शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

इस प्यार को विस्तार दो (1)

प्रेम क्या है - एक विशिष्ट आकर्षण। यह उथला भी हो सकता है और गहरा भी। इस आकर्षण की अदृश्य डोर में ही सारी सृष्टि बंधी है। ब्रह्मांड का एक भी अणु-परमाणु इसकी परिधि से बाहर नहीं है। जीव जगत् में प्रवेश करें तो इस आकर्षण का जीवंत रूप दिखने लगता है, इसमें चेतना प्रवहमान होने लगती है; और, मानवी संदर्भ लें तो इसमें भाव जुड़ जाते हैं, यह सही अर्थों में प्रेम बन जाता है। पर, प्रेम को परिभाषित कर पाना क्या इतना आसान है? इतने चेहरे हैं इस ढाई आखर के कि यह हर व्याख्या हर परिभाषा की बाड़ तोड़ स्वच्छंद विचरता ही दिखाई देता है। उफनती नदी, हहराते समंदर को सीमाओं की फिक्र भला कहां हो सकती है। प्रेम भी कुछ-कुछ ऐसा ही है। एक तरफ यह है, 'प्रेम कौ पंथ कराल महा तलवार के धार पर ध्याइबो है' - तो दूसरी तरफ, 'अति सूधो प्रेम को मारग है, जहां नैकु सयानप बांक नहीं'। इस देश में सूर, कबीर, मीरा, रसखान, जायसी, बोधा, घनानंद, मतिराम, तुलसी, देव, बिहारी; और परदेश में शेक्सपीयर के नाटकों से लेकर चीन के फु सुंग लिंग की कथाओं और 'काली बतख गायन दल' के लाल बेरी के फूल खिलाने तक में प्रेम के ही नाना रूप दिखाई देते हैं।

जैसा देश, प्रेम का वैसा वेश। इतना अथाह इतने रंग कि कोई जितना चाहे जिस रूप में चाहे, भर ले अपनी हृदयस्थली में। माता-पिता, गुरु-शिष्य, भाई-बहन, पति-पत्नी से लेकर प्रेमी-प्रेमिका तक के अन्यान्य रिश्तों में यह प्रेम-प्यार ही नाना रूपों में अभिव्यक्त होता है। श्रध्दा, भक्ति, अनुराग, विराग, वात्सल्य, स्नेह, रति, करुणा, दया, उदारता सबकी डोर का मूल तंतु यही है। प्रिय का भाव जहां है, प्रेम-प्यार वहीं है। यह बात अलग है कि यौवन के द्वार पर जिस प्यार की मनुहार इस संसार में हम देखते हैं, चहुंओर प्रसिध्दि ज्यादा उसी की है। हो भी क्यों न, आखिर नायक-नायिका के मिलन में जिस प्रेम का प्रस्फुटन होता है, वही तो इस सृष्टि का असली संचालक तत्तव है। बसंत के फूलों की खिलखिलाहट में प्रकृति भी कुछ ऐसा ही संदेश देती है। इतना मादक है यह प्रेम कि इसके मदहोशों की कथाओं से इतिहास के जाने कितने पन्ने भर गए हैं। लैला-मजनूं, सलीम-अनारकली, हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल, रूपमती-बाज बहादुर, ढोला-मारू, शीरीं-फरहाद की ऐसी ही प्रेम-कहानियां हैं, जो देह और आत्मा का तल बराबर कर देती हैं। भारतीय पुराणों की तरफ निगाह दौड़ाएं तो राधा-कृष्ण का उदात्ता प्रेम कौन नहीं जानता। शकुंतला-दुष्यंत की कहानी भी इसी प्रेम से पगी है। सावित्री-सत्यवान भी प्रेम और समर्पण की जीत की एक दास्तान ही हैं।

अलबत्ता, प्रेम हमेशा मर्यादित ही रहा हो, ऐसा भी नहीं है। यह उच्छृंखल भी हुआ है। और, इस उच्छृंखलता के ही भय से बार-बार इसे जंजीरों में बांधने की कोशिश भी हुई है, इस पर पहरे बैठाए गए हैं; पर बरसने की बेला हो तो पानी से भरे बादल को कौन थाम सका है। विद्रोही प्रेम ने प्राण की भी परवाह नहीं की कभी। लैला-मजनूं जैसी कथाएं इसी राह पर चल कालजयी बनी हैं। रोम के राजा क्लोडियस द्वितीय ने शादी और प्रेमियों के मिलन पर पाबंदी लगाई तो प्रेम पुजारी संत वैलेंटाइन ने छुप-छुपकर शादियां कराईं और प्रेमी-मिलन का जैसे अभियान ही चला दिया। वैलेंटाइन को इस गुस्ताखी के लिए 14 फरवरी 269 ईस्वी को सजाए मौत दी गई, पर इस संत का संदेश ऐसा फैला कि यह दिन 'वैलेंटाइन डे' के रूप में पश्चिम के लिए हर साल का 'प्रेम दिवस' ही बन गया। अब तो यह भौगोलिक सीमाएं लांघ सार्वदेशिक-सा ही हो चला है। यह जरूर है कि प्रेम के इस तरल प्रवाह में बहुत कुछ व्यापार का स्वार्थ भी शामिल हो गया है। बल्कि, भारत में तो इसका प्रचार बजरिए बाजार ही हुआ है। वैसे भी बाजार हर मौके का फायदा उठाने की फिराक में रहता ही है, सो युवा पीढ़ी की नब्ज पर हाथ धरने का इस प्रेम पर्व से अच्छा मौका और क्या हो सकता है?

बहरहाल, व्यापार-बाजार, स्वार्थ-परार्थ, दैहिक-आत्मिक जिस भी रूप में देखना चाहें, प्रेम पर्व की मौजूदगी तमाम देशों में दिख जाएगी। यूरोप से लेकर दक्षिण-मध्य अमेरिका, एशिया और मध्य-पूर्व तक किसी न किसी रूप में प्रेम पर्व मनाया ही जाता है। फ्रांस में 'सेंट वैलेंटाइन', डेनमार्क और नार्वे में 'वैलेंटाइन्स डैग', स्वीडन में 'अला झारटैंस डैग' यानी 'आल हर्ट्स डे', फिनलैंड में 'वाइस्तावैन प्कूवा' यानी 'फ्रेंड्स डे', इस्टोनिया में 'सोब्रा पावा', स्लोवेनिया में 'सेंट ग्रेगोरी डे', रोमानिया में 'ड्रैगोबेट', टर्की में 'सेवजिलिलर गुनु' यानी 'स्वीट हर्ट', ग्वाटेमाला में 'दिया देल एमोर वाई ला एमिस्टेड' यानी 'डे आफ लव एंड फ्रेंडशिप', ब्राजील में 'डियाडास नामो रोडेस', दक्षिणी अमेरिका के ज्यादातर हिस्सों में 'लव एंड फ्रेंडशिप डे', जापान में वैलेंटाइन के साथ 'व्हाइट डे', कोरिया में जनवरी से दिसंबर तक हर 14 तारीख को 'ब्लैक डे', 'पेपिरो डे', 'कैंडिल डे', 'वैलेंटाइन डे', 'रोज डे', 'सिल्वर डे', 'ग्रीन डे', 'म्यूजिक डे', 'वाइन डे', 'मूवी डे' और 'हग डे', चीन में 'किंग रेन झी', ईरान में 'सेपानडार मेज्गान' जैसे पर्व वैलेंटाइन डे के ही अलग-अलग रूप दिखते हैं। सऊदी अरब तक में तमाम पाबंदियों के बावजूद प्रेमी जोड़े वैलेंटाइन मनाने से अब कहां मानते हैं! हिंदुस्तान में भी वैलेंटाइन डे के खिलाफ धार्मिक-सामाजिक संगठनों की तरफ से अक्सर फतवे जारी किए जाते हैं, पर युवाओं पर असर कुछ भी नहीं होता। उल्टे, प्रतिक्रिया में यह और प्रचारित ही होता है।

उच्छृंखलता बढ़ने के जिस तर्क पर 'वैलेंटाइन डे' का विरोध होता है, सही कहें तो वह तर्क एकदम से बेदम भी नहीं है; पर दुर्भाग्य कि ये फतवे भी कोई कम उच्छृंखल नहीं होते। प्रेमी जोड़ों पर डंडे बरसाने की कोशिश होती है, जबरदस्ती उन्हें रोका जाता है। ऐसे में भला क्योंकर वे रुकेंगे! युवाओं की राह कुछ गलत भी हो, तो सवाल है कि वे अपने संस्कार कोई आसमान से तो नहीं लेकर आए। जो लोग युवा पीढ़ी में बढ़ती उच्छृंखलता से दुखी हैं, उन्हें पहले अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। नई पीढ़ी को सकारात्मक संस्कार देने की सोचनी चाहिए। संस्कार सही होंगे तो 'वैलेंटाइन डे' की उच्छृंखलता अपने आप निकल भागेगी और यह पवित्र प्रेम का महापर्व हो जाएगा, भले ही इसकी प्रकृति विदेशी हो; या, यह हमारे सांस्कृतिक परिवेश के लिए अनुपयोगी हुआ तो कुछ दिनों में अपने आप अप्रासंगिक होकर खत्म हो जाएगा। ध्यान दें तो हिंदुस्तान की होली भी प्रेम पर्व ही है। होलिका दहन से एक महीने पहले से ढोलक की थाप पर फागुन गीतों के शब्द-शब्द में प्रेम का संदेश ही सुनाई पड़ता है। यहां तो 'फागुन में बुढ़वा देवर लागे' वाला आलम है, पर इस रंगोत्सव का प्रेम नख से शिख तक निर्मल-निश्छल-सहज है। असल में वैलेंटाइन डे के प्रेम का विरोध करने के बजाय उसका कुछ ऐसा ही भारतीयकरण करने की जरूरत है। इस 'प्रेम दिवस' की भावभूमि को ऐसा विस्तार मिले, तो शायद इस दिन पनपने वाला प्रेम भी क्षणिक न रह जाए और अपनी सार्थक परिणति को प्राप्त हो।

(2)
आदिवासियों से सुनिए वैलेंटाइन का संदेश
मौसम की मादकता वही, बस तारीखें जुदा-जुदा। यह एक दिन, तो वह पूरे सात दिन। इसमें गुलाब का फूल, तो उसमें गुलाबी रंग; बल्कि, यूं कहें कि इसका फूल उसमें फलित हो जाता है। जी हां! देखने की कोशिश करें तो इस 'वैलेंटाइन डे' और उस 'भगोरिया' की अंतर्धाराएं कुछ ऐसी ही एक-सी दिखाई देंगी।

भगोरिया, यानी पश्चिमी मध्यप्रदेश के आदिवासियों का प्रणय पर्व। होलिका दहन के ठीक हफ्ते भर पहले शुरू होने वाले इस त्यौहार का मर्म धार, झाबुआ, खरगौन आदि इलाकों के हाट-बाजार से गुजरते हुए जानने की कोशिश करें, तो हो सकता है आप की जुबान से बेसाख्ता यह भी निकल ही पड़े कि संत वैलेंटाइन भले ही पैदा पश्चिम में हुए, पर उनकी आत्मा तो भगोरिया मेले में ही व्यापती है। देह और देही, दोनों को साधने का यह पर्व है ही ऐसा। युवाओं के लिए इहलोक का आनंद-रस और बड़े-बुजुर्गों के लिए परलोक का ब्रह्म-रस, यही भागोरिया का मूल संदेश है।

कहते हैं कि राजा भोज के समय कासूमार और बालून नाम के दो भील राजाओं ने अपनी राजधानी भागोर में बड़े-बड़े मेले और हाट लगवाने शुरू किए तो उन्हें भगोरिया कहा जाने लगा। इससे अलग मान्यता यह है कि इस मेले में युवक-युवतियां एक-दूसरे को पसंद करने के बाद भागकर ब्याह रचाते हैं, इसलिए इसकी प्रसिध्दि भगोरिया नाम से हुई। बात ज्यादा दुरुस्त यही लगती है, क्योंकि भागकर ब्याह रचाने की यह परंपरा अभी भी बनी ही हुई है। वर्तमान का सच यही है कि मधुमास के फूलों से सजी-संवरी प्रकृति का संदेश सुन आदिवासी युवक-युवतियां भी जितना हो सकता है सजते-संवरते हैं; और, जो जीवन भर साथ निभा सके, उस संगी की तलाश में भगोरिया मेले में पहुंचते हैं। ढोल-मृदंग की थाप की अनुगूंज और बांसुरी के मीठे स्वर घुले माहौल में लड़का जिस लड़की को पसंद करता है, उसके गालों पर गुलाबी रंग लगा देता है; यदि लड़की भी कुछ इसी अंदाज में जवाब दे दे, तो समझिए कि बात पक्की। और, फिर तो दोनों भगोरिया मेले से भागकर विवाह के बंधन में बंधने की तैयारी शुरू कर देते हैं। कुछ इसी तरह से लड़का यदि लड़की को पान का बीड़ा पकड़ाए और लड़की खुशी-खुशी उसे लेकर खा ले, तो समझिए कि भगोरिया से भागने का सबब मिल गया। प्रेमी जोड़ों के इस मिलन में धन-संपत्तिा के कोई मायने नहीं हैं। लुका-छिपी का भी कोई खेल नहीं है यह, न वादे निभाने-तोड़ने की जद्दोजहद। सब कुछ इतना सहज, पारदर्शी कि प्रेम की आधुनिक परिभाषा पानी भरे इस भगोरिया-प्यार के आगे।

प्रेम के इजहार का ऐसा बिंदास त्यौहार पूरे संसार में कहीं और न मिलेगा। रंगों के त्यौहार (होली) की अगवानी पूरी रंगीन मिजाजी के साथ। प्रेम-प्रदर्शन का ऐसा खुलापन, पर शर्मो-हया के खयाल के साथ, कहीं और दुर्लभ है। प्रकृति के बासंती संदेश को प्रकृति के साथ समरस होकर जीवन जी रहा आदिवासी समाज शायद ज्यादा बेहतर समझता है। सभ्य समाज को वर्जनाओं से मुक्ति की राह यही समाज दिखा सकता है। वर्जनाओं से मुक्ति का मतलब उच्छृंखलता की राह पर कदम बढ़ाना भी कतई नहीं है, या कि भगोरिया जीवन को सिर्फ भोग-भाव से ही नहीं जोड़ता, बल्कि रंगीन मिजाजी का यह त्यौहार रंगों के पार किसी और संसार में भोग-भाव से दूर योग-भाव का भी संदेश देता है। आदिवासी समाज के बड़े-बुजुर्ग पूरे भगोरिया त्यौहार के दौरान भोग-विलास का भाव मन से निकाल एक खास तरह की आध्यात्मिक साधना से गुजरते हैं। बल्कि, यों कहा जाए तो ज्यादा ठीक होगा कि भगोरिया के दो रूप हैं - एक मेला और दूसरा त्यौहार। मेले की परिणति नायक-नायिका के मिलन में है, जो प्रकृति की ओर से सृष्टि-विस्तार की अनिवार्य शर्त है, तो त्यौहार की परिणति जीवन-साधना में है।
संत वैलेंटाइन के संदेश की व्यापकता इससे ज्यादा भला और क्या हो सकती है!
(3)
प्यार का बाजार भाव
सच कहें तो हिंदुस्तान जैसे देशों में वैलेंटाइन डे के उमड़ते प्यार के पोर-पोर में बाजार-व्यापार-कारोबार है। इस देश में वैलेंटाइन डे का प्रवेश सहज ढंग से नहीं हुआ है। यह बाजार द्वारा प्रायोजित और मीडिया द्वारा प्रक्षेपित है। युवाओं को भरमाने का सबसे आसान तरीका दिल के खेल के अलावा और क्या हो हो सकता है। सो, मीडियाई रेसिपी के लिए यह उम्दा मसाला है, तो बाजार के लिए युवाओं की जेबें खाली कराने का सुनहरा मौका। इस दिन होटल, रेस्तरां, मॉल, नाइट क्लब, बाजार सब सज जाते हैं। पत्र-पत्रिकाओं में प्रेम संदेशों की भरमार होती है, तो खाने-पीने की चीजों से लेकर भांति-भांति के उपहार तक दिल का आकार ग्रहण कर लेते हैं।

ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में तो इस मौके पर भेजे जाने वाले प्रेम संदेशों और ग्रीटिंग कार्डों की तादाद बीस करोड़ के भी पार पहुंच जाती है। ब्रिटेन के लोग इस दिन के लिए फूलों पर साढ़े तीन करोड़ पौंड खर्च कर देते हैं। इनमें से एक करोड़ की संख्या तो सिर्फ लाल गुलाब की ही होती है। इस प्रेम पर्व के तीन दिनों के भीतर अमेरिका में ग्यारह करोड़ से अधिक फूल बिक जाते हैं, जिनमें लाल गुलाब होते हैं पांच करोड़ के आसपास। कुछ कंपनियों ने तो इस दिन के लिए दुनिया के किसी कोने में फूल और उपहार पहुंचाने का धंधा ही शुरू कर दिया है। हिंदुस्तान की आबादी का खयाल करें तो यहां भी वैलेंटाइन डे के पूरी तरह प्रचार पा जाने के बाद प्यार का बाजार कितना बड़ा बन जाएगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यही वजह है कि अभिनंदन पत्र बनाने वाली कंपनियों के लिए फरवरी का पहला पखवाड़ा अब किसी 'प्रमोटिंग' उत्सव से कम नहीं है।

हाल यह है कि होटल और रेस्तरां युवाओं को लुभाने के लिए 'कामदेव की रसोई' से 'कामोद्दीपक भोजन' कराने का आमंत्रण देने लगे हैं, संगीत कंपनियां दिल की बात सुनाने के खास आयोजन करने लगी हैं और इलेक्ट्रॉनिक सामान तक इस दिन के लिए खासतौर पर दिलनुमा बनाए जाने लगे हैं। सच कहें तो हिंदुस्तान में वैलेंटाइन डे का बाजार भाव तभी तय होने लगा था, जबकि बड़ौदा के गायकवाड़ ने इसी दिन 14 फरवरी, 1891 को अपनी प्रेमिका के नाम 47 हजार पौंड का सबसे महंगा प्रेम-उपहार भेजा।

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

झूठे विज्ञापनों का ख़तरनाक सच

उस 12-13 वर्ष के बच्चे ने दुकानदार से कहा, ''अंकल, एक पैकेट नमक दे दो।'' दुकानदार ने नमक का पैकेट बच्चे की तरफ़ बढ़ा दिया। बच्चा कुछ देर उसे उलट-पुलटता रहा, फिर कुछ सोचते हुए बोला, ''नहीं ये वाला नहीं, दूसरा दो।'' दुकानदार ने दूसरी कंपनी का पैकेट निकाला। बच्चा अब कुछ परेशान हो उठा, ''नहीं अंकल, ये भी नहीं चाहिए। ऐसा है, कल टी. वी. पर देखकर आऊँगा फिर बताऊँगा कि कौन वाला नमक चाहिए।'' यह कहते हुए वह सरपट घर की तरफ़ दौड़ पड़ा।

यह कोई काल्पनिक नहीं, एक सच्ची घटना है जो मेरी ही ऑंखों के सामने घटी। इस घटना से विज्ञापनी मायाजाल की इनसानी जेहन पर मज़बूत होती पकड़ और उसके ख़तरों के चिंताजनक संकेत मिलते हैं। इससे यह अहसास और ज्यादा तीव्र, स्पष्ट और गहरा होता है कि कैसे बाज़ारी शक्तियाँ सिर्फ़ मुनाफ़े के लिए आदमी के विराट क्षमताओं वाले दिमाग़ को विकलांग बना रही हैं। और असल में तो बचपन से ही आदमी के दिमाग़ को, जिसे कि स्वतंत्र विकास करना चाहिए, विपरीत दिशा में मोड़कर कुंद कर देना, एक राष्ट्र ही नहीं पूरी मानवीय सभ्यता के लिए कितना नुक़सानदेह हो सकता है, इसकी कल्पना तक भयावह है। कहने को विज्ञापनों का असली उद्देश्य जनसामान्य तक विभिन्न उत्पादों की जानकारी पहुँचाना है, लेकिन अब जुनून की हद तक उपभोक्तावाद की मानसिकता पैदा करना ही इनका मुख्य उद्देश्य रह गया है। विज्ञापन अब बाज़ार तैयार करने के सबसे शक्तिशाली हथियार हैं।

भारतीय संस्कृति और परम्परा में जिन चीज़ों के बारे में अपरिचय की स्थिति हो, उनके इस्तेमाल की मनाही रही है। वस्तुओं की निर्माण प्रक्रिया की पवित्रता और जीवनचर्या में उनकी ज़रूरत, ये दो उपयोग के निर्णायक बिन्दु रहे हैं। विज्ञापनी मायाजाल ने इन दोनों ही निर्णायक पहलुओं को बेमानी बना दिया है। विज्ञापन इतने आक्रामक रूप में सामने आते हैं कि किसी उत्पाद के उपादान क्या-क्या हैं, या कि उसके उत्पादन की प्रक्रिया में कितनी सफ़ाई और पवित्रता है, ये सवाल बहुत पीछे छूट गए हैं। यह विज्ञापनों का ही कमाल है कि घर में अपनी ही ऑंखों के सामने बनी चीज़ों से भी ज्यादा विश्वसनीय विज्ञापित ब्रांड की चीज़ें हो गई हैं। हालत यह है कि ऐसे तमाम लोग, जो शाकाहार के हिमायती हैं और मांस जैसी चीज़ों को देखना भी पसंद नहीं करते, वे भी बाज़ार में पहुँचकर मांस या दूसरी अभक्ष्य चीज़ें मिली हुई जाने कौन-कौन सी वस्तुएँ बड़े शौक़ से हलक़ के नीचे उतारने में लग जाते हैं।

विज्ञापनी संस्कृति ने हमारी ज़रूरतों का बिलकुल नया ही संसार रच दिया है। अब हमारी ज़रूरतें हम ख़ुद नहीं, बल्कि विज्ञापन तय करते हैं। उत्पादन ज़रूरतों के हिसाब से नहीं, बल्कि ज़रूरतें उत्पादन के हिसाब से तय होने लगी हैं। कोई नया उत्पाद आ जाता है, फिर विज्ञापन उसे अनिवार्य ज़रूरत बनाकर प्रस्तुत करते हैं। इसका उदाहरण लेना हो तो नहाने के साबुन की बात कर सकते हैं। मेरे लिए भी यह कल्पना के बाहर की बात थी कि भला साबुन के बग़ैर नहाने के बारे में कैसे सोचा जा सकता है? लेकिन अब एक लंबे अरसे से बिना साबुन के ही नहाते रहने के बाद समझ में आ रहा है कि जो लोग शरीर की सफ़ाई के लिए साबुन को अनिवार्य समझते हैं, वे दरअसल एक तरह की मानसिक गुलामी के ही शिकार हैं। नहाने के बाद सिर्फ़ रोयेंदार तौलिए से शरीर को रगड़-रगड़कर साफ़ कर लेने या बेसन, दही, मुलतानी मिट्टी वगैरह लगाकर नहाने के बाद की स्फूर्ति, ताज़गी और त्वचा की निरोगता का अहसास तो वे ही कर सकते हैं जो साबुन की गुलामी छोड़कर ये विकल्प अपना चुके होंगे। यह विज्ञापनों का ही जादू है कि साबुन जैसी और भी ढेरों एकदम से ग़ैरज़रूरी चीज़ें आधुनिक जीवनशैली में अनिवार्यता की हद तक ज़रूरी लगने लगी हैं।

विज्ञापन अधिकांशत: अतिशयोक्तिपूर्ण और झूठ के पुलिंदे होते हैं, पर प्रभाव सच का पैदा करते हैं। इस प्रभाव का ही नतीजा होता है कि वाहियात चीजें भी रोज़मर्रा की ज़रूरतें और ज़िंदगी की शान बनने लगती हैं। यह विशुध्द विज्ञापनों का प्रभाव है कि अब गाँव-देहात के लोग तक नीम, बबूल की दातून को दकियानूसी मानकर छोड़ते जा रहे हैं और भाँति-भाँति के टूथपेस्ट दाँतों पर रगड़ने लगे हैं। कितने पढ़े-लिखे जागरूक लोगों को तो मालूम भी होता है कि टूथपेस्ट दाँतों के लिए निश्चित रूप से नुक़सानदेह ही हैं, पर विज्ञापनों ने ऐसी मानसिक गुलामी पैदा कर दी है कि वे दातून या तमाम अच्छे देशी मंजनों की वकालत करते हुए भी रसायन मिले टूथपेस्ट के झाग का आकर्षण नहीं छोड़ सकते। पेप्सी-कोका कोला जैसे तमाम शून्य पोषकता के नुक़सानदेह शीतलपेयों की भी यही कहानी है।

दरअसल विज्ञापनों की चकाचौंध का सबसे काला पक्ष यह है कि वे आदमी की स्वतंत्र निर्णय की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। विज्ञापन विवेक को कुंद कर देते हैं; और इस तरह, ख़ुद को समझदार समझने वाला व्यक्ति भी अनजाने में कब उपभोक्तावाद का शिकार बन जाता है, उसे पता ही नहीं चलता। बार-बार ऑंखों के रास्ते अवचेतन तक पहुँचने वाला विज्ञापनों का झूठा संदेश जब सयाने लोगों के लिए इतनी आसानी से सच का संस्कार बन जाता है, तो फिर मासूम बच्चों पर इन प्रभावों का क्या कहा जाए

बच्चे सबसे आसानी से विज्ञापनों के प्रभाव में आते हैं। इसीलिए विज्ञापनी आक्रमण के मुख्य निशाने पर भी अब बचपन ही है। बच्चों का अबोध मन तो विज्ञापनों को एकदम सच मानकर ही ग्रहण करता है। विज्ञापन के किसी हैरतअंगेज़ कारनामे से प्रभावित होकर अगर कोई बच्चा भी वैसा ही कारनामा कर दिखाने की कोशिश में अपना नुक़सान कर लेता है तो यह इस तरह के प्रभावों का ही असर है।

जो लोग मनुष्य के विवेक पर भरोसा करते हुए विज्ञापन जैसी चीज़ों के मन पर पड़ने वाले स्थायी प्रभावों को निश्ंचित भाव से ख़ारिज़ कर देते हैं, वे लोग दरअसल यह भूल जाते हैं कि मनुष्य अंतत: एक सीखने वाला प्राणी है। बचपन से ही मन पर जैसे-जैसे संस्कार पड़ते हैं वैसी ही हमारी मानसिकता बनती जाती है। जाति, भाषा, धर्म, संस्कृति आदि की जितनी भी विविधताएँ हैं, यह सब संस्कारों का ही खेल है। मुसलमान के बच्चे को अगर हिंदू के घर में पाला जाए तो वह हिंदू प्रतीक ही ग्रहण करेगा; इसी तरह हिंदू का बच्चा यदि मुसलमान के घर में बड़ा होगा तो 'अल्लाहो अकबर' पुकारेगा ही। कहने का साफ़ अर्थ यह है कि आदमी वैसा ही बनता है जिस तरह के उसे संस्कार मिलते हैं।

पहले संस्कार देने का काम माँ, बाप, बड़े-बुज़ुर्ग, विद्यालय और समाज करते थे; पर अब नये युग की संस्कार-व्यवस्था पर विज्ञापन, सीरियल और फ़िल्में क़ाबिज़ हो गए हैं। इस नए वातावरण में नई पीढ़ी के मानसपटल पर जिस तरह के संस्कार पड़ रहे हैं वे आख़िरी नतीजे के तौर पर एक उपभोक्तावादी, गैरज़िम्मेदार, ज़िद्दी और उच्छृंखल समाज निर्माण के ही औज़ार बन रहे हैं।

आख़िर जब विज्ञापनों का झूठापन और नकारात्मक असर इतना स्पष्ट है तो सवाल यह उठता है कि हमारी राज्य और केंद्र सरकारें इनके लिए कोई प्रभावी आचार संहिता क्यों नहीं लागू करतीं ? क्यों सच की सूचना देने के लिए बने सरकारी दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे माध्यम तक इन्हीं झूठे और लोगों को मूर्ख बनाने वाले विज्ञापनों के प्रसारण में दिन-रात लगे रहते हैं? वैसे जवाब भी इसका सीधा और जगजाहिर-सा है कि विज्ञापनों से सूचना माध्यमों को बेहिसाब मुनाफ़ा होता है। इस मुनाफ़े का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट दोनों ही माध्यमों का वजूद वर्तमान में विज्ञापनों पर ही टिका हुआ है। विज्ञापनों पर इस निर्भरता को देखते हुए ही पत्रकारिता जगत में समाचार की यह मजेदार परिभाषा प्रसिध्द है कि - 'विज्ञापनों के बीच-बीच में जो कुछ छपता है उसे समाचार कहते हैं।'

असल में अब इस विज्ञापनी फ़रेब के ख़िलाफ़ जनसामान्य की ओर से आवाज़ उठनी चाहिए। सत्ताधीशों को यह चेताने की ज़रूरत है कि मुनाफ़े से ज्यादा महत्वपूर्ण एक समाज का सकारात्मक चरित्र होता है। हमारे नेताओं को यह समझना चाहिए कि व्यवस्था के हर पायदान पर अगर भ्रष्टाचार की कोई न कोई घिनौनी शक्ल मौजूद है तो यह उपभोक्तावाद के जाल में फँसते जा रहे समाज के ही कारण है। भाँति-भाँति की चीज़ों का उपभोग ही जिस समाज का मुख्य उद्देश्य बन जाएगा, वह समाज राष्ट्रनिर्माण के लिए किसी संयम का प्रदर्शन तो नहीं ही कर सकता। ज़रूरत यही है कि समय रहते विज्ञापनों, फ़िल्मों, सीरियलों आदि संस्कारों को प्रभावित करने वाले सभी रूपों के लिए ही एक प्रभावी आचार संहिता लागू हो। ऐसा हो तो नए ज़माने के बदलावों के साथ क़दमताल करते हुए भी नई पीढ़ी के दिलो-दिमाग़ को सकारात्मक दिशा में मोड़ना कोई बहुत मुश्किल नहीं है।

गुरुवार, 8 जनवरी 2009

चकलाघर चलाइए, रोजगार पाइए

दुनिया का सांस्कृतिक भूगोल बदल रहा है। नैतिकता के सबसे वर्जित इलाकों की बाड़ टूट रही है। कब कौन सा अजूबा घट जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। अकल्पनीय लगने वाला एक ऐसा ही अजूबा है - वेश्यावृत्ति विद्यालय। जी हाँ! बेल्जियम के एंटवर्प में चल रहे इस विद्यालय में स्त्री, पुरुष दोनों ही 'वेश्यावृत्ति' व्यवसाय की बाकायदा तालीम ले सकते हैं। अपने हिसाब से एक नई क्रांति का सूत्रपात करने वाले इसके आयोजकों के मुताबिक इस विद्यालय में स्वच्छ यौन संबंध, व्यवसाय प्रबंधन और वेश्यावृत्ति से संबंधित कानूनों की जानकारी दी जाएगी। मतलब यह कि यहाँ, वेश्यावृत्ति अपनाने वालों को ग्राहकों को लुभाने, ललचाने, पटाने और कामुकता के पाश में फांसने की सारी जुगत बताई और सिखाई जाएगी।

वेश्यावृत्ति की शिक्षा बाँटने वाले इन लोगों का कहना है कि वे इस धंधे की छवि सुधारना चाहते हैं और इस व्यवसाय के प्रति लोगों में आत्मविश्वास जगाना चाहते हैं। यानी, वेश्यावृत्ति को शुध्द व्यवसाय समझिए और इसमें कामयाबी के झंडे गाड़ने हैं तो सारी शर्मो-हया ताक पर रखकर मैदान मे कूद जाइए। मजेदार बात यह है कि इस तरह के अजूबे सबसे पहले पश्चिम में ही सुनने को मिलते हैं। मुनाफे को समर्पित पश्चिमी नजरिया दरअसल हर चीज को व्यापार और बाजार की तरह देखने का आदी होता जा रहा है। फिर तो पश्चिमी समाजों के लिए नैतिकता की आखिरी हद भी लाभ की खातिर ढहा देना वाजिब लग रहा है, तो इसमें कोई बहुत ताज्जुब की बात नहीं है। किसी भी उपभोक्तावादी समाज को बेरोजगारी की विकराल होती समस्या के चलते इस तरह की परिणतियों से गुजरना पड़ सकता है। बेरोजगारी की समस्या वास्तव में त्याग और संयम के ठीक विपरीत खड़ी उपभोक्तावादी जीवन दृष्टि की नई देन है। ऐसे में उपभोग के मंजिल विहीन मार्ग पर सरपट दौड़ लगाते समाज में रोजगार की तलाश में तमाम सनातन वर्जनाएँ भी टूटेंगी ही। यह उपभोक्तावादी संस्कृति के देह-विमर्श का अनिवार्य नतीजा है।

वेश्यावृत्ति को पश्चिम के कई देशों में जिस तरह से सम्मान दिया जाने लगा है, उसके नतीजे धीरे-धीरे पूरी दुनिया को और खास तौर से गरीब देशों को गंभीर रूप से भुगतने होंगे, यह स्पष्ट रूप से समझ लिया जाना चाहिए। पश्चिम में पनपे मूल्य, मान्यताएँ और रोग अंतत: हिन्दुस्तान जैसे गरीब देशों तक पहुँचते ही हैं और उन्हें ही ज्यादा कष्ट देते हैं। इस मामले में थाईलैंड का उदाहरण दिया जा सकता है, जहाँ की अर्थव्यवस्था में वेश्यावृत्ति के धंधे की भागीदारी बढ़ती ही जा रही है, लेकिन देश निरंतर कमजोर हो रहा है। हमारे लिए असली सवाल यह है कि किसी दिन भारतीय संस्कृति की छाती पर वेश्यावृत्ति के प्रशिक्षण संस्थान और उद्योग खड़े होंगे तो हम क्या करेंगे? भारतीय संस्कृति पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करने वाले कुछ लोगों को यह हास्यास्पद लग रहा होगा, लेकिन है यह गंभीर बात। इसी देश में जब समलैंगिकता के समर्थक खुलेआम खड़े होने लगे हैं तो वेश्यावृत्ति को वैधानिक जामा भी देर-सबेर पहनाने का काम किया ही जा सकता है।

अभी ही इस देश में जाने ही कितनी बेबस लड़कियों को वेश्यावृत्ति के इस नारकीय धंधे में जाने के लिए चोरी-छिपे मजबूर किया ही जाता है। जब यह वैधानिक तौर पर व्यवसाय का रूप लेगा तो हालात क्या होंगे, यह सोचकर सिहरन होती है। आखिर इस देश ने उपभोक्तावादी बयार में आकर अपने उन सांस्कृतिक मूल्यों को लगभग भुला ही दिया है, जिन पर चलते हुए उसके सामने बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझने का सवाल ही नहीं उठता। भारतीय समाज भी अब पश्चिम के नक्शे-कदम पर है, तो उस समाज की विकृतियाँ भी झेलनी ही पड़ेंगी। यानी, जिस भारतीय समाज में शरीर को किसी परम आध्यात्मिक उद्देश्य तक ले जाने का साधन माना जाता रहा हो, जहाँ रत्ती भर भी अनैतिक अर्थोपार्जन अमान्य हो, वहाँ भी अब अगर देह को नितांत बाजार की वस्तु बना दिया जाय और किसी दिन अपने सांस्कृतिक मूल्यों के ठीक विपरीत जगह-जगह वेश्यावृत्ति प्रशिक्षण संस्थान खोलकर उनके मुख्य दरवाजे पर 'चकलाघर चलाइए, रोजगार पाइए' जैसे आमंत्रण वाक्य चस्पाँ कर दिए जाएँ, तो फिर आश्चर्य ही क्या?

सोमवार, 5 जनवरी 2009

भगवान के घर

ईश्वर की प्रार्थना के लिए भक्तों को क्या चाहिए? मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च या और कुछ? राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का कहना था - 'देश के करोड़ों ग़रीबों और भूखों मरते लोगों की सेवा करनी है तो प्रार्थना मंदिर ईंट-चूने का मकान नहीं हो सकता, इसके लिए तो आकाश का छप्पर और दिशाओं रूपी खंभे ही काफ़ी होने चाहिए।' गाँधीजी अपनी इस मान्यता के साथ ही जिए और मरे, और बीती सदी के सबसे बड़े जनसेवक साबित हुए। बापू के इस वक्तव्य को अहसास में उतारना हो तो एक बार उनकी आख़िरी साधना-स्थली सेवाग्राम आश्रम (वर्धा) देखना चाहिए। वहाँ 'बापू कुटी' और 'आदि निवास' के बीच वह स्थान है जहाँ गाँधीजी आश्रम के रहवासियों, सहयोगियों के साथ सर्वधर्म प्रार्थना किया करते थे। बिल्कुल सीमाहीन प्रार्थना मंदिर। ईंट-पत्थरों की कोई चहारदीवारी नहीं। एक अदना-सा चबूतरा भी नहीं। खुली धरती, खुला आसमान और चहुँ ओर की खुली-खुली प्रकृति। ऐसा था गाँधीजी का सीमाहीन, बंधनविहीन प्रार्थना मंदिर कि आसपास का वातावरण भी प्रार्थनारत दिखाई दे।

     आज गली-गली, चौराहे-चौराहे पर दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बन रहे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च वग़ैरह आदमी के गिरते चरित्र को नहीं बचा पा रहे हैं तो ऐसे में गाँधीजी की मान्यता ही ज्यादा प्रासंगिक लगती है। शायद हम ईंट-पत्थरों को जोड़-जोड़कर अपने-अपने भगवानों के भाँति-भाँति के भव्य घर बनाने में उलझ गए हैं। इस उलझाव में प्रभु का असली काम कहीं पीछे छूट गया है। ऐसा न होता तो भगवान के जिन घरों में प्रेम, सेवा, सहिष्णुता के सुवास की अनुभूति होनी चाहिए, वहाँ सांप्रदायिक तनावों की सड़ांध न महसूस होती।

     भगवान के ये घर कभी मानवीय बुराइयों पर विजय पाने की साधना-स्थली भले ही रहे हों, पर अब तो बनवाने वालों के आत्म-प्रदर्शन से बहुत आगे की बात नहीं लगते। जितने भव्य मंदिर, उतना ही ऊँचा निर्माताओं का अभिमान। मंदिर विशालकाय हो, भव्य हो तो भक्तों का हुजूम उमड़ पड़ता है। जीर्ण-शीर्ण छोटे मंदिर के पुजारी को तो रोटी के भी लाले पड़ जाएँ। दक्षिण भारत की यात्रा करें तो मंगलौर से कोई तीस किलोमीटर की दूरी पर मिलेगा हीरे-पन्ने के व्यापार का गढ़ - मूड़बिदरी। यहाँ जिधर भी निगाह दौड़ाएँगे मंदिर ही मंदिर नज़र आएँगे। एक से एक भव्य मंदिर। कहते हैं मूड़बिदरी में पहला व्यापारी आया तो उसने अपने लिए एक विशेष मंदिर बनवाया। जब दूसरे व्यापारी आए तो वे भी पीछे क्यों रहते? सबने एक से बढ़कर एक भव्य मंदिर बनवाने की जैसे होड़ लगा दी। नतीजन, यहाँ चप्पे-चप्पे पर ऐसे भव्य मंदिर देखने को मिल जाएँगे कि राजाओं के महलों की चमक फीकी पड़ जाए। लेकिन ये मंदिर किसी संवेदनशील दर्शक के मन पर कोई सौम्य प्रभाव नहीं छोड़ते; बल्कि, आतंक बनकर छा जाते हैं और वितृष्णा पैदा करते हैं। जिस देश में लाखों-करोड़ों लोग अभी भी दो जून की रोटी का ठीक से इंतज़ाम न कर पाते हों, वहाँ भव्यता की यह कैसी ईश्वर भक्ति? भक्त तो कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, नानक, रैदास भी थे जिन्होंने अपने भगवान अपने मन-मंदिर में ही पा लिए थे। महापुरुषों का संदेश यही है कि दीन-दुखियों की सेवा, देश-समाज की सेवा ही सबसे बड़ी प्रभु-भक्ति है। महर्षि दयानंद सरस्वती ने तो आर्यसमाज के छठे नियम के रूप में प्रभु-भक्ति का पैमाना ही बना दिया कि- 'संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है।' वास्तव में यदि हम महापुरुषों की वाणी और उनके जीवन-व्यवहार से प्रेरणा लें तो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे सबके ही रूप बदल जाएँगे। भगवान के ये घर सही मायने में सेवा-स्थली और दीन-दुखियों के लिए आश्रय-प्रदाता बन जाएँगे और जीवन दया, करुणा, सेवा के भाव-संगीत से झंकृत हो उठेगा।

रविवार, 4 जनवरी 2009

भारतीय संस्कृति की पहचान

भारतीय संस्कृति की पहचान का सवाल आसान और कठिन दोनों ही है। आसान इसलिए है कि भारतीय संस्कृति का उत्स बहुत स्पष्ट है और इसे इसके उत्स से देखने की सहज कोशिश करें तो इसकी विराटता का रहस्य परत-दर-परत आसानी से खुलता चला जाता है। इसके विपरीत, यदि सांस्कृतिक पहचान का यह सवाल काफ़ी जटिल लगता है तो इसलिए कि भारतीय परिवेश में जन्मे विभिन्न मत, पंथ या सम्प्रदाय भारतीय संस्कृति की अपने-अपने हिसाब से अलग-अलग परिभाषाएँ करते हैं। इस देश के बुध्दिजीवियों की भी इस मुद्दे पर अलग-अलग स्थापनाएँ हैं। पश्चिमी शिक्षा-दीक्षा में पले-बढ़े विद्वान, बुध्दिजीवी, इतिहासकार वग़ैरह तो कुछ ज्यादा ही आत्मविश्वास के साथ इस मुद्दे पर अपने विचार व्यक्त करते हैं और निश्चित रूप से इस सवाल को और जटिल बना देते हैं।

      भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए ढेर सारे लोग, ढेर सारे संगठन और ढेर सारे जनान्दोलन अक्सर आवाज़ उठाते ही रहते हैं, लेकिन समस्या यह है कि जब संस्कृति की पहचान ही स्पष्ट न हो तो आख़िर बचाया क्या जाए? संस्कृति की रक्षा के लिए मुहिम चलाने वालों से यदि पूछ लिया जाए कि आख़िर वे किन मूल्यों की रक्षा करना चाहते हैं, तो वे प्राय: असमंजस में पड़ जाते हैं। कोई भारतीय संस्कृति के लिए एक शब्द देना चाहता है - संयम; और इसको लेकर ज़ोरदार और लुभावना भाषण दे डालता है। कोई कहता है कि हमारी संस्कृति की पहचान 'त्याग' के रूप में होती है। किसी का विचार है कि भारतीय संस्कृति के मूल में दया, करुणा, अहिंसा जैसे मूल्य हैं। इसी तरह से अपने को समझदार समझने वाले हर आदमी और हर सम्प्रदाय की संस्कृति को लेकर अलग-अलग मान्यताएँ हैं। यहाँ ध्यान देने वाली एक बात ज़रूर है कि सांस्कृतिक पहचान को लेकर ये सभी विचार व मान्यताएँ अलग-अलग होते हुए भी एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं। सब कहीं न कहीं से भावनात्मक स्तर पर एक ही अन्तर्धारा में प्रवाहित होते हुए दीखते हैं। ऊपर से अगर कुछ मतभेद दिखते भी हैं तो आन्तरिक रूप में वे फिर भी एक सूत्र में ही जुड़े हैं। इन कुछ मतभेदों के बावजूद यदि सभी अपनी संस्कृति को संयम, त्याग, दया, करुणा, अहिंसा आदि के रूप में ही व्याख्यायित करते हैं और हिंसा या भोगवाद को अपसंस्कृति के रूप में देखते हैं तो इसका साफ़ अर्थ है कि इस देश की भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के मूल उद्गम का मनोभाव अन्तत: एक ही है।

      भारतीय इतिहास दृष्टि से देखे तो दरअसल हुआ यह है कि महाभारत काल के बाद जब इस देश का सामाजिक ढाँचा काफ़ी अव्यवस्थित होने लगा तो इस अव्यवस्था को ही अपने-अपने हिसाब से व्यवस्थित रूप देने के लिए इस देश के विचारकों, महापुरुषों ने सम्प्रदायों की नींव डाली। छिन्न-भिन्न होते सांस्कृतिक पहचान के एक लम्बे दौर में अलग-अलग सम्प्रदायों और विचारशील लोगों के लिए समग्रता में अपनी सांस्कृतिक विरासत की पहचान मुश्किल हुई तो उन्होंने अपने-अपने हिसाब से इसके सिर्फ़ कुछ अंगों को ही लेकर उन्हें अपनी मौलिक व्याख्याएँ दीं और संस्कृति का समग्र रूप कहकर प्रचारित किया। कहने का अर्थ यह है कि संयम, त्याग, अहिंसा, दया, करुणा आदि भारतीय संस्कृति के मूल उत्स और समग्र रूप की पहचान नहीं कराते, बल्कि ये सब हमारी संस्कृति के विराट रूप के सिर्फ़ कुछ उदात्ता मूल्य या अंग ही हैं।

      भारतीय संस्कृति की पहचान हर तरह की रूढ़ियों से मुक्त होकर सहजता से करने की कोशिश करें तो हमें इसकी शुरुआत वेदों से करनी पड़ेगी। पाश्चात्य विद्वानों और उन्हीं के मानसपुत्र कुछ भारतीय इतिहासकारों द्वारा तमाम भ्रम फैलाए जाने के बावजूद वेद ही भारतीय सभ्यता-संस्कृति के आदि ग्रन्थ सिध्द होते हैं। इस तरह से स्पष्टत: भारतीय संस्कृति के उत्स्रोत भी वेद ही माने जाने चाहिए। वेदों की बात करते हुए स्पष्ट रूप से यह भी समझ लेना चाहिए कि ये कोई हिन्दुओं के धर्मग्रन्थ नहीं हैं। वैदिककाल में तो हिन्दू ही क्या, किसी भी सम्प्रदाय का अता-पता ही नहीं था। 'हिन्दू' शब्द तो बहुत बाद का है और बौध्द, जैन आदि सम्प्रदाय भी बहुत बाद के हैं। वास्तव में विरासत के रूप में तो वेद कम से कम भारतीय परिवेश में जन्मे सारे ही सम्प्रदायों के सांस्कृतिक स्रोत माने जाने चाहिए, भले ही कुछ सम्प्रदायों ने वेदों की मनमानी व्याख्याएँ करके उन पर अधिकार करने की कोशिश की हो या कि कुछ ने इनका विरोध किया हो। इस तरह से जब यह समझ स्पष्ट हो जाती है कि भारतीय संस्कृति के उद्गम स्थल वेद हैं तो संस्कृति का मूल स्वरूप समझना भी आसान हो जाता है।

      वेदों में पहला वेद है--ऋग्वेद। ऋग्वेद का पहला मन्त्र है -'अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्'। यह पहला मंत्र ही वास्तव में संस्कृति की बुनियाद को स्पष्ट कर देता है। 'यज्ञ' की बात से वेदों की शुरुआत क्या हुई है कि चारों वेद ही यज्ञ की महिमा गाते दिखाई देते हैं। वास्तव में वेदों में जो कुछ भी कहा गया है, उस सबका उद्देश्य यज्ञ ही है। 'यज्ञ' के इतने रूप और इतनी व्यापकता है कि तमाम विद्वानों ने इसका मर्म न समझकर वेदों को निरा स्थूल कर्मकांडों के व्यवस्था-ग्रन्थ ही घोषित कर दिए हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि 'यज्ञ' का मूलभाव समझ लिया जाय तो स्पष्ट समझ में आएगा कि भारतीय संस्कृति को एक शब्द में समाहित करने के लिए उसे 'यज्ञ' ही कहना सर्वोचित होगा। जरा गहरी विचारणा में उतरें तो इस उपपत्ति के 'इति सिध्दम्' तक पहुँचना मुश्किल नहीं है।

      'यज्ञ' शब्द संस्कृत के 'यज्' धातु से बना है और इसका अर्थ निकलता है - देवपूजा, संगतिकरण और दान। इन तीनों शब्दों को थोड़ा और स्पष्ट करें तो चर-अचर सम्पूर्ण जगत् में चल रहे स्थूल या सूक्ष्म क्रिया और व्यवहार की सुन्दर व्याख्या हो जाती है। समस्त संसार में तीन तरह की स्थितियाँ बनती हैं। या तो कोई बड़ा होगा, या बराबरी पर होगा अथवा छोटा होगा। ये तीनों स्थितियाँ जड़-चेतन सभी पर लागू होती हैं और शक्ति या गुण किसी भी स्तर पर हो सकती हैं। इस तरह से जो किसी स्तर पर बड़ा होगा या कहें कि किसी न किसी रूप में दाता की स्थिति में होगा उसे 'देव' कहा जाएगा और वह पूजा (आदरणीयता) का सहज अधिकारी होगा। जो बराबरी पर होगा वह संगतिकरण या तालमेल का सहज अधिकारी होगा। और, जो छोटा होगा तो वह कुछ पाने का अर्थात् दान लेने का सहज अधिकारी होगा ही। जड़ जगत् का एक उदाहरण लेकर इसे आसानी से समझा जा सकता है। हम देखते ही हैं कि दो गड्ढों में से यदि एक का जलस्तर ऊँचा हो और दूसरे का नीचा, तो ऊँचे जलस्तर का बहाव निचले स्तर में तब तक होता रहता है जब तक कि दोनों बराबरी पर न आ जाएँ। मतलब यह कि उँचाई पर मौजूद जलस्तर देव की या दाता की स्थिति में है, नीचे का जल स्तर कुछ पाने की या दान लेने की स्थिति में है और जब दोनों का स्तर बराबर हो जाता है तो उनमें संगति या तालमेल चरितार्थ होने लगता है। इसी तरह से हम सब ही किसी को कुछ देने, किसी से संगति बिठाने या किसी से कुछ पाने के अधिकारी हैं। वास्तव में जड़-चेतन सम्पूर्ण जगत में परस्पर एक दूसरे से लाभ पहुँचाने के इस व्यवहार को ही 'यज्ञ' कहा गया है।

      भारतीय संस्कृति की स्थापना यह है कि यह सम्पूर्ण जगत् यज्ञमय है और इस जगत् का नियन्ता सबसे बड़ा यज्ञकर्ता है। चूँकि मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसे कि सोच-विचार कर कर्म करने या न करने की स्वतन्त्रता दी गई है, इसलिए इसे चाहिए कि सृष्टि में सहज भाव से चल रही यज्ञमयता से प्रेरणा लेकर अपने कर्मों को भी यज्ञमय बनाए। मनुष्य के सन्दर्भ में यज्ञ की परिभाषा है-'यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म:।' अर्थात् श्रेष्ठतम कर्म ही यज्ञ है। यज्ञीय कर्मों को ज्ञान-यज्ञ, कर्म-यज्ञ और उपासना-यज्ञ के वर्गीकरण से और स्पष्टता दे दी गई। इस वर्गीकरण से ही सामान्य व्यवहार से लेकर विज्ञान की बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ तक नियन्त्रित हो जाते हैं। लेकिन यहाँ यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि चाहे सामान्य व्यवहार हो या विज्ञान की उपलब्धि, कोई भी कर्म 'यज्ञ' तभी बनता है जबकि उसमें श्रेष्ठतम् भाव हो अर्थात् स्व-अर्थ यानी स्वार्थ से ऊपर उठकर परस्पर एक-दूसरे को लाभ पहुँचाने का लोककल्याणकारी भाव हो।

      परस्पर एक दूसरे को लाभ पहुँचाने के इस लोक कल्याणकारी भाव या कहें कि श्रेष्ठतम् कर्म की साधना के लिए प्राचीन भारतीय संस्कृति में 'पंच महायज्ञ' की व्यवस्था दी गई थी। यह एक महत्तवपूर्ण बात है कि यज्ञों की विशाल शृंखला में से मनुश्य की सामान्य दिनचर्या में शामिल बहुत कम समय में सम्पन्न होने वाले सिर्फ़ पाँच यज्ञों को 'महायज्ञ' कहा गया है तो इसकी ख़ास वजह है। दरअसल ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ, अतिथि यज्ञ और पितृ यज्ञ के नाम से प्रचलित ये यज्ञ ही मनुष्य को सही मायने में मनुष्य बनाते हैं। इन यज्ञों को इनकी मूल भावना के साथ व्यवहार में उतारने का ही परिणाम था कि भारत हज़ारों वर्षों तक सम्पूर्ण संसार के लिए एक उदात्ता संस्कृति का प्रचारक और आदर्श बना रहा।

      पंचमहायज्ञ की व्याख्या के साथ भारतीय संस्कृति की पहचान एकदम स्पष्ट हो जाती है। पहले 'ब्रह्मयज्ञ' को लें। 'ब्रह्मयज्ञ' में स्वाध्याय और संध्या, ये दो मुख्य चीजें समाहित हैं। स्वाध्याय का अर्थ है 'स्व' का अध्याय अर्थात् स्वयं का अध्ययन तथा 'सु' अध्याय अर्थात् जो कुछ स्वयं से इतर बेहतर है उसका अध्ययन। 'स्वाध्याय' के द्वारा मनुष्य स्वयं के आचरण की समीक्षा तथा अच्छी-अच्छी पुस्तकों आदि से ज्ञान प्राप्त करके कर्म की श्रेष्ठता सम्पादित करता है। 'संध्या' के द्वारा मनुष्य प्रतिदिन दोनों संधि बेलाओं में, जिसकी अनुकम्पा से यह शरीर मिला है, उस सृष्टि निर्माता परमशक्ति के समर्पण होकर अपने अहंभाव को नष्ट करता हुआ लोककल्याणकारी कर्म करने की संकल्पशक्ति धारण करता है। इस तरह से ब्रह्मयज्ञ का उद्देश्य है - स्वाध्याय द्वारा ज्ञान प्राप्ति, प्रभुभक्ति और संकल्प-संचय।

      'देवयज्ञ' के तहत अग्निहोत्र या हवन आता है। यह सामान्यत: समूह में किया जाने वाला यज्ञ है। मनुष्यों से लेकर जगत् के विभिन्न भौतिक पदार्थों तक में परस्पर सामंजस्य बिठाकर कार्य सम्पादन की एक तरह से कला है देवयज्ञ। इसका एक सामान्य उद्देश्य यह है कि मनुष्य अपने विभिन्न कर्मों से जाने-अनजाने पर्यावरण को जो कुछ भी नुकसान पहुँचाता है, इस यज्ञ के द्वारा उसे उसकी यथासम्भव भरपाई भी करनी चाहिए। विभिन्न तरह की लाभकारी जड़ी-बूटियों और गोघृत आदि के द्वारा किए गए अग्निहोत्र का आरोग्यकारी प्रभाव अब आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं ने भी अच्छी तरह प्रमाणित कर दिया है।

      'बलिवैश्वदेव यज्ञ' का उद्देश्य यह है कि मनुष्य जो कुछ भी अर्जित करता है उसमें मनुष्येतर प्राणियों का भी योगदान रहता है और इसलिए उसे स्वार्थी वृत्ति के वशीभूत नहीं रहना चाहिए। स्वार्थ-वृत्ति त्यागने का सबसे अच्छा अवसर रोज़मर्रा के जीवन में भोजन के समय उपस्थित होता है। इसलिए हमारी प्राचीन संस्कृति में यह व्यवस्था दी गई कि बलिवैश्वदेव यज्ञ के रूप में हम अपनी उदरपूर्ति से पहले पशु-पक्षियों से लेकर असहाय और रोगी मनुष्यों का भी अवश्य ध्यान रखें। चींटी, कुत्तो, गाय आदि को आटा या रोटी देने की आज भी जारी भारतीय परम्परा वास्तव में बलिवैश्वदेव यज्ञ का ही भूला-बिसरा हुआ सा एक रूप है।

      'अतिथि यज्ञ' का अनुष्ठान इस बात के लिए बनाया गया कि हम समाज के ज्ञानी, अनुभवी लोगों का सम्मान करते हुए उनसे व्यवहार ज्ञान प्राप्त करें। 'अतिथि' में बिना किसी निश्चित तिथि के आने का भाव तो है पर ज्ञानी, अनुभवी होना भी अतिथि के लिए ज़रूरी है। आज हम चाहे जिसको भी जिस तरह से अतिथि मान लेते हैं, प्राचीन भारतीय संस्कृति में ऐसा नहीं था।

      पाँचवाँ 'पितृयज्ञ' इसलिए बनाया गया कि जिन लोगों ने हमें पाल-पोसकर बड़ा किया उन पितरों अर्थात् माता-पिता और बड़े-बुजुर्ग़ों के प्रति हम सदैव कृतज्ञ रहें। आज जो हिन्दू धर्म में मरने के बाद श्राध्द-तर्पण के रूप में पितृयज्ञ का अनुष्ठान किया जाता है, वह वास्तव में वैदिक संस्कृति का विकृत रूप है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में तो श्राध्द-तर्पण मृत नहीं, बल्कि जीवित पितरों के लिए किए जाने का विधान है। श्राध्द और तर्पण का आशय ही यह है कि श्रध्दापूर्वक कृतज्ञभाव से सेवा करके तृप्त करना। श्रध्दापूर्वक सेवा करके तृप्त करना स्पष्टत: जीवित पितरों के लिए ही सम्भव हो सकता है।

      इस तरह से इस 'पंचमहायज्ञ' के अनुष्ठान से ही मनुष्य सही मायने में कर्म की श्रेष्ठता पर पहुँचता है, यह भारतीय संस्कृति की मूल स्थापना है। इसीलिए मनु ने स्पष्ट कहा है- 'पंचमहायज्ञेन् यथाशक्ति न हापयेत्।' अर्थात् पंचमहायज्ञों के अनुष्ठान में जहाँ तक सम्भव हो अनवधान नहीं होना चाहिए। यहाँ तक कहा गया है कि जैसे हम नियमित साँस लेते हैं और भोजन करते हैं, वैसे ही हमें पंचमहायज्ञों को भी आजीवन निभाना चाहिए। इन यज्ञों की अनिवार्यता के पीछे असली उद्देश्य यह है कि इन्हें आस्थापूर्वक व्यवहार में उतारने वाला मनुष्य स्वार्थ से हटकर लोककल्याणकारी भाव से ही जीवन जिएगा और सही मायने में मनुष्य बनेगा।

      इस व्याख्या से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संस्कृति के त्याग, संयम, दया, करुणा, परोपकार आदि उदात्ता मूल्य 'यज्ञ' के मूल विचार से ही नि:सृत होते हैं और भारतीय संस्कृति की असली पहचान 'यज्ञ' के रूप में ही की जानी चाहिए।

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

नास्तिक कौन!

नास्तिक-अर्थात् जो ईश्वर को न माने। यही इसका प्रचलित अर्थ है। मतलब यह कि ईश्वर में विश्वास करने वाले आस्तिक हैं भले ही वे किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के हों। नास्तिक हुए जैन, बौध्द, चार्वाक; या आधुनिक साम्यवादी क़िस्म के लोग। लेकिन नास्तिकता की मूल परिभाषा कुछ और कहती है। मूल परिभाषा है - 'नास्तिको वेद निन्दक:'। यानी जो वेद निन्दक हैं, वेद विरोधी हैं, वेद को अमान्य करते हैं, वे नास्तिक हैं।

      ध्यान देने पर पता चलेगा कि यह प्राचीन और मूल परिभाषा ही नास्तिकता और आस्तिकता का अर्थ ज्यादा सही ढंग से व्यक्त करती है और विज्ञानवाद का प्रतिपादक भी है। 'विद्' धातु से निष्पन्न 'वेद' शब्द का मूल अर्थ है-ज्ञान। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद इसीलिए वेद कहे जाते हैं क्योंकि माना जाता है कि इनमें मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक मूल ज्ञान की बातें बतायीर् गई हैं। इस तरह 'नास्तिको वेद निन्दक:' का अर्थ हुआ कि जो ज्ञान का विरोध करे, ज्ञान को प्रतिष्ठा न दे, अमान्य करे वह नास्तिक है। थोड़ा और गहरे उतरें तो पता चलेगा कि ज्ञान का स्थूल रूप है- अस्तित्व, वजूद। इस संसार में जो कुछ है अस्तित्वमान है। सूक्ष्म, स्थूल असंख्य मूर्तिमान पदार्थों से लेकर अमूर्त विचारों, भावनाओं तक सब कुछ अस्तित्व के ही रूप हैं। अस्तित्व भाव से ही आस्तिक निकला है। अस्तित्व का स्वीकार आस्तिकता है, अस्तित्व का नकार नास्तिकता।

      जीवनविद्या के प्रवर्तक बाबा नागराज कहते हैं, इस सृष्टि का सत्य है- अस्तित्व। इस अस्तित्व को जान लिया जाय तो जीवन का मर्म समझ में आ जाएगा और हम सहज, सुन्दर जीवन जीने लगेंगे। इस तरह देखें तो अस्तित्व में आस्था रखने वाले, उसे मानने वाले आस्तिक कहे जाने चाहिए। यही विज्ञानवाद है। इस तरह यह भी स्पष्ट होता है कि ईश्वर को न मानने वाले पन्थ, विचारधारा के लोग अस्तित्व को मानते हैं तो वे आस्तिक ही हैं। आज के साम्यवादी और विशेष रूप से विज्ञान को ही सब कुछ मानने वाले धुर आस्तिक हुए, क्योंकि वे आस्तित्व के या कहें 'अस्ति' भाव के पुजारी है। बल्कि देवी-देवता और भगवान में आस्था रखने वाले या धर्मभीरु लोग हो सकता है कि ज्यादा नास्तिक क़िस्म के सिध्द हों, क्योंकि ऐसा प्राय: देखा जाता है कि कई तरह के धार्मिक विश्वास ज्ञान का, संसार के यथार्थ सत्य या अस्तित्व का विरोध करते हैं। हो सकता है कई तरह की धार्मिक आस्थाएँ सिर्फ़ रूढ़ियाँ हों और सत्य से उनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता ही न हो।

      जीवन-व्यवहार में अस्तित्व भाव के स्वीकार का अर्थ है - जैसे हमारा अस्तित्व, वैसे ही हमसे इतर प्राणियों का भी अस्तित्व। इससे जीवन के प्रति सम्मान भाव पैदा होता है और समस्त जीव जगत के सुख-दुख के अहसास का यथार्थ भाव प्रबल बनता है। अस्तित्व मो मान्य करने से ही सृष्टि के विविध पदार्थों के यथोचित उपयोग में लेने और प्रकृति-सम्मत जीवन जीने का विज्ञान-भाव पैदा होता है। यदि हम सृष्टि को जैसा चलना चाहिए, वैसा चलने देने में सहयोगी हैं, इस संसार में अपनी भूमिका कुशलता से निभाते हैं, तो सृष्टि में अस्तित्व की स्थिति का ही सम्मान करते हैं; और यदि, हम प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करते हैं, सृष्टि के सुचारु रूप से संचालित होने में बाधा पहुँचाते हैं, तो इसका अर्थ है कि अस्तित्व भाव की ही उपेक्षा करते हैं। दूसरों को दुख देना, एक तरह से दूसरों के अस्तित्व की उपेक्षा है। महावीर स्वामी ने यदि कहा कि -जियो और जीने दो- तो इसका अर्थ यही है कि सिर्फ़ हमीं हम नहीं है इस संसार में, हमसे इतर भी हमारे जैसे अस्तित्व वाले हैं, इसलिए हमारे जैसा ही जीने का हक उनका भी बनता है। इस तरह देखें तो सृष्टि में अस्तित्व को स्वीकार करना, यानी प्रकृति के साथ समरसता और सहजता में जीना ही जीने की कला है, जीवन विद्या है और यही आस्तिकता है। इस सृष्टि में जीव-जगत से लेकर जड़-जगत तक के आपसी अन्तर्सम्बन्धों को समझ लेना और अन्योन्याश्रितता की अनिवार्यता को हृदयंगम करके जीवन-व्यवहार चलाना अस्तित्व का स्वीकार है, सम्मान है, जीवन का ज्ञान है, आस्तिकता है। कुल निहितार्थ यही है कि अच्छे काम करने वाले आस्तिक हैं, भले ही वे देवी-देवताओं से दूर रहते हों और बुरे काम करने वाले, स्वयं का स्वार्थ साधने के लिए दूसरों का जीवन नष्ट करने वाले नास्तिक हैं, भले ही वे भाँति-भाँति के भगवानों और देवी-देवताओं के पूजा-पाठ में दिन गुज़ार देते हों।

सोमवार, 15 दिसंबर 2008

बिन ईमानदारी दुनिया कहाँ रहेगी

अन्तरजाल के संसार में विचरते हुए जिन बन्धु ने यह प्यारी सी कहानी याद दिला दी, उनका बहुत-बहुत आभार। लीजिए, आप भी सुनिए!
महाभारत युध्द अपनी परिणति को प्राप्त हो चुका था और राज्य पाण्डवों को वापस मिल गया था। शासन की बागडोर युधिष्ठिर के हाथ थी। कहानी युधिष्ठिर के शासनकाल की ही है। एक किसान ने अपना खेत दूसरे किसान को बेच दिया। दूसरे किसान ने जब खेत जोतना शुरू किया तो हल का फल एक जगह पर अटक गया। किसान ने उस स्थान को खोदा तो स्वर्ण मुद्राओं से भरा एक कलश निकल आया। इस कलश को लेकर फौरन वह उस किसान के पास पहुँचा, जिससे उसने खेत ख़रीदा था। उसे कलश सौंपते हुए बोला कि यह लो, इस पर तुम्हारा ही अधिकार है, क्योंकि मैंने जब खेत ख़रीदा था तो सिर्फ़ मिट्टी के दाम दिए थे, इस कलश के नहीं। तुम्हारे पूर्वजों ने कभी इसे ज़मीन में गाड़ा रहा होगा, इसे अब तुम ही सँभालो। लेकिन, पहले किसान ने कलश लेने से इनकार कर दिया। उसने कहा कि मैंने तो खेत बेच दिया, अब उसमें से अनाज निकले या कुछ और, उस पर तो तुम्हारा ही अधिकार है।
बात उलझ गई। काफ़ी देर तक तर्क-वितर्क चलता रहा, पर दोनों में से कोई भी उन स्वर्ण मुद्राओं भरे कलश को अपने पास रखने को तैयार न हुआ। अन्तत: समस्या सुलटाने दोनों महाराज युधिष्ठिर के पास पहुँचे। युधिष्ठिर ने उन दोनों को ही समझाने की बहुतेरी कोशिश की, परन्तु बात न बनी। कुछ सोच-विचार कर दोनों किसानों ने सुझाव दिया कि महाराज राज्य आपका है, सो इसे आप ही सँभाले। क्यों न इन स्वर्ण मुद्राओं को राजकीय ख़जाने में जमा कर दिया जाए? पर, युधिष्ठिर भी ऐसा करने को तैयार न हुए। अन्त में यह गुत्थी इस तरह सुलझाई गई कि एक निर्धन कन्या के विवाह में इन स्वर्ण मुद्राओं को ख़र्च किया गया। यानी दोनों किसानों के साथ महाराज युधिष्ठिर ने भी उस धन पर अपना अधिकार नहीं समझा।
काश! ऐसी ईमानदारी आज के समाज में भी होती तो कल्पना करिए कि यह संसार कैसा होता! हम घर से बाहर निकलते, निर्भय-निर्द्वन्द्व। घर से खाकर निकलें या बाहर जाकर होटल-ढाबे में खा लें, बात बराबर। कहीं कोई मिलावट नहीं; खाने में असली तेल-घी है या जानवर की चर्बी, ऐसे किसी सन्देह की भी गुंजाइश नहीं। ईमानदार समाज हो तो बाज़ार में कहीं भी कुछ भी ख़रीदें तो सही दाम, ठीक सामान और फिर तो मोल-तोल की नोंक-झोंक भी क्यों? कितना सुकून मिले, जब आप किसी सरकारी दफ्तर पहुँचें और बगैर आपकी जेब पर ऑंख गड़ाए बाबू आपकी फाइलें निबटा दे, पूरी मुस्तैदी के साथ। न कोई रिश्वत न लेट-लतीफ़ी। ईमानदारी का समाज हो तो मनुष्य, मनुष्य के साथ तो विश्वासघात नहीं ही करे, प्रकृति के साथ भी समरस होकर जिए। ईमानदारी का वातावरण हो तो निठारी जैसे वीभत्स काण्ड भी न देखने पड़ें और हर तरफ़ अमन-चैन का साम्राज्य हो।
लेकिन दुर्भाग्य! आज की दुनिया में ऐसे समाज की कल्पना सिर्फ सपने की सी बात लगती है। और, ऐसा सपना देखने वाले के लिए सामान्यत: हर कोई यही कहेगा कि - दिल के बहलाने को ग़ालिब ख़याल अच्छा है। व्यवस्था के हर पायदान पर भ्रष्टाचार जो पसर चुका है। ईमानदारी तो जैसे अजायबघर की वस्तु बन गई है। हाल का ही सर्वे है कि भारत में भ्रष्टाचार निरन्तर बढ़ रहा है और ईमानदारी घट रही है। 180 देशों के बीच भ्रष्टाचार के मामले में भारत जहाँ पहले 72वें स्थान पर था, वहीं अब खिसककर और नीचे 85वें स्थान पर पहुँच गया है। ईमानदारी का अंक 3.5 से घटकर 3.4 हो गया है। दिन-दिन घटती ईमानदारी और बढ़ते भ्रष्ट आचरण का ही परिणाम है कि समाज के हर हिस्से में सड़ान्ध सा फैलता दिखाई देता है। हाल यह है कि आज दिन-दोपहर भरे बाज़ार में भी एक अकेली लड़की कहीं किसी काम से निकले तो लगता है जैसे भूखे शेर-चीतों के झुण्ड के सामने से गुज़र रही हो। सैकड़ों शिकारी निगाहें उसे घूरने लगती हैं। जबकि, होना तो यह चाहिए था कि आधी रात को भी कोई बला की ख़ूबसूरत स्त्री भी अकेली कहीं निकल जाए, तो कम से कम मनुष्य नाम के प्राणी से डरने की ज़रूरत तो उसे न ही पड़े। भय की स्थिति तो हिंस्र जानवरों को देखकर पैदा होनी चाहिए। मनुष्य को देखकर तो सुरक्षा-भाव का अहसास होना चाहिए। किसी स्वस्थ समाज की मूल पहचान वास्तव में यही है।
परन्तु आज, इस तरह के समाज-निर्माण की बात करिए तो लोग आप पर हँस पड़ेंगे और फ़ब्ती कसते हुए कहेंगे कि बन्धुवर! इस युग में ईमानदारी की राह चलेंगे तो कभी आगे नहीं बढ़ सकेंगे।
क्या सचमुच ईमानदारी की राह इतनी कठिन हो गई है; या कि ईमानदारी भरे जीवन की नियति असफलता के अन्धकार में पहुँचकर विलीन हो जाना है? नहीं, बिलकुल नहीं! ऐसा नैराश्य तो प्रतिगामी लोगों के मन में ही पैदा हो सकता है। डगर कठिन अवश्य है, पर इतनी बड़ी निराशा की कोई वजह नहीं है। रास्ते कण्टकाकीर्ण हो सकते हैं, पर बन्द नहीं हैं। असल बात हौसले की है, इच्छाशक्ति की है। प्रश्न यह है कि हमारा मन्तव्य क्या है? हमारी चाह सकारात्मक है, हम ईमानदार जीवन जीना चाहते हैं, तो ईश्वर की इस सृष्टि में सम्भावनाओं के द्वार चारो ओर खुले हुए हैं। याद रखिए कि इस संसार के विभिन्न मानवीय समाजों में व्यवस्था नाम की कोई भी चीज़ अगर बची हुई है, तो वह बेईमानी नहीं ईमानदारी के कारण है। जिस ईमानदारी को लोग जीवन से बेदख़ल करके सफल होना चाहते हैं, अगर वह पूरी तरह समाप्त हो जाए तो यह संसार चल नहीं सकता। हर तरफ़ बेईमानी का अर्थ है कि हर व्यक्ति अपना स्वार्थ साधने को हर समय सामने वाले को धोखा देने को तैयार दिखाई देगा। कोई किसी पर ज़रा भी विश्वास नहीं करेगा। और तब, जीवन-व्यवहार क्षणमात्र भी नहीं चल सकता। सिर्फ़ बेईमानी से काम निकालने का अर्थ है कि हम एक-दूसरे को ही समाप्त करने पर तुले होंगे। यहाँ तक कि न बाप-बेटे में आपसी विश्वास होगा और न भाई-बहन में। सही बात तो यह है कि यदि आएदिन हम विश्वासघात की कहानियाँ सुनते हैं तो इसका अर्थ यही है समाज में कहीं न कहीं विश्वास बचा हुआ है, जिसे कि कुछ स्वार्थी लोग तोड़ते हैं।
वास्तव में समाज में सुव्यवस्था की जो भी स्थितियाँ हैं, वे ईमानदारी के कारण हैं और दुर्व्यवस्था की जो स्थितियाँ हैं, वे बेईमानी के कारण हैं। हाँ, लोगों में अपने दायित्वों के प्रति ईमानदारी की मात्रा ज्यादा होगी तो सुव्यवस्था ज्यादा होगी और बेईमानी की मात्रा ज्यादा होगी तो दुर्व्यवस्था ज्यादा होगी। सुन्दर समाज के आकांक्षी लोगों को चाहिए कि वे जहाँ भी हैं, जैसे भी हैं, ईमानदारी को प्रोत्साहित करें। स्वयं तो ईमानदार रहें ही, अच्छी बात है, पर औरों को भी ईमानदार रहने की प्रेरणा दें तो और अच्छी बात है। ईमानदारी का सुकून बेईमानी की तमाम सुख-सुविधाओं पर निश्चित रूप से भारी है; पर याद यह भी रखना चाहिए कि निर्वीर्य ईमानदारी का इस युग में बहुत अर्थ नहीं है। ईमानदारी मजबूरी का नाम नहीं होना चाहिए। ईमानदारी का वास्तविक रूप वास्तव में मनुष्य को अपने काम में योग्य बनाता है, उसे दक्षता की दिशा में ले जाता है। अकुशलता, फूहड़पना एक तरह से अपनी स्वाभाविक क्षमता के प्रति बेईमानी है। ईमानदार व्यक्ति कार्यकुशल हो तो वह कभी बेकार नहीं रह सकता। भ्रष्टाचार चाहे जितना बढ़ जाए, पर ईमानदार आदमी की आवश्यकता कभी ख़त्म नहीं हो सकती। सचाई तो यह है कि बेईमान भी चाहता है कि उसके यहाँ काम करने वाला उसके साथ ईमानदारी से रहे। मतलब कि बेईमान को भी एक स्तर पर जाकर ईमानदार की ही जरूरत है। बस, चाहिए यह कि यदि हम अपने साथ दूसरों का बरताव ईमानदारी भरा चाहते हैं, तो हम भी दूसरों के साथ ईमानदारी से प्रस्तुत हों। जीवन-व्यवहार का यही मूल रहस्य समझने-समझाने की है। हमारा जीवन ज्यादा से ज्यादा सौ-सवा सौ साल का है। अपवाद के तौर पर बहुत ज्यादा जी लेंगे तो डेढ़-दो सौ साल। इसी से हम सोच सकते हैं कि काल के अखण्ड प्रवाह में मनुष्य का भरपूर जीवन भी समन्दर में बूँद बराबर भी न होगा। ऐसे में, याद रखना चाहिए कि बेईमानी की बैसाखी मजबूती का सिर्फ़ भ्रम पैदा कर सकती है और बीच डगर में कभी भी धोखा दे सकती है। शाश्वतता तो सत्य, ईमानदारी से नि:सृत मूल्यों की ही रहती है। आख़िर बेईमानी के व्यापार से कुछ लाख या करोड़ रुपए इधर-उधर करके भी हम कौन से नए सूरज, चाँद, सितारे गढ़ लेंगे!
आइए, अपनी अन्तरात्मा में थोड़ा आत्मबल जगाएँ, ईमानदारी की राह पर दो पग बढ़ाएं, अपने सगे-सम्बन्धियों-पड़ोसियों को भी इस राह का राही बनने की थोड़ी प्रेरणा दें - और इस तरह, इस संसार को थोड़ा और रहने के क़ाबिल बनाएं। मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है।