। असल बात हौसले की है, इच्छाशक्ति की है। प्रश्न यह है कि हमारा मन्तव्य क्या है? हमारी चाह सकारात्मक है, हम ईमानदार जीवन जीना चाहते हैं, तो ईश्वर की इस सृष्टि में सम्भावनाओं के द्वार चारो ओर खुले हुए हैं। याद रखिए कि इस संसार के विभिन्न मानवीय समाजों में व्यवस्था नाम की कोई भी चीज़ अगर बची हुई है, तो वह बेईमानी नहीं ईमानदारी के कारण है। जिस ईमानदारी को लोग जीवन से बेदख़ल करके सफल होना चाहते हैं, अगर वह पूरी तरह समाप्त हो जाए तो यह संसार चल नहीं सकता। हर तरफ़ बेईमानी का अर्थ है कि हर व्यक्ति अपना स्वार्थ साधने को हर समय सामने वाले को धोखा देने को तैयार दिखाई देगा। कोई किसी पर ज़रा भी विश्वास नहीं करेगा। और तब, जीवन-व्यवहार क्षणमात्र भी नहीं चल सकता। सिर्फ़ बेईमानी से काम निकालने का अर्थ है कि हम एक-दूसरे को ही समाप्त करने पर तुले होंगे। यहाँ तक कि न बाप-बेटे में आपसी विश्वास होगा और न भाई-बहन में। सही बात तो यह है कि यदि आएदिन हम विश्वासघात की कहानियाँ सुनते हैं तो इसका अर्थ यही है समाज में कहीं न कहीं विश्वास बचा हुआ है, जिसे कि कुछ स्वार्थी लोग तोड़ते हैं।
वास्तव में समाज में सुव्यवस्था की जो भी स्थितियाँ हैं, वे ईमानदारी के कारण हैं और दुर्व्यवस्था की जो स्थितियाँ हैं, वे बेईमानी के कारण हैं। हाँ, लोगों में अपने दायित्वों के प्रति ईमानदारी की मात्रा ज्यादा होगी तो सुव्यवस्था ज्यादा होगी और बेईमानी की मात्रा ज्यादा होगी तो दुर्व्यवस्था ज्यादा होगी। सुन्दर समाज के आकांक्षी लोगों को चाहिए कि वे जहाँ भी हैं, जैसे भी हैं, ईमानदारी को प्रोत्साहित करें। स्वयं तो ईमानदार रहें ही, अच्छी बात है, पर औरों को भी ईमानदार रहने की प्रेरणा दें तो और अच्छी बात है। ईमानदारी का सुकून बेईमानी की तमाम सुख-सुविधाओं पर निश्चित रूप से भारी है; पर याद यह भी रखना चाहिए कि निर्वीर्य ईमानदारी का इस युग में बहुत अर्थ नहीं है। ईमानदारी मजबूरी का नाम नहीं होना चाहिए। ईमानदारी का वास्तविक रूप वास्तव में मनुष्य को अपने काम में योग्य बनाता है, उसे दक्षता की दिशा में ले जाता है। अकुशलता, फूहड़पना एक तरह से अपनी स्वाभाविक क्षमता के प्रति बेईमानी है। ईमानदार व्यक्ति कार्यकुशल हो तो वह कभी बेकार नहीं रह सकता। भ्रष्टाचार चाहे जितना बढ़ जाए, पर ईमानदार आदमी की आवश्यकता कभी ख़त्म नहीं हो सकती। सचाई तो यह है कि बेईमान भी चाहता है कि उसके यहाँ काम करने वाला उसके साथ ईमानदारी से रहे। मतलब कि बेईमान को भी एक स्तर पर जाकर ईमानदार की ही जरूरत है। बस, चाहिए यह कि यदि हम अपने साथ दूसरों का बरताव ईमानदारी भरा चाहते हैं, तो हम भी दूसरों के साथ ईमानदारी से प्रस्तुत हों। जीवन-व्यवहार का यही मूल रहस्य समझने-समझाने की है। हमारा जीवन ज्यादा से ज्यादा सौ-सवा सौ साल का है। अपवाद के तौर पर बहुत ज्यादा जी लेंगे तो डेढ़-दो सौ साल। इसी से हम सोच सकते हैं कि काल के अखण्ड प्रवाह में मनुष्य का भरपूर जीवन भी समन्दर में बूँद बराबर भी न होगा। ऐसे में, याद रखना चाहिए कि बेईमानी की बैसाखी मजबूती का सिर्फ़ भ्रम पैदा कर सकती है और बीच डगर में कभी भी धोखा दे सकती है। शाश्वतता तो सत्य, ईमानदारी से नि:सृत मूल्यों की ही रहती है। आख़िर बेईमानी के व्यापार से कुछ लाख या करोड़ रुपए इधर-उधर करके भी हम कौन से नए सूरज, चाँद, सितारे गढ़ लेंगे!
आइए, अपनी अन्तरात्मा में थोड़ा आत्मबल जगाएँ, ईमानदारी की राह पर दो पग बढ़ाएं, अपने सगे-सम्बन्धियों-पड़ोसियों को भी इस राह का राही बनने की थोड़ी प्रेरणा दें - और इस तरह, इस संसार को थोड़ा और रहने के क़ाबिल बनाएं। मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है।

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

हौसले की जीत

शायद मेरी यह आपबीती आपको भी जीने का हौसला दे, इसलिए सुनाता हूँ। बचपन में ही कुछ ऐसे हादसों से गुज़रना पड़ा कि एकबारगी जीने की आस छोड़ ही चुका था। डॉक्टरों का अनुमान था कि मैं तीस वर्ष की उम्र शायद ही पार कर पाऊँ। ऑंतें, यकृत, फेफड़े और गुर्दे एक ऐसे बीमार शरीर की तस्वीर प्रस्तुत कर रहे थे, जो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिए भी असाध्य ही था। कम उम्र में ही अम्लपित्त, अल्सर, मेनिनजाइटिस, डायबिटीज, पोलीपस और नजला जैसी कई-कई बीमारियों का दंश सहना पड़े तो आख़िर शरीर भी कितना साथ देगा? कल्पना करिए कि युवावस्था की देहली पर क़दम रखते ही किसी युवक को यह बता दिया जाए कि उसकी ज़िन्दगी के इने-गिने सिर्फ़ चार-छह वर्ष ही शेष हैं, तो उसके दिल पर क्या गुज़रेगी? शायद निराशा उसे और भी पहले मार देगी।
ख़ैर, मौत एक प्रश्नचिह्न बनकर मेरे भी सामने खड़ी थी। लेकिन मैं निराश नहीं हुआ। मुसीबतें निजी हों या दूसरों की, परेशान तो करती हैं; बल्कि दूसरों के दुख मुझे ज्यादा परेशान करते हैं, पर हताशा या निराशा जैसी चीज़ को कभी मैंने पास नहीं फटकने दिया है और न ही मैं मुश्किलों से कभी घबराता हूँ। यह मेरा कोई जन्मजात गुण नहीं है, बल्कि अभ्यास के द्वारा इसे मैंने हासिल किया है। बचपन में जितने डरपोक स्वभाव का मैं रहा हूँ शायद कम लोग वैसे होंगे। लेकिन पुस्तकें जुटाने और स्वाध्याय की प्रवृत्ति मेरी शुरू से रही तो महापुरुषों और क्रांतिकारियों की जीवनियाँ भी मैंने ख़ूब पढ़ीं। जीवन को सार्थक बनाने की प्रेरणा मुझे समाज परिवर्तन के लिए किए गए इन युगपुरुषों के संघर्षों से ही मिली। राम, कृष्ण, बुध्द, ईसा, मुहम्मद साहब या कार्ल माक्र्स तक जहाँ भी मुझे कुछ बेहतर मिला मैंने स्वीकार करने में हिचक नहीं दिखाई। मुश्किलों से पार पाने का संघर्ष मैंने स्वामी दयानन्द और महात्मा गाँधी के जीवन-दर्शन से विशेष रूप से सीखा।
कहने का अर्थ यही है कि जीवन के प्रति एक सार्थक और सकारात्मक दृष्टि ने मुझे इतनी हिम्मत दी कि मौत के आगे इतनी आसानी से घुटने तो न ही टेकूँ। मैंने सोचा कि प्रकृति के जिन भी नियमों के तहत इस संसार में भेजा गया हूँ वे यह संकेत तो देते ही हैं कि मुझे भी एक भरी-पूरी ज़िन्दगी जीने का हक़ है। तो फिर, जीने की कोशिश और आस क्यों छोड़ी जाय? सकारात्मक सोच से यह पैदा हुआ कि दुनिया में समस्याएं हैं तो समाधान भी होंगे ही। मौत आने में जितने भी दिन शेष हैं उन दिनों में हताश होकर ऑंसू बहाने के बजाय समाधान तलाशने की कोशिश तो की ही जा सकती है। और इस तरह, रोज़मर्रा के तमाम काम करते हुए अपनी बीमारियों से निजात पाने की राह खोजने को भी मैंने एक मिशन के रूप में लिया।
अब मेरा परिचय एक नई दुनिया से हुआ, जिसका सामना लोगों को आए दिन करना ही पड़ता है, पर प्राय: वे उसके विषय में ज्यादा कुछ नहीं जानते; यानि- चिकित्सा शास्त्र, चिकित्सा पध्दतियाँ, और चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों की दुनिया। ख़ैर, मेरे सामने जो भी विकल्प आए उनका मैंने अध्ययन किया। आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा, एक्यूप्रेशर और होम्योपैथी; या और भी कुछ छिटपुट चीज़ें। एलोपैथी का औषधि विधान और सैध्दान्तिक पक्ष मैंने कुछ-कुछ पढ़ा, पर इसे अपने दायरे से बाहर रखा। इसके दो कारण थे। एक तो यह कि मेरे स्वास्थ्य की समस्याओं के मूल में बहुत कुछ एलौपैथी ही थी। असल में बचपन में मुझे कुत्तों ने काट खाया था तो गाँव-घर के लोगों की अपनी समझ के हिसाब से कुछ झाड़-फूँक करके इलाज की इतिश्री कर ली गई थी। इसका दुष्परिणाम तत्काल तो नहीं, पर साल भर बाद मुझे भोगना पड़ा। कोई 8-9 बरस की उम्र रही होगी, जबकि मैं बुरी तरह बीमार पड़ा। परिवार के लोगों ने मेरे बचने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। कई बडे ड़ॉक्टरों ने अपने हाथ खड़े कर लिए थे और किसी बड़े अस्पताल में ले जाने की सलाह दी थी। मैं होनहार क़िस्म का बालक माना जाता था, बल्कि प्राइमरी का विद्यार्थी होने पर भी हाईस्कूल तक की क़िताबें मज़े में पढ़ सकता था, तो घर ही नहीं, गाँव के लोगों ने भी किसी भी कीमत पर मेरा इलाज कराने का तय किया।
खैर, इलाज चलता रहा और कई महीनों के लिए मेरी दुनिया चारपाई के इर्द-गिर्द ही सिमटकर रह गई। और एक दिन सबके चेहरे ख़ुशी से खिल उठे जब डॉक्टर ने कहा कि अब यह बच्चा ख़तरे से उबर चुका है। इस तरह मैं बच तो गया, पर इस दौरान मेरे शरीर में कितने इंजेक्शन, कैप्सूल और टेबलट प्रवेश कर चुके थे, उनकी गिनती कर पाना मुश्किल है। दवाओं के ज़हर के रूप में अब मेरे सामने एक नई समस्या थी। इन दवाओं का पार्श्वप्रभाव इतना बुरा था कि बाद के लगभग बीस बरस के लिए मैं ठीक से कह नहीं सकता कि किसी हफ्ते या महीने पूरी तरह स्वस्थ और प्रसन्न रहा होऊँ। कोई न कोई नई तकलीफ़ अक्सर उठ खड़ी होती और निजात पाने के लिए हर बार एलोपैथी की ही शरण में पहुँचा दिया जाता। परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे मेरे फेफड़े, यकृत, गुर्दे जवाब देने लगे और अन्तत: मधुमेह तक का शिकार मुझे होना पड़ा। एक बार लगा कि शायद ऑंखों की रोशनी अब नहीं बचेगी। दो-ढाई साल तक तो मेरे सामने शाम का धँधलका ही छाया रहा।
दरअसल, इन्हीं वजहों ने मुझे एलोपैथी पर कुछ अलग ढंग से सोचने पर विवश किया। धीरे-धीरे मेरी स्पष्ट धारणा बनती गई कि इस पैथी के विकास में विज्ञान का आधार ज़रूर लिया गया है, पर इसमें अवैज्ञानिकता का अंश बहुत ज्यादा है। इसी वजह से एलोपैथी के बारे में मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इस पध्दति में आज तक एक भी दवा ऐसी नहीं बनाई जा सकी है जिसे कि पूरी तरह निरापद कहा जा सके। निरापद घोषित की गई दवाओं के दुष्परिणाम भी कालान्तर में उजागर होते ही रहे हैं यह कोई बहुत बताने की बात नहीं है। इस तरह, अगर मैं कहूँ कि एलोपैथी का अभी तक का विकास स्वास्थ्य के स्थायी साधन के रूप में नहीं, बल्कि आपातकालीन साधन के रूप में ही हो पाया है तो शायद ज्यादती नहीं होगी। असल में यह ही दूसरी वजह थी जिसके चलते मैंने इस पध्दति को अपने दायरे से बाहर रखा।
खैर, तमाम वैकल्पिक चिकित्सा पध्दतियों और नई संभावनाओं का अध्ययन-मनन करते हुए मेरी धरणा यह भी बनी कि चिकित्सा पध्दतियों का विभेद कई अर्थों में बेमानी है। अलग-अलग पध्दतियों का अस्तित्व मानवीय दुराग्रहों का परिणाम है; अन्यथा, प्रकृति के नियम तो अपनी सम्पूर्णता में काम करते हैं। यदि हमारे चिकित्साशास्त्री अपनी ज़िदें और दुराग्रह त्याग दें और सम्पूर्ण स्वास्थ्य को लक्ष्य मानकर काम करें तो शायद हर चिकित्सा पध्दति का नकारात्मक अंश दूर हो जाय और सबका सकारात्मक पक्ष मिलकर एक बेहतर और निरापद चिकित्सा व्यवस्था बन जाए।
बहरहाल, मैंने तय किया कि मैं पैथियों की ज़िद में न पड़कर अपने लिए उपयोगी हो सकने वाले हर पक्ष को आज़माऊँगा। आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, एक्यूप्रेशर, योग और होम्योपैथी को एक साथ सम्मिलित करके मैंने कुछ उपचार क्रम तैयार किए। मैंने यह भी सोच लिया कि यदि ज़रूरत पड़ी तो एलोपैथी के सर्जरी पक्ष को भी शामिल करने में संकोच नहीं करूँगा, पर उसकी नौबत नहीं आयी। हालाँकि अलग-अलग पध्दतियों के इस तरह के घालमेल के लिए एक बड़े विवेक की ज़रूरत थी, और मैं कह सकता हूँ कि यह मुझे आयुर्वेद के त्रिदोष सिध्दान्त से मिला। मैं समझता हूँ कि चिकित्सा जगत में इससे ज्यादा दिलचस्प और वैज्ञानिक सिध्दान्त अभी तक और कोई नहीं आ पाया है।
कफ-पित्ता-वात के प्रकृतिगत अध्ययन से मुझे यह तय करने में मदद मिली कि अलग-अलग पध्दतियों की कौन-कौन सी चीजें बिना एक-दूसरे को बाधा पहुँचाए भी साथ-साथ काम कर सकती हैं। ऑंतों को ठीक करने के लिए कब मुझे एनिमा लेना चाहिए; कब ईसबगोल का सेवन करना चाहिए या ईसबगोल से किसी मुश्किल की आशंका हो तो कैसे कितनी मात्रा में उसमें त्रिदोषशामक ऑंवला मिलाया जा सकता है; मिट्टी की पट्टी का कितना उपयोग किया जा सकता है; एक्यूप्रेशर के कौन से दबाव बिन्दु उपयोगी हो सकते हैं; योग के आसनों ओर प्राणायाम का कितना सहारा लिया जा सकता है; शीर्षासन कब उपयोगी और कब अनुपयोगी हो सकता है-- आदि-आदि बातों का क्रम मैंने बहुत कुछ इसी आधार पर तय किया।
वैसे उपरोक्त उपचार क्रम को भी मैं मात्र सहायक साधन ही कहूँगा क्योंकि मुख्य सहायता मुझे होम्योपैथी से मिली। आधुनिक विज्ञान पढ़े हुए लोग पहली बार होम्योपैथी का सिध्दान्त पढें या सुनें तो शायद उन्हें यह बकवास से ज्यादा और कुछ नहीं लगेगा, पर इसका असर और मर्म समझ लेने के बाद विज्ञान के एक नए ही आयाम का पता चलेगा। एलोपैथी के लोग अपने दुराग्रह छोड़कर होम्योपैथी का विज्ञान ठीक से समझ लें तो अपनी तमाम दवाओं को पार्श्वप्रभावों से मुक्त बना सकेंगे; बल्कि ज़हर जैसी कई चीज़ों से भी अमृत का काम लिया जा सकेगा।
होम्योपैथी शुरू में मुझे भी एक टोने-टोटके जैसी अनर्गल सी चीज़ लगी थी, पर मैं साधुवाद दूँगा इलाहाबाद के अतिशय सेवाभावी होम्योपैथ डॉ. दिनेश प्रसाद को, जिन्होंने मुझे इस पध्दति का व्यावहारिक प्रभाव दिखाया और कई बारीक़ बातें समझाईं। उन्हीं की चयनित दवा का प्रत्यक्ष प्रभाव मैंने अपने ऊपर पहली बार महसूस किया और होम्योपैथी का अध्येता बन गया। इस पध्दति की सैध्दान्तिक समझ बनाने के बाद मैंने दवाओं के क्रम तय किए और उन्हें आज़माना शुरू किया। हालाँकि होम्योपैथी के साथ प्राय: अन्य पैथियों को आज़माना सख्ती से मना किया जाता है, पर मैं होम्योपैथी के विद्वानों से क्षमा चाहूँगा कि मैंने इस तरह की पाबंदियों पर बहुत ध्यान नहीं दिया। किसी भी दवा की प्रकृति को समझते हुए मैंने इतना ध्यान अवश्य रखा कि किसी अन्य पध्दति की कोई क्रिया प्रतिकूल न हो। जब यह अनुभव आया कि कॉफी, कपूर और कच्ची प्याज जैसी चीजें सचमुच कुछ दवाओं का असर कम करती हैं तो उनसे यथासंभव परहेज़ किया। जिन दवाओं का मैंने अपने उपचार क्रम में समय-समय पर इस्तेमाल किया उनमें सल्फर, लाइकोपोडियम, सीपिया, कल्केरिया कार्ब, काली कार्ब, पल्साटिल्ला, आर्सेनिक अल्बम, इपिकाक, एण्टिम क्रूड, एनाकार्डियम, एलो, एकोनाइट, क्रियोजोटम, कॉफिया, कालीफास, कल्केरिया फास, कार्बोवेज, काली बाईक्रोम, कास्टिकम, फास्फोरस, कैलेण्डूला, चेलिडोनियम, जेल्सिमियम, ब्रायोनिया, बेलाडोना, नक्स वोमिका, मर्कसोल, स्टैफिसेग्रिया, चाइना, सैंग्वीनेरिया, सोराइनम, हीपर सल्फ, बर्बरिस बल्गैरिस, फेरमफास, नेट्रमफास, नेट्रम सल्फ, साइलीशिया वग़ैरह का नाम ले सकता हूँ। ज्यदातर दवाएं मैंने 200 शक्ति में सेवन कीं। एकदमर् नई तक़लीफ़ों में प्राय: 30 शक्ति या कुछ दवाओं के मदर टिंचर भी प्रयोग किए। बायोकैमी दवाएं प्राय: 6 शक्ति या कुछ की ऊपर की शक्तियाँ मेरे लिए मुफ़ीद रहीं।
तो यह कहानी हुई मौत से जूझने और उस पर विजय पाने की। अब मैं काफ़ी ठीक हूँ। यकृत पूरी तरह ठीक है। मौत के आख़िरी दिन तक साथ निभाने वाली डायबिटीज को भी पूरी तरह अलविदा कह चुका हूँ। फेफड़े और गुर्दो की स्थिति में भी काफ़ी सुधार है। शरीर ज़रूर कमज़ोर है, पर वह भी सुधार पर ही है। उम्र के सैंतीसवें वर्ष में प्रवेश कर चुका हूँ। कुल मिलाकर मृत्यु की डॉक्टरी भविष्यवाणी को झुठलाकर फिलहाल 6-7 साल ज्यादा जी गया हूँ। किसी हादसे का शिकार न हुआ तो उम्मीद करता हूँ कि सौ साल जीऊँगा। सोचता हूँ कि ज़िन्दगी की मुश्किलों, संघर्षों से डर जाने से क्या हासिल होगा, क्यों न उन्हें अपना संगी-साथी ही मानकर चला जाए।
और अब मैं जहाँ भी रहता हँ, लोगों की सेवा का कोई भी मौक़ा हाथ से नहीं जाने देता। रोज़मर्रा के कामों से एक-दो घंटे बचाकर अपने अनुभवों से औरों को भी लाभान्वित करने की कोशिश करता हूँ। रोगियों को संघर्ष का हौसला देता हूँ। लोगों को इस बात के लिए उत्साहित करता हूँ कि यदि वे अपने बच्चों को स्वास्थ्य संबंधी कुछ बुनियादी बातें भी बता सकें तो उनका जीवन आनन्दमय हो जाएगा और हमारे नौनिहाल नब्बे फ़ीसदी से भी अधिक बीमारियों से बड़ी आसानी से बचे रह सकेंगे। मैंने अपने अनुभवों पर आधारित आयुर्वेद पर दो पुस्तकें भी लिखीं हैं जो जनसाधारण के अलावा स्वामी रामदेव जैसे योग के विद्वानों द्वारा भी सराही गई हैं। इसके अलावा जो मुझसे इलाज कराना चाहते हैं अक्सर उनसे उनकी एकाध बुरी आदत छोड़ने का संकल्प दिलाता हूँ और बदले में विभिन्न पध्दतियों से स्वास्थ्य परामर्श और होम्योपैथी की नि:शुल्क दवाएं देता हूँ। जीवन का असली आनन्द इससे अलग और क्या हो सकता है!

रविवार, 7 दिसंबर 2008

समलैंगिकता ज़िन्दाबाद

तो क्या आने वाले दिनों में भूख, ग़रीबी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पीछे हो जाएँगे और देश के सामाजिक संगठन समलैंगिक प्रेम की आज़ादी का आन्दोलन चलाते हुए दिखेंगे? संकेत जो मिल रहे हैं वे कुछ ऐसी ही कहानी कह रहे हैं। स्थितियाँ ऐसी बन रही हैं कि भारत में भी समलैंगिकों के समूह आजकल बल्लियों उछल रहे हैं। समाज के सबसे समझदार और स्पष्ट दृष्टिबोध की पहचान वाले लोग उन्हें खुलकर समर्थन देने लगे हैं, तो इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है? सामाजिक संगठनों के सोशल फोरम जैसे महाआयोजनों में समलैंगिकता का मुद्दा अगर विशेष महत्व पाने लगे, तो इसका अर्थ यही निकलता है कि बेहतर दुनिया बनाने की चाह रखने वालों की प्राथमिकताएँ कुछ और दिशा ले रही हैं।

 

बहरहाल, समाजकर्म में लगे सारे ही लोग भले ही इस दिशा में न हों, पर जो तसवीर उभर रही है, वह चिन्ताजनक है। जिस देश में आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी दो जून की रोटी का ठीक से इन्तज़ाम न कर पाता हो; जिस देश के लाखों बच्चों की ज़िन्दगी कूड़ा बीनने और फुटपाथों पर ठिठुरते हुए रात गुज़ारने को अभी भी अभिशप्त हो; जिस देश की स्त्रियाँ ढेर सारी वर्जनाओं में ख़ुद को आज भी जकड़ा हुआ महसूस करती हों; जिस देश के जवान सपने बेरोज़गारी के ऍंधेरे में गुम हो जाने की नियति से ग्रस्त हों; उस देश में सामाजिक सरोकारों का दम भरने वाले लोग समलैंगिकता के आज़ाद व्यवहार के छूट की माँग को अपनी प्राथमिकताओं के शीर्ष पर रखने लगें, तो यह दु:खद ही है। इसे बुनियादी सरोकारों को दरकिनार कर सिर्फ़ मौज-मस्ती के लिए एक विकृत उच्छृंखल स्वार्थवृत्ति प्रेरित स्वच्छन्द भोग की बेलगाम लालसा के अलावा और क्या कहा जा सकता है?

     

इस सूचना पर आप हँसें या तरस खाएँ, पर यह सच है कि साल भर पहले ही प्रशान्त भूषण, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, एम. जे. अकबर, सतीश गुजराल, श्याम बेनेगल, कुलदीप नैयर, आशीष नन्दी, शुभा मुद्गल, अरुन्धती राय, सुमित सरकार, बी. जी. वर्गीज, अरुणा राय और दिलीप पडगाँवकर जैसे लोग समलैंगिक आन्दोलन के पक्ष में खड़े हो चुके हैं। अमर्त्य सेन जैसे व्यक्ति ने तो यहाँ तक कह दिया कि-'समलैंगिक आचरण की स्वतन्त्रता है या नहीं, इससे तय होता है कि मानव सभ्यता का कितना विकास हुआ है।' सभ्यता के विकास के इस अजब-गज़ब पैमाने पर क्या कहा जाए? इसे एक भले दिमाग़ का बुरा इस्तेमाल न कहें तो क्या कहें?

     

इधर समलैंगिक समूह अपना एक अलग तर्कशास्त्र और जीवन-दर्शन विकसित करने में लगे हैं। इसके लिए  पत्रिकाएँ और वेबसाइटें तक चल रही हैं। कुछ वैज्ञानिक अध्ययन इस दिशा में उनके लिए ख़ासे मददगार साबित हो रहे हैं। बात-बात में वैज्ञानिक अध्ययनों का हवाला देने वाले समझदार क़िस्म के लोगों के लिए भी यह क़ायल करने वाली बात है ही। ब्रूस बागेमील, जोआन रफगार्डन, पॉल वाज़ जैसे वैज्ञानिकों के अध्ययनों का निष्कर्ष है कि मनुष्य की बात हो या मनुष्येतर प्राणियों की, नर-मादा का प्रेम स्वाभाविक नहीं है। मसलन, पक्षियों को छोड़कर अभी तक नर और मादा के बीच भावनात्मक सम्बन्धों के प्रमाण नहीं मिले हैं। या कहें यदा-कदा ही मिले हैं। वहीं दूसरी ओर, प्रकृति में नरों में आपस में और मादाओं में आपसी गहरे भावनात्मक सम्बन्धों के प्रमाण बहुत बड़ी संख्या में हैं। यह भी कि स्तनधारियों में नर और मादा का समागम केवल प्रजनन के लिए होता है और उतना ही होता है जितना कि प्रजनन के लिए ज़रूरी हो। यह समागम आनन्द और प्रेम के लिए हरगिज़ नहीं होता। यानी मनुष्यों में नर व मादा यदि प्रजनन की ज़रूरत से ज्यादा सम्बन्ध रख रहे हैं तो यह प्रकृति की व्यवस्था के ख़िलाफ़ है। कुछ वैज्ञानिक अध्ययनों का निष्कर्ष यह भी है कि चिम्पाजी की प्रजाति बोनोबोस, जिर्राफ, पेंग्विन, पैरेट, बीटल्स, व्हेल्स समेत डेढ़ हज़ार से ज्यादा प्रजातियों में होमो सैक्सुअलिटी के गुण पाए जाते हैं। नार्वे की राजधानी के 'द ओस्लो नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम' में तो पिछले दिनों बाक़ायदा इसकी एक प्रदर्शनी भी लगाई गई। यह जानना भी दिलचस्प होगा कि लगभग 23 सौ साल पहले ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने हाईनस नामक जीव में होमो सैक्सुअलिटी की बात कही थी। इसके अलावा कुछ लोग समलैंगिकता को आनुवंशिक विशेषता के तौर पर जब-तब प्रचारित करते ही रहते हैं।

     

अब, अगर ये अध्ययन और निष्कर्ष सचमुच प्रकृति में क़ायम जीवन-व्यवहार की सही व्याख्या करते हैं तो हमारे जैसे लोग इन्हें कब तक नकार पाएँगे? दुनिया के दरो-दीवार की खुलती हुई खिड़कियों से एक न एक दिन सच की रोशनी आ ही सकती है। असल में हमारी दिलचस्पी सचमुच के किसी वैज्ञानिक निष्कर्ष को नकारने की नहीं, बल्कि यह देखने की है कि क्या ये अध्ययन वैज्ञानिक ही हैं या विज्ञान के नाम पर इनमें किसी छद्म का इस्तेमाल हुआ है। अगर समलैंगिकता के झंडाबरदार इन वैज्ञानिक अध्ययनों को अपने पक्ष में अकाट्य प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत करते हुए यह कहना चाहते हैं कि स्त्री और पुरुष का समागम सिर्फ़ सन्तति के लिए है और यह आनन्द और प्रेम के लिए हरगिज़ नहीं है तो फिर उन्हें इस प्रत्यक्ष अनुभूति का भी जवाब देना होगा कि स्त्री-पुरुष समागम में आनन्दातिरेक और प्रेम की अभिव्यक्ति होती क्यों है? कोई लाख चाहे पर समागम के दौर के आनन्दातिरेक से विमुख नहीं रह सकता। समागम में आनन्द प्राप्ति जैसी कोई बात न होती तो आदमी कामान्ध होकर बलात्कार जैसी बेजां हरकतें भी क्यों करता? सहज अनुभूतियाँ जीवन-व्यवहार की सही व्याख्या करती हैं या खींच-तान कर कुछ निहित उद्देश्यों को लेकर निकाले जा रहे तथाकथित वैज्ञानिक अध्ययन? यदि यौन और प्रेम सम्बन्ध पुरुष का पुरुष या स्त्री का स्त्री के साथ ही स्वाभाविक और प्राकृतिक होता तो प्रकृति ने स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे का पूरक क्यों बना दिया? प्रकृति ने क्यों नहीं समलिंगी सम्बन्धों में ही सन्तति की सम्भावना भी बना दी? आख़िर सृष्टि को चलाए रखने के लिए नर-मादा की पारस्परिक ज़रूरत क्यों?

 

      प्राकृतिक और सहज प्रवाह को बनावटी बन्दिशों से कभी भी एक हद से ज्यादा नहीं रोका जा सकता। काम का आवेग इतना सहज है कि ब्रह्मचर्य की महत्ता पर उपदेशों-प्रवचनों के अम्बार के बाद भी कभी बृहत्तर समाज ब्रह्मचर्य का साधक नहीं बना। ब्रह्मचर्य का चोला पहने लोगों में भी गिने-चुने ही होंगे जो सचमुच काम भाव को क़ाबू में रख पाए हों। फिर, समलैंगिकता ही ज्यादा स्वाभाविक है तो समलैंगिकों की संख्या भी क्यों उँगलियों पर गिनने लायक़ ही रही?

 

      समलैंगिकता के समर्थक यदि यह तर्क प्रस्तुत कर रहे हैं कि प्रकृति में डेढ़ हज़ार से ज्यादा प्रजातियों में समलैंगिक व्यावहार पाया जाता है तो सवाल यह भी उठता है कि बाक़ी की लाखों प्रजातियों में क्यों नहीं समलैंगिकता पायी जाती? यह भी कि मनुष्य को भी इन लाखों में ही क्यों न शामिल माना जाए? और यदि हज़ार-दो-हज़ार या दस हज़ार प्रजातियों में भी समलैंगिक व्यवहार पाया जाए तो क्या सिर्फ़ इस आधार पर ही मनुष्य को भी इस राह पर चल पड़ना चाहिए? आख़िर जो लाखों प्रजातियाँ समलैंगिक व्यवहार नहीं करतीं, उन जैसा व्यवहार आदमी क्यों न करे? अधिसंख्य का व्यवहार ही मनुष्य का प्रेरक क्यों न हो? बात यह भी है कि जिन्हें हम विभिन्न प्रजातियों में समलैंगिक व्यवहार के रूप में देख रहे हैं, हो सकता है कल को वे कुछ और साबित हों। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है, क्योंकि इस तरह के अध्ययनों की प्रवृत्ति बाद में अकसर ग़लत साबित होने की रही ही है। हमने देखा ही है कि किस तरह विज्ञान के ही नाम पर डिब्बाबन्द दूध को माँ के दूध से बेहतर प्रचारित किया गया और जब स्पष्ट दुष्परिणाम दिखे तो निष्कर्ष उलट दिए गए। कहा यह भी गया कि च्युंगम चबाने से याददाश्त बढ़ती है। इससे च्युंगम बनाने वाली कम्पनियों की चाँदी हो गई। जबकि, सच यह है कि याददाश्त का सम्बन्ध च्युंगम से नहीं चबाने की क्रिया से है। इसी तरह प्रसिध्द मेडिकल मैगजीन 'लांसेट' ने एक अध्ययन रिपोर्ट छापी कि होम्योपैथी दवाओं का असर सिर्फ़ मनेवैज्ञानिक होता है और यह अवैज्ञानिक चिकित्सा पध्दति है। पत्रिका ने इस बात का उत्तर देने की ज़रूरत नहीं समझी कि अबोध शिशुओं पर होम्योपैथी दवाओं का क्यों एलोपैथी से भी बेहतर असर दिखता है? या कि जानवरों पर होम्योपैथी दवाओं का कौन सा मनोवैज्ञानिक असर होता है? असल में एलोपैथी के तौर-तरीक़े को ही मात्र विज्ञानसम्मत मानने के दुराग्रह के नाते यह मूर्खतापूर्ण अध्ययन सामने आया।

 

      सिर्फ़ विज्ञान का मुलम्मा चढ़ा देने भर से कोई अध्ययन वैज्ञानिकतापूर्ण नहीं हो जाता। ऐसा होता तो प्राय: एक शोध को सिरे से ख़ारिज कर देने वाले आए-दिन दूसरे शोध सामने न आते। पशु-पक्षियों के व्यवहार में समलैंगिकता तलाशना तो और भी सन्देहास्पद है, क्योंकि इतनी प्रगति के बाद भी हम मनुष्येतर प्राणियों की भाषा, भावना और व्यवहार पर कोई अन्तिम निर्णय देने की स्थिति में नहीं पहुँच सके हैं। यह सोचने वाली बात है कि पंजाब और हिमाचल के लायंस सफारी 'छतबीड़ जू' तथा 'रेणुका' में कुछ रोगों के कारण नस्ल ख़त्म करने के उद्देश्य से जब नर और मादा शेरों को अलग-अलग रखा गया तो देखने में यही आया कि ज्यादा समय तक मादा से दूर रहने पर नर शेर ग़ुस्से में ख़ुद को ज़ख्मी करने लगे, पर कामावेग की शान्ति के लिए उन्होंने आपस में किसी तरह का समलैंगिक व्यवहार नहीं किया। पशु-पक्षियों का कोई व्यवहार ऊपरी तौर पर आदमी जैसा दिखने भर से उसे आदमी के समकक्ष घोषित कर देना अज्ञान का परिचायक हो सकता है किसी वैज्ञानिक दृष्टि का नहीं।

 

वास्तव में यह सब विकृत शरीर सुख की आज़ादी को जायज़ ठहराने के तर्कजाल से ज्यादा और कुछ नहीं है। किसी क्रिया के प्रकृति के अनुकूल या प्रतिकूल होने का सबसे बड़ा पैमाना तो यह है कि यदि कोई क्रिया प्रकृति के अनुकूल है तो उससे प्रकृति की गति में कोई विक्षोभ नहीं पैदा होता, उसकी सुचारू गति बनी रहती है। इस अर्थ में दुनिया के सारे लोग दयावान, करुणावान, ईमानदार और एक-दूसरे के सहयोगी भाव वाले हो जाएँ तो संसार की गति में बाधा नहीं पड़ेगी, बल्कि दुनिया और भी रहने के क़ाबिल बन जाएगी। अब यदि सारे लोग बेईमान, भ्रष्ट, एक-दूसरे को बात-बात में धोखा देने वाले हो जाएँ, तो कल्पना करिए कि कितने क्षण जीवन-व्यवहार चल सकेगा? कुछ ऐसे ही, यदि सारे लोग समलैंगिकता को सहज व्यवहार मानकर अपना लें, तो हम समझ सकते हैं कि मनुष्य जाति के नष्ट होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।

 

सच तो यह है कि इस सहज सिध्द अप्राकृतिक प्रवृत्ति पर यदि बहस-मुबाहिसे की ज़रूरत पड़े तो समझ लेना चाहिए कि यह बीमार समाज की निशानी है। मानवेतर जीवन से लेकर किसी भी स्तर पर इसे अप्राकृतिक और अनुचित सिध्द किया जा सकता है। पशु-पक्षियों से लेकर मनुष्य तक में नर-मादा की एक-दूसरे के लिए पूरक होने की अनिवार्यता से ही यह सहज समझ आ जानी चाहिए कि समलैंगिकता नितान्त अप्राकृतिक है और अनुचित है। पशु-पक्षियों में विवेक न होने के बावजूद यह सहज समझ है। यदि आदमी में यह समझ गड़बड़ाने लगी है तो निश्चित रूप से उसका मानस बीमार हो रहा है। इस मायने में पश्चिम का समाज ज्यादा बीमार है। समलैंगिकता स्वस्थ और जीवन्त समाज की निशानी नहीं हो सकती। यह तो उद्देश्यहीन, भटके हुए और मुर्दा हो रहे समाज की ही पहचान है। पश्चिम की दशा यही है। उस समाज में जो जुम्बिश दिखाई दे रही है, वह जीवन्तता की कम, मौत के पहले की फड़कन ज्यादा हैं। दरअसल विज्ञान की कोख से जन्मी टेक्नॉलोजी उनके हाथ लग गई है। इसके सहारे नित नई उपभोग की विधियाँ तलाशने को ही वे अपना साध्य मान बैठे हैं। संयम का अर्थ और उसकी उपादेयता उन्हें नहीं मालूम। आदमी के होने का अर्थ भी उन्हें नहीं मालूम। जिस समाज के लोगों के लिए अपने होने का अर्थबोध सिर्फ़ इतने तक सिमट गया हो कि वे सिर्फ़ इसलिए पैदा हुए हैं कि नित नई चीज़ों का ज्यादा से ज्यादा उपभोग कर सकें तो उस समाज की निरन्तर छीजती जीवन्तता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है! वास्तव में कामुकता भोगवाद की सबसे प्रबल दैहिक अभिव्यक्ति है। और इसी नाते, समलैंगिकता जैसी काम-विकृतियाँ उन्हीं भोगवादी समाजों की ईजाद हैं। टेक्नॉलोजी की महारत ने, यह ज़रूर है कि उनमें उनके जीवन्त होने का भ्रम पैदा कर रखा है। लेकिन किसी भी विलासी समाज का इस तरह का भ्रम ज्यादा दिनों तक क़ायम नहीं रह सकता। इतिहास में तमाम पन्ने ऐसे मिलेंगे, जिनमें विलासी समाजों के पतन की महागाथाएँ मिल जाएँगी।

 

      समझदार क़िस्म के लोग अगर यह तर्क दे रहे हैं कि समलैंगिकता तो भारतीय संस्कृति में बहुत पहले से ही रही है, तो उनकी इतिहास और संस्कृति की समझ पर तरस ही खाया जा सकता है। दुनिया के भोगवादी समाजों की देन समलैंगिकता की समस्या को उन्हीं के नज़रिए से देखने पर इस तरह का दृष्टिदोष तो होगा ही। समाजकर्म का आधुनिक संस्करण दरअसल पश्चिम के ही चित्ता-मानस से गहरे तक प्रभावित हो चुका है-  सम्भवत: इसलिए भी कि एनजीओ संस्कृति में धन का प्रवाह वहीं से ज्यादा हो रहा है-  अन्यथा, समझदारों के लिए यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि समलैंगिकता का मतलब सिर्फ़ एक विकृत शरीर सुख की माँग है और भारतीयता सिर्फ़ शरीर सुख नहीं है। भारतीयता की विशेषता अपने मूल रूप में मौजूद हो तो इससे शून्य जैसे आविष्कार निकलते हैं जिससे दुनिया में विज्ञान का सफ़र आसान हो जाता है; जबकि, पश्चिम का शरीर-सुख सिफलिस और एड्स जैसे रोग देता है जो तमाम उपलब्धियों पर भी ग्रहण लगाने का काम करते हैं। ऐसे में, यह सोचना पड़ेगा कि क्या भारतीय संस्कृति-सभ्यता को हम अप्रासंगिक मान चुके है और शरीर-सुख को ही केन्द्रीय तत्तव मानकर चलने वाला पश्चिमी समाज हमारा आदर्श और लक्ष्य बन गया है? और क्या सामाजिक संगठनों को अब बेहतर दुनिया का रास्ता कुछ इसी तरफ़ से खुलता दिखाई दे रहा है?

 

      हालाँकि यह सब कहते-समझते हुए भी यह तो माना ही जा सकता है कि समलैंगिकता एक स्थिति है और समाज के किसी हिस्से का यथार्थ भी है। समलैंगिक अगर किसी को नुक़सान नहीं पहुँचाते तो सिर्फ़ इस व्यवहार की वजह से वे नफ़रत के पात्र भी नहीं बन जाते। समलैंगिकता अतृप्तता की स्थितियों में तनावों से जन्मी एक बीमार मानसिकता हो सकती है और इसके लिए प्रताड़ना और नफ़रत के बजाय सहानुभूति और इलाज की व्यवस्था की ज़रूरत है।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

शक्ति से निकलेगा समाधान

हर बार धमाका, इस बार हमला। बात गंभीर है, इसलिए हमारी सरकार पाकिस्तान के ख़िलाफ़ पुख्ता सबूत जुटाने में जुट गई है। असल में जब भी देश के किसी कोने में धमाके होते हैं, तो हमारा प्रशासन आतंकवादी गतिविधियों में पाकिस्तानी सक्रियता के सबूत जुटाने में जुट ही जाता है। भारत का अकसर कहना होता है कि भारत में चल रही आतंकवादी गतिविधियों में पाकिस्तान की संलिप्तता को लेकर उसके पास पर्याप्त जानकारियाँ हैं, बस कुछ कड़ियाँ और जोड़नी हैं; परंतु पाकिस्तान की जवाबी भाषा में वही पुरानी स्थायी-सी अकड़न हमेशा होती है कि- यह सब बकवास है - और भारत में दम हो तो सबूत पेश करे। वैसे, बहुतों को यह भी याद होगा कि दो साल पहले हुए मुंबई विस्फोटों के मामले में पक्के सबूतों के तमाम दावों के बाद सबूतों के कमज़ोर होने की बात कह कर भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने कैसे अपनी फ़ज़ीहत कराई थी। बहरहाल, मान लीजिए कि सचमुच भारत पाकिस्तान के ख़िलाफ़ ढेर सारे पुख्ता सबूत प्रस्तुत भी कर देता है, तो क्या होगा?
अब तक का इतिहास देखते हुए यही कहा जा सकता है कि भारत अपने पुख्ता सबूतों की राग अलापता रहेगा और पाकिस्तान उन्हें उतने ही पुख्ता तरीक़े से ख़ारिज कर देगा। जैसे कि इस बार भी ऐसे संकेत मिलने ही लगे हैं। इन सबूतों से पाकिस्तान के तौर-तरीक़ों में किसी परिवर्तन की उम्मीद बेमानी है। पाकिस्तान में हुए हाल के व्यवस्था परिवर्तन की ताज़ी बयार में भले ही भारत चंद दिनों के लिए आतंकवाद के ख़िलाफ़ वहां के नेताओं के सकारात्मक से लगने वाले बयानों की ख़ुशबू महसूस कर ले, पर याद यही रखना चाहिए कि पाकिस्तान कम से कम पट्टी पढ़ाने की कला में माहिर हो चुका है। वह अमरीका तक को भरमा कर अपना मतलब साधने में कामयाब होता ही रहा है, तो हिंदुस्तान किस खेत की मूली है!
इसका अर्थ यह नहीं है कि हम सबूत न जुटाएं। सबूत ज़रूर जुटाएं और उन्हें दुनिया के सामने सार्वजनिक भी करें; क्योंकि ये सबूत ही हमारे पक्ष को दुनिया के सामने मज़बूत करेंगे। लेकिन, भारत विरोधी पाकिस्तानी हरकतों पर लगाम सबूतों और साल-दर-साल ज़ोर-शोर से आयोजित होने वाली शांतिवार्ताओं से नहीं लगने वाली। सबूत हमारे पास पहले भी रहे हैं पर हम इतने अक्षम साबित हुए हैं कि उनका कोई प्रभावी परिणाम नहीं निकाल सके हैं। जहाँ तक शांतिवार्ताओं की बात है तो यह लगभग स्पष्ट ही हो चुका है कि इन वार्ताओं में अमरीकी इशारे बहुत हद तक प्रभावी रहे हैं।
असल में अमरीका शक्तिशाली है इसलिए उसके निरर्थक इशारे भी अर्थवान हो जाते हैं और भारत या पाकिस्तान के लिए उन्हें नज़रअंदाज़ कर देना आसान नहीं रह जाता। ऐसे में, इन वार्ताओं के नतीजों पर कम से कम हमारे जैसे लोग बहुत आशान्वित तो नहीं ही हो सकते। उल्टे, इस तरह के संधि-समझौतों पर भरोसा करके भारत आतंकवाद से लड़ने की अपनी ताक़त कुछ और कमज़ोर ही करता रहा है और पाकिस्तान दरअसल यही चाहता भी है।
इन वार्ताओं के युगांतरकारी फलित की उम्मीद लगाए लोग नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं कि हम जैसे लोग अकसर ही नकारात्मक और दिल बैठाने वाली बातें ही सोचते हैं। लेकिन हमारी मुश्किल यह है कि पाकिस्तान ने अपने जन्मकाल से ही अपना जो राष्ट्रीय चरित्र विकसित किया है, उसे कैसे भूल जाएं? महात्मा गाँधी की प्रेरणाओं में जीने वाले हम जैसे लोग भी चाहते तो यही हैं कि कश्मीर ही क्या, दुनिया की दूसरी समस्याएं भी शांतिपूर्ण बातचीत से हल हों। लेकिन, यथार्थ से मुँह तो नहीं मोड़ा जा सकता। यथार्थ से मुँह मोड़े रहने की ग़लती एक बार चीन के साथ करके हम नतीजा भुगत चुके हैं; और, उससे भी अगर कोई सबक न ले सके तो हमारे नेताओं की ज़बरदस्ती की खुशफहमी का क्या किया जा सकता है
बडे-बड़े राजनीतिक विश्लेषक और मीडिया के लोग भले ही इन वार्ताओं से किसी अप्रत्याशित परिणाम की उम्मीदें लगाए बैठे हों, पर सामान्य जागरूक आदमी भी अगर इन्हें बातचीत की निरर्थक कवायद ही मानकर चलता है, तो वह यूँ ही नहीं है। आज़ादी के बाद से ही भारत-पाकिस्तान के बीच वार्ता और विश्वासघात का जो सिलसिला चला है, उसने इस तरह का निष्कर्ष निकालने को मजबूर किया है। जब एक आदमी का चरित्र आसानी से नहीं बदलता, फिर पूरे राष्ट्र का चरित्र अचानक से बदल जाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? किसी राष्ट्र का चरित्र उसके अपने लोगों के सामूहिक चरित्र का ही प्रतिबिंब होता है। जो लोग पाकिस्तानी सांसदों की सौहार्दपूर्ण भारत-यात्रा और जब-तब वहाँ के कुछ लोगों के साक्षात्कार वगैरह पढ़-सुनकर यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि कश्मीर समस्या तो सिर्फ़ सत्ता की राजनीति करने वाले पाकिस्तानी शासकों के दुराग्रह का नतीजा है, तो वे बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं। वास्तव में कश्मीर पाकिस्तान की आम जनता के लिए भी भावनात्मक रूप से प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका है। यदि ऐसा न होता तो पाकिस्तान में भारत के ख़िलाफ़ आतंकवाद का खुला प्रशिक्षण अभियान संभव न होता।
यह सब कहने का यह भी अर्थ नहीं है कि पाकिस्तान की जनता भारत के साथ हर हाल में दुश्मनी ही निभाने पर तुली है। वह भी शांति चाहती है, लेकिन अपने हिसाब से अपना आत्मसम्मान ऊँचा रखते हुए। पाकिस्तानी जनता के मानस में बँटवारे के बाद से ही यह ग्रंथि बनी हुई है कि भारत उसके साथ ज्यादती करता रहा है। ऐसे में कश्मीर के मामले में जिस स्तर की आशाएं वहाँ की जनता ने लगाई हुई हैं, उससे नीचे उतरकर कोई समझौता कर पाना पाकिस्तानी शासकों के लिए आसान नहीं है। यदि किसी दबाव या राजनीति के तहत दोनों देशों के शासकों ने अपनी-अपनी कुछ ज़िदें छोड़कर ऐतिहासिक सा दिखने वाला कोई समझौता कर भी लिया तो कुछ दिनों की वाहवाही के बाद उसका भी हश्र पिछले तमाम समझौतों की तरह ही होने की संभावनाएं बनी रहेंगी।
असल में असली समाधान तो शक्ति ही है। पाकिस्तान सरासर ग़लत होते हुए भी अगर भारत के ख़िलाफ़ अभियान छेड़े हुए है तो इसीलिए कि वह भारत को बहुत शक्तिशाली नहीं समझ रहा है। पिछले कुछ युध्दों में जीत जाने के बावजूद भारत अभी तक अपने को इतना शक्तिशाली नहीं साबित कर पाया है कि पाकिस्तान की भविष्य में जीतने की उम्मीदें ख़त्म ही हो जाएं। पाकिस्तान को यह भरोसा है कि वह एक न एक दिन भारत को सबक सिखाने की ताक़त इकट्ठी ही कर लेगा। वह दिन-रात अपनी सामरिक शक्ति बढ़ाने में लगा हुआ है तो उसकी वज़ह यही है।
भारत के पास यदि पर्याप्त शक्ति होती तो पाकिस्तान क्या, चीन भी हमसे ऑंखें तरेरने से बचता। आज़ादी के बाद से ही भारत के पास इतना संसाधन, इतनी प्रतिभा और इतनी जनशक्ति थी कि वह दुनिया में सबसे बड़ी ताक़त के रूप में अपना लोहा मनवा सकता था। लेकिन हमने अहिंसा की नक़ली रट लगा-लगाकर अपने को शक्तिशाली नहीं बनने दिया। इसका अर्थ यह नहीं है कि अहिंसा कोई फ़ालतू की चीज़ है। अहिंसा की नीति बड़ी चीज़ है, बल्कि कहें कि सबसे बड़ी चीज़ है, लेकिन तब जबकि इस नीति पर चलने वालों का चरित्र गाँधी जैसा हो। बिना चरित्र की साधना के जुबानी अहिंसा कमज़ोर ही बनाने का काम करेगी। आज़ादी के बाद न तो हमारे नेताओं ने अपने चरित्र में अहिंसा को उतारने की कोशिश की और न ही देश की जनता को अहिंसा के संस्कार देने की कोई योजना बनी। ऐसी हालत में किसी राष्ट्रीय संकट के समय हम अहिंसा की दुहाई देकर अपनी रक्षा की कोशिश करें तो इससे तो 'आ बैल मुझे मार' वाली स्थिति ही बनेगी।
वास्तव में अहिंसा के लिए भी ताक़त की ही दरकार है। थोड़ी देर के लिए शब्द का ही मनोरंजन करें तो हम देखेंगे कि अहिंसा में हिंसा की पूरी ताक़त छुपी हुई है। 'अहिंसा' शब्द 'हिंसा' से ही बना है, इसके आगे नकारात्मक 'अ' लगाकर। मतलब यह कि अहिंसा में हिंसा कर सकने का दम मौजूद है। हिंसा करने का दम हो फिर भी कोई हिंसा न करे तब तो कोई बात है, अहिंसा का कोई अर्थ है; अन्यथा, कमज़ोर आदमी की अहिंसा उसकी मजबूरी और कायरता ही समझी जाएगी। इसे यूँ समझिए कि एक जर्जर सी काया वाले आदमी को कोई पहलवान एक घूँसा जड़ दे और वह कमज़ोर आदमी कहे कि- जाओ तुम्हें माफ़ किया- तो यह हास्यास्पद बात हुई। लेकिन यदि वह पहलवान कमज़ोर आदमी का थप्पड़ खाकर भी उसे माफ़ कर दे तो पहलवान की अहिंसा अर्थवान हो जाएगी।
बात गाँधीजी के साथ भी वही है। उन्होंने इतनी बड़ी लोकशक्ति पैदा की कि उनकी अहिंसा हर तरह की हिंसा पर भारी पड़ने लगी थी। गाँधीजी वीरता की अहिंसा के ही क़ायल थे और उन्होंने साफ़ कहा था कि- यदि कायरता और हिंसा में से मुझे किसी एक का चुनाव करना हो, तो मैं निश्चित रूप से हिंसा को ही चूनूँगा। मतलब साफ़ है कि अहिंसा के लिए जिस तरह की शक्ति और जैसे चरित्र की ज़रूरत है, अगर वह नहीं है, तो आत्मरक्षा के लिए अपनी सामरिक शक्ति न बढ़ाना मूर्खता ही है।
अमरीका की सामरिक शक्ति सबसे ज्यादा है, इसलिए वह दुनिया का सबसे बड़ा दादा भी है। अफ़गानिस्तान और इराक को उसने अपने मनमानी तर्कों पर बग़ैर कोई सबूत पेश किए ही रौंद डाला तो अपनी ताक़त की ही वजह से। संयुक्त राष्ट्र संघ को उसने ठेंगे पर रखा हुआ है तो ताक़त की वजह से। उसकी कंपनियों के लिए दुनिया भर के बाज़ार खुल जाते हैं तो ताक़त के ही भय से। सीरिया, उ. कोरिया, ईरान को वह ताज़ा शिकार बनाने की फिराक़ में है तो अपनी ताक़त के ही बल से। दुनिया में सबसे ज्यादा ताक़तवर सिध्द हो जाने के बावजूद पेंटागन अगर 30 हज़ार अरब डॉलर नए हथियारों पर शोध करने के लिए ख़र्च करता है तो इसीलिए कि अमरीका को मालूम है कि जब तक उसकी सामरिक शक्ति बढ़ती रहेगी तब तक दुनिया उसके आगे नतमस्तक होती रहेगी; अन्यथा, ताक़त घटी तो उसका अघोषित साम्राज्य भी ढह जाएगा। यही वजह है कि अमरीका दुनिया में किसी और देश को ताक़तवर नहीं देखना चाहता। किसी भी नई ताक़त के उभरने का अंदेशा होते ही उसे वह वहीं कुचल देना चाहता है। आतंकवाद से लड़ना, उसका सिर्फ़ नाटक है। आतंकवाद से वह वहीं तक लड़ना चाहता है जहाँ तक कि उसे ख़तरा दिखता है।
अफ़गानिस्तान और इराक की तरह अमरीका अगर दूसरे कई देशों को नि:शस्त्र नहीं कर पा रहा है तो यह उसकी मजबूरी है। फ्रांस, जर्मनी, रूस वगैरह सामरिक शक्ति के मामले मे एक मुक़ाम हासिल कर चुके हैं और अमरीका को उसकी किसी हरकत का मुँहतोड़ जवाब दे सकते हैं। परमाणुबमों का अम्बार ये सभी ही देश जुटा चुके हैं। ऐसे में जबकि किसी देश का नामोनिशान मिटा देने के लिए सिर्फ़ कुछ ही परमाणुबम काफ़ी हों तो एक के पास हज़ार-दो हज़ार और दूसरे के पास सौ-पचास परमाणुबम ही होने से कोई बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ता। इसीलिए अमरीका परमाणुशक्ति सम्पन्न देशों को दूसरे कूटनीतिक तरीक़ों से कमज़ोर बनाने की कोशिश करता है।
तो, परिस्थितियों की माँग यही है कि भारत को भी अपनी शक्ति बढ़ानी चाहिए। सामरिक और आर्थिक दोनों। अमरीका जैसा दुष्ट देश अगर दुनिया का स्वयंभू न्यायाधीश बन सकता है तो भारत जैसा सचमुच का अमन-चैन चाहने वाला देश क्यों न बनें? भारत अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे न बढ़ाने की बार-बार सफ़ाई क्यों दे? भारत को तो सही मायने में सबसे ज्यादा शक्तिशाली बनने की इसलिए भी ज़रूरत है क्योंकि शक्तिशाली हो जाने के बावजूद आक्रामक की भूमिका निभाने वाली इस देश की संस्कृति है ही नहीं। भारत शक्तिशाली होगा तो दुनिया में अमन-चैन आना आसान हो जाएगा। शक्तिसंपन्न भारत का शांतिसंदेश ज्यादा ध्यान से सुना जाएगा। शक्तिसंपन्नता की स्थिति में इस देश से निकली अहिंसा की सीख भी विश्वव्यापी प्रभाव पैदा करेगी। ऐसे में कश्मीर ही क्या, दूसरी ढेरों समस्याएं भी आसानी से हल होंगी। वैसे यह ज़रूरी नहीं है कि भारत मारक तकनीकी में ही महारत हासिल करे, बल्कि वह अपने स्वभाव और संस्कृति के हिसाब से रक्षात्मक तकनीक की दिशा में भी अग्रणी होकर शक्तिशाली बन सकता है। इस इलेक्ट्रॉनिक युग में दुनिया भर के परमाणु हथियारों के सिस्टम को जाम कर देने की तकनीक विकसित करना कोई असंभव नहीं है। रूस वग़ैरह ने कुछ क़दम इस दिशा में बढ़ाए भी हैं। भारत के पास प्रतिभाओं की कमी नहीं है और वह अमरीका जैसे देशों के ख़तरनाक से ख़तरनाक हथियारों की काट ढूँढ़ने की दिशा में काम कर सकता है। यह स्थिति आएगी तो हर तरह की दादागीरी पर भी लगाम लगेगी। विज्ञान और तकनीकी के मौजूदा वर्चस्वकाल में तकनीक के मामले में पिछलग्गू बने रहना हमें हमेशा झुकने-समझौते करने पर ही मजबूर करेगा। हमारे नेता, जो इस देश को दुनिया का सिरमौर बनाने का सपना दिखाते रहते हैं, उन्हें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि सिरमौर बनने के लिए पहले शक्तिशाली बनने का पुरुषार्थ भी करना ही पड़ेगा। हमारे सीधे-सरल और शांत स्वभाव के मिसाइल मैन डॉ. अब्दुल कलाम अगर बार-बार भारत को शक्तिशाली बनाने की अपील करते रहते हैं तो दरअसल वे वर्चस्व क़ायम करने का असली मर्म समझते हैं। उनकी यह बात बिल्कुल दुरुस्त है कि-- 'जब तक भारत दुनिया का डटकर सामना नहीं करता, तब तक कोई हमारा सम्मान नहीं करेगा। इस संसार में भय का कोई स्थान नहीं है। शक्ति केवल शक्ति का ही सम्मान करती है। स्वयं को कभी तुच्छ और निस्सहाय नहीं समझना चाहिए। हम सभी अपने भीतर एक दिव्य अग्नि लेकर पैदा हुए हैं। हमारा प्रयास इस अग्नि को पंख देना और विश्व को अच्छाई की आभा प्रदान करना होना चाहिए।'

जेहाद से न खुलेंगे जन्नत के द्वार

चार दिन की चांदनी की तरह चार दिन की शांति और फिर धमाका! यह हिंदुस्तान की नियति बन गई है। क्या देश का कोई हिस्सा ऐसा बचा है जिसके बारे में कहा जा सके कि यहां आतंकवाद के नापाक कदम नहीं पड़ सकते। सच यही है कि कहीं भी कभी भी आतंकवादी हमले हो सकते हैं और दुखद यह है कि ऐसी प्राय: हर घटना के तार इस्लामी मान्यताओं से जुड़ जाते हैं या जोड़ दिए जाते हैं। मुस्लिम बुद्धिजीवी और विद्वान भी इस बात से चिंतित हैं कि फतवे, जेहाद और आतंकवाद जैसी चीजें इस्लाम की छवि खराब करने का काम कर रही हैं।
इस्लामी विद्वानों की चिंता जायज हो सकती है लेकिन, पूरी दुनिया के समाजों में अभिव्यक्ति के खुलेपन की लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं शुरू हो चुकने के बावजूद इस्लाम विरोधी एक बयान पर कुछ इस्लामिक संगठन जेहाद का ऐलान करते हुए यदि यह कहें कि - हम क्रास (सलीब) के अनुचर पोप को बताना चाहेंगे कि अपनी पराजय का इंतजार करो। निरंकुश शासको और काफिरो, तुम अपने किए के नतीजे देखने का इंतजार करो। हम क्रास को मिटा देंगे। तुम्हारे पास अब इस्लाम या मौत को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। तो इस तरह की प्रतिक्रियाओं से इस धारणा को ही बल मिलता है कि तलवार, बंदूक और बम की भाषा इस्लाम की फितरत में है।यह सब कहने का अर्थ यह भी नहीं है कि यहां हिंदू धर्म की वकालत की जा रही है, क्योंकि सर्वांग में हिंदू धर्म को भी कोई बहुत साफ-पाक नहीं माना जा सकता, बल्कि कई मायनों में यह अन्य कई धर्मों से कहीं ज्यादा वीभत्स है। चूंकि यहां बात हिंसक गतिविधियों के एक मुद्दे से है, इसलिए अन्य बातों की पड़ताल बहुत उचित नहीं है।
इस्लामी बुद्धिजीवियों को इस बात पर भी गंभीर चिंतन करना चाहिए कि इस्लाम मानने वालों के लिए आतंकवादी बनना आखिर इतना आसान क्यों है? एक बार आतंकवाद का जवाब देने के उद्देश्य से कुछ कट्टरवादी हिंदू संगठनों ने भी मानव बम तैयार करने की घोषणाएं की थीं, पर वे जरा भी सफल नहीं हुए। करोड़ों हिंदुओं में एक भी ऐसा नहीं तैयार हुआ जो धर्म के नाम पर मानव बम बनकर किसी हिंसक गतिविधि को अंजाम दे सके। किसी समस्या, तात्कालिक प्रतिक्रिया या स्वार्थ में हिंसा पर उतर आना एक अलग बात है, परंतु हिंसा हिंदुत्व के मूल चरित्र में नहीं है, इसलिए तमाम कोशिशों के बाद भी इसमें आतंकवादी संगठन नहीं चलाए जा सकते। स्पष्टत: धुर हिंदुत्व विरोधी भी यह आरोप नहीं लगा सकते कि हिंदुस्तान के कोने-कोने में हिंदू धर्म तलवार के जोर पर फैला। यूं हिंदू धर्म के विभिन्न संप्रदायों में भी छिटफुट कुछ संघर्षों का इतिहास ढूंढ़ा जा सकता है, पर ये संघर्ष किसी को जोर-जबरदस्ती अपने संप्रदाय में दीक्षित करने के लिए नहीं थे। यहां विभिन्न संप्रदायों के अस्तित्व के पीछे मूल वजह थी शास्त्रार्थ और वैचारिक रूप से एक जनसंवाद की स्वस्थ प्रक्रिया। यहां एक मूल मान्यता यह रही है कि - वादे-वादे जायते तत्वबोध:। क्या इस्लाम के विद्वान यह भरोसा दे सकते हैं कि उनके यहां मान्यताओं पर सवाल खड़े करने, संदेह करने या शास्त्रार्थ आयोजित करने की छूट है? यदि है तो फतवे और जेहाद की नौबत ही क्यों?
बहरहाल, इस्लाम के चंद बुद्धिजीवियों की चिंता पूरे इस्लामी जगत की चिंता बननी चाहिए और धर्म के झंडाबरदार सभी मुल्ले-मौलवियों को समझना चाहिए कि वे अपनी मजहबी छवि फतवों, जिदों और जेहाद की घोषणाओं से नहीं सुधार सकते। किसी समूह के बारे में धारणाएं और छवियां सामूहिक आचरण और लोक-व्यवहार का प्रतिफल हुआ करती हैं। वर्तमान का आचरण लोक-लुभावन हो तो अतीत के ढेर सारे पाप धुल जाते हैं और वर्तमान का आचरण समाज में नकारात्मक भाव पैदा करे तो पिछले ढेर सारे पुण्य बिसरा भी दिए जाते हैं। कहने का अर्थ यही है कि इस्लाम की छवि को साफ-पाक बनाना है तो उसके मानने वालों को अपने समुदाय के भीतर अन्य समुदायों के साथ एक स्वस्थ संवाद की स्थिति पैदा करनी होगी। आगे की सही राह चुनने के लिए तर्क-वितर्क और शास्त्रार्थ का सहज वातावरण बनाना होगा। यही तरीके हैं जो हिंसक गतिविधियों में भटक रहे लोगों को शेष समाज के प्रति सहज आचरण दे सकते हैं तथा फतवे और जेहाद की घोषणाएं मानवीय सेवा के उपक्रमों में बदल सकती हैं। सेवा एक ऐसा अहिंसक हथियार है जिसके सामने तलवारों की तेज धार भी बेकार हो जाती है। सेवा ऐसा आचरण है जो अकसर विरोधी को भी बगैर तर्क-वितर्क के ही अपना मुरीद बना लेता है। ईसाइयत के प्रचार में सेवा तत्व का बहुत बड़ा हाथ रहा है, भले ही इस सेवा में बहुत कुछ छद्म रहा हो।
दुर्भाग्य यह है कि इस्लाम के दामन में लगे दाग धोने के लिए मुल्ले-मौलवियों का एक बड़ा वर्ग हिंसा तक को जायज ठहराता है। उसकी समझ में यह नहीं आता कि आज आतंकवादी हिंसा इस्लामी मान्यताओं पर सबसे बदनुमा दाग है, तो ऐसी ही वजहों से। इस्लामी आतंकवाद का वर्तमान रूप जनसमस्याओं से हटकर सभ्यताओं के संघर्ष के निकट पहुंच चुका है, तो वह भी इन्हीं वजहों का प्रतिफल है। इस्लामी समुदाय के साथ एक मुश्किल यह भी है कि वह वर्तमान चुनौतियों का सामना करने के बजाय बंद समाज की वकालत करने लगता है। इस्लाम का दामन साफ-पाक देखने की इच्छा रखने वाले लोगों को सोचना चाहिए कि एक तरफ आप चांद-तारों की सैर के मंसूबे भी पालें और दूसरी तरफ बंद समाजों की दुनिया बनाना चाहें, तो यह अब संभव नहीं हो सकता। विज्ञान और तकनीक के रथ की सवारी जिस मुकाम तक पहुंचाती है, सही अर्थों में वहां धार्मिक समूहों, सांप्रदायिक जिदों या जातीय पहचानों के कोई मायने नहीं रह जाते। ऐसे में, दूसरे समुदायों से कटकर रहना या उन्हें काफिर करार देना मूर्खतापूर्ण सांप्रदायिक सनक के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। बात कड़वी लगे, पर सच यही है कि जन्नत में दाखिला बजरिए जेहाद किसी खुशनुमा ख्वाब से ज्यादा और कुछ नहीं है। बात यह भी है कि जेहादी अगर पूरी दुनिया के इस्लामीकरण में ही अमन की असली राह देख रहे हैं तो उन्हें सबसे पहले जिन देशों की व्यवस्थाएं इस्लाम के ही नाम पर चलाई जा रही हैं उन पर ही गौर कर लेना चाहिए। इतने पर भी आंखें न खुलें तो यह बंद दिमाग और बीमार मानसिकता की ही पहचान हो सकती है।
वैसे, इस्लाम के कुछ विद्वान अगर यह सोचते हैं कि आतंकवादी हिंसा का आरोप पूरे मुस्लिम समुदाय पर नहीं लगाया जा सकता, तो उनका ऐसा सोचना भी एकदम से अनुचित नहीं है। बल्कि, आतंकवादी गतिविधियों में सिर्फ इने-गिने गुट ही सक्रिय हैं। लेकिन इस आधार पर मुस्लिम समुदाय एकदम दोषमुक्त भी नहीं हो जाता, क्योंकि आतंकवादियों की हरकतों के पीछे उनका निजी स्वार्थ नहीं, बल्कि एक खास किस्म की वैचारिक ऊर्जा है और यह ऊर्जा उन्हें इस्लाम की मान्यताओं से ही मिल रही है, कहीं बाहर से नहीं। सिर्फ यह कहकर छुटकारा नहीं पाया जा सकता कि आतंकवादी हिंसा सिर्फ कुछ सिरफिरे या बहके हुए लोगों का काम है। पूरी दुनिया में इस्लाम के नाम पर हो रही आतंकवादी गतिविधियां इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि इस्लाम की पूरी विचारधारा में कहीं ऐसा कुछ जरूर है जिसे इस तरह की हिंसा के लिए आसानी से आधार बनाया जा सकता है।
इस्लामी विद्वानों को अगर लगता है कि आतंकवादी गुट इस्लाम की बेजा व्याख्याएं करके अपना निहित स्वार्थ साध रहे हैं तो उन्हें पूरे तेवर के साथ इस्लाम की मानवीय व्याख्याओं को सामने लाना चाहिए और अपने समुदाय में फैले वैचारिक भ्रमों को दूर करने की मुहिम चलानी चाहिए। हिंसक गतिविधियों के लिए वैचारिक आधार नहीं रहेगा तो कोई ओसामा बिन लादेन अपनी किसी सनक के लिए किसी धर्मप्राण आम आदमी को बरगला भी नहीं सकेगा। मुल्ले-मौलवियों को यह भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि - इस्लाम तलवार के बल पर फैला - जैसे आरोप का जवाब हिंसा को उकसाने वाले फतवों से नहीं, दया-करुणा-सेवा के उपक्रमों से ही दिया जा सकता है। सही यही है कि जेहाद नहीं, सेवा के बल से ही खुलेंगे जन्नत के द्वार और वे भी, इस संसार के पार किसी काल्पनिक मजहबी खयालों के नहीं, बल्कि इसी धरती पर सुकून से रहने के काबिल बेहतर दुनिया के रूप में। और असल में, यह बात सिर्फ इस्लाम पर ही नहीं, अन्य धर्मों पर भी किसी न किसी कोण से लागू होती है, क्योंकि प्राय: हर धर्म के इतिहास में कुछ न कुछ रक्तरंजित पन्ने मिल ही जाएंगे। यहीं पर यह भी स्पष्ट कर देने की ज़रूरत है कि जिस अर्थ में जेहाद (जिहाद) आजकल चर्चा में है, वह वास्तव में सिर्फ़ वैसा ही नहीं है। जेहाद की एक सकारात्मक व्याख्या भी है, जो अहिंसा-वृत्ति के इर्द-गिर्द पहुँचती है। और शायद, इस्लाम को अब ऐसी ही व्याख्याओं की ज़रूरत है।

भाषाई अराजकता के अपराधी

'शब्द-ब्रह्म' - जी नहीं, 'शब्द-शैतान'! आज का मीडिया जैसी भाषा बना-बरत रहा है, उसे देखते हुए ऐसा ही कुछ कहना पड़ेगा। वाक्य संरचना की आधार-ईंट, या कहें अभिव्यक्ति के मूल माध्यम (भाषा) के मूलाधार 'शब्द' गढ़े तो जाने चाहिए अपने समाज की ज़रूरतों, आकाङ्क्षाओं और सांस्कृतिक विशेषताओं के अनुरूप, लेकिन आज के दौर में वे मीडिया के अराजक व्यवहार के उच्छृङ्खल प्रक्षेप के एक उलट-रूप में हमारे सामने आ रहे हैं। इस तरह, जो भाषा आकार ले रही है वह संवेदनहीन है, उसमें अभिव्यक्ति का उथलापन है और सबसे चिन्ताजनक यह कि वह एक ऐसे भावी समाज का आतङ्क बुन रही है जो अपने समूचे अस्तित्व में 'सांस्कृतिक बन्दर' की नियति भोगने को अभिशप्त होगा।
मीडिया का तो यह दायित्व होना चाहिए था कि अन्तरजाल (इण्टरनेट) के व्यापक सम्भावनाओं वाले इस समय में अपने ही बल पर जैसे-तैसे आगे बढ़ती हमारी हिन्दी का वह कोई सर्वस्वीकृत मानक रूप तैयार करने का अभियान चलाता, ताकि दुनिया की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि से समृध्द इस भाषा की वैश्विक पहचान और आसान बनती; लेकिन दुर्भाग्य कि मीडिया बाज़ार के स्वार्थों के साथ गलबहियाँ करते हुए हिन्दी की हत्या की साज़िश में शामिल हो गया है। यह मीडिया का ही कमाल है कि हिन्दी के माई-बाप की जगह पर, अपने देश की आबोहवा में पली-बढ़ी तमाम भाषाओं और बोलियों के बजाय, अब औपनिवेशिक दम्भ और आतङ्क की प्रतीक अङ्ग्रेजी बैठती जा रही है।
ऐसा नहीं है कि हिन्दी के लिए अङ्ग्रेजी पहले एकदम अछूत रही है। सच तो यह है कि हिन्दी ने डॉक्टर, मशीन, मोटर, बस, जीप, सिगरेट, ऑपरेशन, स्कूल, कालेज, कम्पनी, पोस्टकार्ड, पोस्ट ऑफिस, क्रीम, बिस्कुट, ब्रश, लिपिस्टिक जैसे तीन हजार से भी ज्यादा अङ्ग्रेजी शब्दों को अपने रोज़मर्रा के व्यवहार की शब्दावली में शामिल कर अपना बना लिया है और बनाती भी जा रही है। लेकिन, हिन्दी का मूल स्वभाव देखें तो इसके असल सगे-सम्बन्धी तो यहाँ के माहौल में पनपी भाषाएँ-बोलियाँ ही हो सकती हैं, जबकि अङ्ग्रेजी की जगह दूर के रिश्तेदार से ज्यादा की नहीं बनती। जो लोग हिन्दी का हाजमा अङ्ग्रेजी से कमज़ोर समझते हैं, वे भ्रम में हैं और हिन्दी का हाजमा बढ़ाने के चक्कर में उसकी सेहत बरबाद कर रहे हैं। ज़रा 'हिन्दुस्तान' अख़बार के 'रीमिक्स' परिशिष्ट में छपे ये वाक्य पढ़िए-
''ज्यादातर युवतियों को रोज़ एक ही टेंशन रहती है कि रोज़-रोज़ क्या ड्रेस पहनें और क्या न पहने। ऐसा क्या पहनें जो हमें आकर्षक लुक देने के साथ-साथ कम्फर्टेबल भी लगे। स्ट्रेप टॉप गर्मियों में काफ़ी हद तक आपकी इस समस्या का समाधान कर सकता है। यह लड़कियों के लिए काफ़ी आरामदायक है और सभी प्रकार की पर्सनेलिटी में निखार लाता है। चाहे आप मोटी हों या पतली, यह सभी तरह की पर्सनेलिटी को कूल लुक देगा। स्ट्रेप टॉप में आज जितनी वैरायटी मार्केट में मौजूद है, इतनी पहले कभी नहीं थी।''
क्या इस भाषा में सम्प्रेषण शक्ति ज्यादा है? अव्वल तो ऐसी भाषा में किसी गम्भीर विमर्श की बात ही बेमानी है। और यहीं पर, इस साज़िश की भी पहचान की जा सकती है कि बाज़ार, जिसके ही इशारों पर हिन्दी की हिङ्ग्रेजी या हिङ्गलिश बनाई जा रही है, वह चाहता ही नहीं है कि समाज किसी गम्भीर विमर्श की बात कभी सोचे। बाज़ार को चाहिए उपभोक्ता; और वह भी ज्यादातर ग़ैरज़रूरी चीज़ों का। ऐसा उपभोक्ता 'खाओ-पियो मौज उड़ाओ' की मानसिकता से बनता है। उपभोक्तावादी प्रवृत्ति की अनिवार्य शर्त है कि विवेक कमज़ोर पड़े, संस्कार बिगड़ें। और, संस्कार बिगाड़ने के तमाम औज़ारों में से एक यह भी है कि आदमी की बोल-बात बिगड़ जाए तो संस्कार भी बिगड़ने ही लगते हैं। इसीलिए बाज़ार की ताक़तें हमारी बोल-बात यानी हमारी भाषा बिगाड़ने की मुहिम सी चलाए हुए हैं। इस सन्दर्भ में जाने-अनजाने मीडिया बाज़ार के हाथ की कठपुतली बन गया है। इस तरह, भाषा बनाने-बिगाड़ने का पूरा खेल ही मीडिया की कप्तानी में खेला जा रहा है और इस खेल का प्रायोजक बाज़ार नेपथ्य में बैठा नतीजे भुनाने के असल खेल में मशगूल है। किसी ज़माने में भाषा संस्कार का दारोमदार परिवार, समाज और पाठशाला पर हुआ करता था। गुरूजी-मास्साहब (मास्टर साहब) का सिखाया-बताया भाषा-ज्ञान ही हमारे जैसे लोगों की अभिव्यक्ति का सहारा बना। लेकिन अब सबका स्थानापन्न मीडिया है। 'मास्साहब' भी संस्कार मीडिया से ही ग्रहण कर रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो आमजन के दिलो-दिमाग़ में ग़ज़ब की ही घुसपैठ कर ली है और जैसी भाषा वह दिन-रात हमें सिखा रहा है, वह भी 'भाषा के साथ बलात्कार' से कम नहीं है। चैनलिया हिन्दी का हाल देखना हो तो स्क्रीन पर चलती हुई समाचार पट्टियाँ पढ़िए। 'इराक के इण्टेरिम प्रधानमन्त्री मिस्टर चेलाबी ने यूएन के अध्यक्ष से अधिक ग्राण्ट की माँग की है', 'गेहँ एक हफ्ते लॉस पर बन्द हुआ' - जैसे वाक्य समाचार वाचकों की ज़ुबान से इतनी सङ्ख्या में सुनाई देंगे कि आप गिनते हुए थक जाएँगे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विज्ञापनों की हिन्दी तो ख़ैर जैसे अङ्ग्रेजी टकसाल में ही ढलकर निकलती है। क्या बच्चे, क्या बूढ़े, हर घर में मौजूद टेलीविजन के सैकड़ों चैनल दिन-रात चीख-चीखकर सबको ही अपना भाषा-ज्ञान बाँटने में लगे हैं। नई पीढ़ी के नौनिहालों का तो 'होमवर्क' तक टेलीविजन के सामने हो रहा है, फिर वे बेचारे संस्कार लेने और कहाँ जाएँ!
भाषा के साथ नवाचार में इलेक्ट्रॉनिक और प्रिण्ट दोनों ही जैसे होड़ कर रहे हैं। प्रिण्ट मीडिया की बात करें तो क़रीब सात साल पहले 'नवभारत टाइम्स' ने अपने समाचारों में अङ्ग्रेजी शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल शुरू किया था। शीर्षकों में काफ़ी सङ्ख्या में अङ्ग्रेजी शब्द प्रयोग किए जाने लगे। देखा-देखी अन्य अख़बारों ने भी भाषा-क्रान्ति की यह राह पकड़ ली। इस क्रान्ति में शहीद होने के जोख़िम जैसी कोई बात थी नहीं, तो बड़े-बड़े भाषा-वीर पैदा हो गए। इस क्रान्ति की वाहवाही लूटने के लिए 'नवभारत टाइम्स' ने बाक़ायदा हिङ्ग्रेजी की वकालत में नए भारत की 'लैङ्ग्वेज' के युगद्रष्टा भाव से लेख (13 नवम्बर-2006) तक छापा। यह सब शुरू हुआ सरलता, सहजता, सम्प्रेषणीयता और नए युग की नब्ज़ पहचानने के नाम पर। लेकिन सचमुच क्या ऐसा है? ज़रा कुछ शीर्षकों के नमूने देखें।
1- स्ट्रेपटाप का स्टाइलिश लुक
2- छात्रसंघ पोल में नो पॉलिटिक्स
3- रीयल लाइफ सिस्टर को मिला रीयल ब्रदर
4- कॉटन को ऐसे करें कैरी
5- मैटेलिक मेकअप में ऐसे करे ट्राई
6- आर यू स्मार्ट!
7- रेडी फॉर टफ ट्रैक
8- समरनाइट्स में मिडनाइट मज़ा
9- पे बढ़ने के बाद बढ़ सकती है महँगाई
10-सुपरस्टार चिरंजीवी की पॉलिटिक्स में एंट्री
क्या सचमुच ये शीर्षक हिन्दी को ज्यादा बोधगम्य और बेहतर बनाते हैं या हिन्दी की मूल पहचान को ही मिटाने का काम करते हैं? क्या सम्प्रेषणीयता और सरलता के नाम इस तरह अङ्ग्रेजी शब्दों का अविवेकपूर्ण इस्तेमाल किया जा सकता है। 'शटरडे शॉपिंग', 'फ्रूट फैक्टायड', 'ब्यूटी टिप्स', 'गोडिजिटल', 'थीम स्टोरी', 'हेल्थ ख़बरें', 'फिटनेस फंडा', 'यूथ गैलरी', 'फर्स्ट पर्सन', 'फ्यूचर जोन', 'रीयल बाइट्स' जैसे स्तम्भ क्या हिन्दी को समृध्द करते हैं? 'हिन्दुस्तान' अख़बार ने अपने परिशिष्टों के 'फेस्ट', 'मेट्रो रीमिक्स' जैसे नाम रखे हैं, यह मानकर कि ये शब्द अब आमफ़हम हो चुके हैं। लेकिन बात तो यह है कि 'हिन्दुस्तान' के पाठकों से ही इन शब्दों के मायने पूछे गए तो ज्यादातर अचकचा गए। कई पाठकों ने साफ़ कहा कि वे इस वजह से अख़बार नहीं ख़रीदते कि इसमें हिङ्ग्रेजी का प्रयोग हो रहा है। वे तो यह भी कहते हैं कि दिखावे के चक्कर में बोलचाल में भले लोग अङ्ग्रेजी की छौंक लगाएं, पर पढ़ने में तो खिचड़ी भाषा अटपटी ही लगती है और इस वजह से अख़बार की विश्वसनीयता भी कम होती है। आगत को सूँघ लेने का दम भरने वाले 'नवभारत टाइम्स' को भी समझ लेना चाहिए कि उसकी हिङ्ग्रेजी ने उसकी विश्वसनीयता और लोकप्रियता बढ़ाई नहीं है, बल्कि उसे हास्यास्पद ही बनाया है। सनद रहे कि कभी के सबसे आगे रहने वाले इस अख़बार से अब ढेर सारे दूसरे अख़बार काफ़ी आगे निकल चुके हैं।
दरअसल, भाषा के इस तरह के बदलावों के लिए बदलाव की सहज, स्वाभाविक प्रक्रिया का तर्क देने के पीछे छद्म है। भाषा समय के प्रवाह में सहजता से अनायास ही नहीं बदल रही है, बल्कि सायास बदली जा रही है। शोर मचा-मचाकर सबके दिलों में यह बैठाने की कोशिश हो रही है कि यह सब समय के प्रवाह में हो रहा है। इस बदलाव में हिन्दी में रच-बस गए अङ्ग्रेजी के शब्दों को कवच बनाया जा रहा है। प्रचलित शब्दों के बीच अप्रचलित शब्द घुसाकर उन्हें प्रचारित किया जा रहा है। दरअसल, निहित स्वार्थों के प्रक्षेप इसी तरह प्रचार पाते हैं और धीरे-धीरे अनपेक्षित होते हुए भी जीवन व्यवहार का अङ्ग बन जाते हैं। अब, हर व्यक्ति अपना ख़ुद का अख़बार तो निकाल नहीं सकता, इसलिए सामने जो कुछ आएगा उसे उसको पढ़ना ही है और पढ़े का संस्कार भी उसके मानस पर पड़ना ही है। इस बदलाव में इस संस्कार का कुप्रभाव ही है कि अब लोग 'मेरे सिर में हेडेक है', 'आगे का फ्यूचर ख़राब है', आज सबेरे मॉर्निङ्ग में ही तो मिले थे' जैसे हास्यास्पद वाक्य बोलते हुए ज़रा भी नहीं सोचते। चिन्ताजनक बात यह है कि हिन्दी का जैसे-जैसे हिङ्ग्रेजीकरण हो रहा है, वैसे-वैसे बोलियों के शब्द ग़ायब होते जा रहे हैं, जबकि हिन्दी के असली खाद-पानी तो बोलियों से निकले और देशज शब्द ही हैं। हिङ्ग्रेजी के झण्डाबरदारों को कौन बताए कि खटिया, मचिया, गोनरी, भेली, भदेली, भउरी, जाँता, काँड़ी, सिल-लोढ़ा बोलियों के सिर्फ़ सञ्ज्ञावाचक शब्द ही नहीं है, बल्कि एक पूरी तहज़ीब का प्रतिनिधित्व करते हैं।
ऐसा नहीं है कि हिन्दी में बाहरी शब्द कम हैं। भरमार है उनकी। वे ज़रूरत के हिसाब से इक्का-दुक्का होकर आए, घुले-मिले और रच-बस गए। उर्दू के ज़रिए अरबी, फ़ारसी के अनगिन शब्द हिन्दुस्तान के माहौल में घुले-मिले तो हिन्दी ने उन्हें अपना शृङ्गार ही बना लिया। लिपि की बाड़ बीच में न रहे तो सामान्य हिन्दी और उर्दू में तो अन्तर करना भी मुश्किल हो जाए। लेकिन, हिङ्ग्रेजी या हिङ्गलिशीकरण तो भाषाई आक्रमण है। मीडिया शब्दों की ज़रूरत बग़ैर पहचाने हिन्दी में उन्हें ज़बरदस्ती ठेल रहा है, थोप रहा है। अङ्ग्रेजी शब्दों में ही बेहतर अभिव्यक्ति-सामर्थ्य और सम्प्रेषण-शक्ति देखने वालों को एक बार यह भी देख लेना चाहिए कि हिन्दी ने आकाशवाणी, वायुयान, हवाईअड्डा, दूरदर्शन, जलवायु, प्रवक्ता, रेखाचित्र, नगरपालिका, समाचार-पत्र, पत्रकार, पत्राचार और सम्पादकीय जैसे सैकड़ों सुन्दर शब्द सृजित किए हैं। इच्छाशक्ति और सङ्कल्प हो तो दूसरे तमाम अङ्ग्रेजी शब्दों के भी हिन्दी में ज्यादा बेहतर विकल्प तैयार किए जा सकते हैं।
वास्तव में भाषा को भ्रष्ट करने के पीछे मुख्य ताक़तें दो हैं। एक है, मालिकों का वर्ग, जो बाज़ार में अपनी पहुँच पक्की करने की सनक में इस तरह के निर्देश देता है जिन्हें न चाहते भी लागू करना मीडिया संस्थानों की मजबूरी होती है; और दूसरा है, सम्पादकों का वर्ग, जिसमें ज्यादातर का लेना-देना अब सम्पादकी से कम प्रबन्धकी से ज्यादा है। अब के अधिकतर सम्पादकों में वैसे भी भाषा संस्कार दयनीय है, लेकिन जो सम्पादक की कुर्सी पर पहुँच गए हैं उन्हें उनके आत्मभ्रम से कौन उबारे। ऐसे अधकचरे भाषा-ज्ञान वाले सम्पादकों की सनक ने हिन्दी का ज्यादा नुक़सान किया है। साफ़-सुथरी हिन्दी के प्रति ईमानदारी से चिन्ता करने वाले इक्के-दुक्के सम्पादकों को छोड़ दें, तो जब जिन सम्पादकों की हम हिन्दी की वर्तमान पत्रकारिता के शिखर पुरुषों में गिनती करते हैं, उनका ही भाषा-ज्ञान आश्वस्त नहीं करता, तो ऐरे-गैरों का कहना ही क्या? मैं यहाँ नाम नहीं लेना चाहता, क्योंकि इससे एक नया विवाद खड़ा हो सकता है, लेकिन एक बड़े सम्पादक, जिन्हें मैं भी कम से कम वैचारिक प्रतिबध्दता को लेकर कई मामलों में आदर्श जैसा ही मानता हूँ, की भाषाई लापरवाही का हाल देखिए कि वे अपने हस्तलेख में 'अन्तर्आत्मा' ('र्' के बजाय 'आ' के ऊपर रेफ लगा हुआ समझें। युनीकोड में 'आ' के ऊपर रेफ लगाकर दिखाना संभव नहीं है।) लिखना चाहते हैं, पर हमेशा लिखते हैं 'अर्न्तआत्मा'। वे 'वेश्या' को 'वैश्या' लिखते हैं; जबकि 'वेश्या' का मतलब है 'धन लेकर समागम कराने वाली स्त्री' और 'वैश्या' का अर्थ है 'वैश्य (चार वर्णों में एक) की स्त्री'। प्रवाहपूर्ण भाषा के बावजूद उनके लेखों में स्त्रीलिङ्ग और पुल्लिङ्ग की अकसर अराजकता दिखाई दे जाती है। ज़ाहिर है कि नई पीढ़ी इन्हीं बड़े-बुज़ुर्गों के प्रयोगों को मानक मानकर आगे बढ़े तो दो-चार दशक बाद भाषा को लेकर बड़े-बड़े अनर्थ दिखाई देंगे। एक पत्रिका के सम्पादक महोदय 'नेतागिरी', 'गाँधीगिरी' को वर्तनी के लिहाज़ से सही शब्द समझते थे और 'नेतागीरी', 'गाँधीगीरी' को ग़लत। जब मैंने उन्हें ध्यान दिलाया कि 'गिरी' का मतलब होता है गुठली, बीज; उदाहरण के लिए 'बादाम की गिरी' और 'गीरी' का अर्थ है 'धन्धा', 'पेशा' - जिस अर्थ में 'नेतागीरी' जैसे शब्द हम बोलते हैं - तो वे बेचारे खिसिया से गए और उन्हें अपनी ग़लती माननी पड़ी। तमाम सफल और नामी-गिरामी पत्रकारों की दशा यह है कि उन्हें नहीं मालूम कि वर्णमाला में 'श्र' (इसे बीच वाली तिरछी डंडी हटाकर पढ़ें, क्योंकि यूनीकोड में बिना डंडी के 'श्र' नहीं बन पाता।) वर्ण की जगह कहाँ है। वे नहीं जानते कि 'श' ही 'श्र' (बिना डंडी के) है। इसी अज्ञानता की वजह से प्राय: लोग 'श्रृंगार' धड़ल्ले से लिखते हैं। जाहिर है, इस अज्ञान के शिकार हिन्दी यूनीकोड विकसित करने वाले लोग भी हैं, अन्यथा 'श्र' को शुध्द रूप में बिना बीच वाली डंडी के भी बनाते। रेफ के साथ 'श्र' लिखना तो कुछ वैसा ही है, जैसे कि हम 'क्र' 'प्र' 'त्र' वगैरह लिखते हैं। इसी तरह अकसर 'ध्द', 'द्व' में 'ध', 'व' को हल् समझ लिया जाता है, जबकि हल् है 'द्'। 'हिन्दुस्तान' अख़बार की इस बात के लिए ज़रूर तारीफ़ की जानी चाहिए कि वह अपने लिए एक मानक वर्तनी बनाने की दिशा में गम्भीरता से काम कर रहा है। देश के सारे अख़बार ही इस दिशा में एक-दूसरे के साथ समन्वय स्थापित करते हुए कुछ कर सकें, तो हिन्दी का सचमुच बहुत भला हो सकता है।
प्रिण्ट मीडिया ने सबसे बड़ा अनर्थ किया है चन्द्रबिन्दु ( ँ ) की जगह बिन्दु ( ं ) का प्रयोग प्रचारित करके। अनुनासिक और अनुस्वार के ये चिह्न बिल्कुल भिन्न व्याकरणिक ज़रूरतें हैं। यदि हर कहीं बिन्दु ही इस्तेमाल हो तो सँवार-संवार, हँस-हंस, स्वाङ्ग (स्व+अङ्ग)-स्वाँग जैसे तमाम शब्दों में अन्तर करना मुश्किल हो जाएगा। चन्द्रबिन्दु के ख़त्म होने से हिन्दी के वैश्विक प्रचार में भी बहुत बड़ी बाधा पैदा हो जाएगी। जिसकी हिन्दी की पृष्ठभूमि न होगी उसके लिए तो बिन्दु लगे हज़ारों-हज़ार शब्दों का उच्चारण अलग-अलग ही रटना पड़ेगा। और तब, हम गर्व से यह भी नहीं कह सकेंगे कि देवनागरी में जो लिखा जाता है वही बोला भी जाता है; या कि यह दुनिया की सबसे वैज्ञानिक लिपि है। इस सन्दर्भ में हिन्दी दैनिक 'हिन्दुस्तान' की ज़रूर प्रशंसा की जानी चाहिए कि उसने चन्द्रबिन्दु के शुध्द प्रयोग को पुन: प्रचारित करना शुरू किया है। अच्छी बात है कि वह अपने लिए मानक वर्तनी निर्धारित करने का काम भी गम्भीरता से कर रहा है।
इसी तरह पूर्णविराम के लिए खड़ी पाई ( । ) की जगह पर अङ्ग्रेजी फुलस्टाप के बिन्दु ( . ) का प्रयोग भी, जो 'इण्डिया टुडे', 'सरिता', 'मुक्ता', 'हंस' जैसी कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में किया जा रहा है, हिन्दी की प्रकृति से मेल नहीं खाता। हिन्दी में अङ्ग्रेजी की तरह वाक्य की शुरुआत 'कैपिटल लेटर' से नहीं होती। इसके अलावा हिन्दी में विसर्ग ( : ) और नुक्ते ( . ) के प्रयोग के चलते पूर्णविराम के रूप में बिन्दु का प्रयोग भ्रामक स्थितियाँ पैदा करेगा और देवनागरी की वैज्ञानिकता पर भी ग्रहण लगाने का ही काम करेगा। यह भी आश्चर्य की ही बात है कि अपने ढाई हज़ार चिह्ननुमा अक्षरों के साथ चीनी भाषा निरन्तर विकसित हो रही है, जापानी की चित्रात्मक लिपि भी जापानियों को परेशान नहीं करती, पर हिन्दी की वैज्ञानिकता बचाए रखने भर को सिर्फ इने-गिने वर्णों-शब्दों का शुध्द इस्तेमाल भी हमारे मीडिया महारथियों को बोझ लग रहा है। आश्चर्य यह भी है कि ये ही लोग अङ्ग्रेजी में हिज्जे की एकाध ग़लती से भी उद्विग्न हो उठते हैं, पर हिन्दी में घोर अराजकता भी इन्हें परेशान नहीं करती। टीवी चैनलों और अख़बारों-पत्रिकाओं से भले तो 'अन्तरजाल' (इण्टरनेट) के चिट्ठे (ब्लॉग) हैं, जहाँ चिट्ठाकारी कर रहे नवसिखुवे तक टूटी-फूटी और काफ़ी हद तक अराजक क़िस्म की हिन्दी लिखते हुए भी निरन्तर भाषा-सुधार का अभियान-सा चलाए हुए हैं और हिन्दी के अनुकूल तकनीकी सुधार भी कर रहे हैं।
दरअसल, हमारे रोज़मर्रा के आम व्यवहार में कोई परेशानी खड़ी नहीं होती, इसलिए हमें शायद भ्रष्ट हो रही भाषा का सवाल उद्वेलित नहीं करता; लेकिन है यह गम्भीर मसला। मीडिया सिर्फ़ भाषा को ही भ्रष्ट नहीं कर रहा, बल्कि वह इस बहाने समाज को भी ग़ैरज़िम्मेदारी और उच्छृङ्खलता का पाठ पढ़ा रहा है। भाषा का सवाल सिर्फ अभिव्यक्ति के एक औज़ार भर से नहीं, बल्कि एक जीवन्त समाज की सांस्कृतिक अस्मिता से भी जुड़ा है। इसलिए, हिन्दी मीडिया को अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी पहचानते हुए अपनी भाषा के प्रति भी एक सचेत दृष्टि अपनानी ही चाहिए, राष्ट्रहित इसी में है।