सोमवार, 5 जनवरी 2009

भगवान के घर

ईश्वर की प्रार्थना के लिए भक्तों को क्या चाहिए? मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च या और कुछ? राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का कहना था - 'देश के करोड़ों ग़रीबों और भूखों मरते लोगों की सेवा करनी है तो प्रार्थना मंदिर ईंट-चूने का मकान नहीं हो सकता, इसके लिए तो आकाश का छप्पर और दिशाओं रूपी खंभे ही काफ़ी होने चाहिए।' गाँधीजी अपनी इस मान्यता के साथ ही जिए और मरे, और बीती सदी के सबसे बड़े जनसेवक साबित हुए। बापू के इस वक्तव्य को अहसास में उतारना हो तो एक बार उनकी आख़िरी साधना-स्थली सेवाग्राम आश्रम (वर्धा) देखना चाहिए। वहाँ 'बापू कुटी' और 'आदि निवास' के बीच वह स्थान है जहाँ गाँधीजी आश्रम के रहवासियों, सहयोगियों के साथ सर्वधर्म प्रार्थना किया करते थे। बिल्कुल सीमाहीन प्रार्थना मंदिर। ईंट-पत्थरों की कोई चहारदीवारी नहीं। एक अदना-सा चबूतरा भी नहीं। खुली धरती, खुला आसमान और चहुँ ओर की खुली-खुली प्रकृति। ऐसा था गाँधीजी का सीमाहीन, बंधनविहीन प्रार्थना मंदिर कि आसपास का वातावरण भी प्रार्थनारत दिखाई दे।

     आज गली-गली, चौराहे-चौराहे पर दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बन रहे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च वग़ैरह आदमी के गिरते चरित्र को नहीं बचा पा रहे हैं तो ऐसे में गाँधीजी की मान्यता ही ज्यादा प्रासंगिक लगती है। शायद हम ईंट-पत्थरों को जोड़-जोड़कर अपने-अपने भगवानों के भाँति-भाँति के भव्य घर बनाने में उलझ गए हैं। इस उलझाव में प्रभु का असली काम कहीं पीछे छूट गया है। ऐसा न होता तो भगवान के जिन घरों में प्रेम, सेवा, सहिष्णुता के सुवास की अनुभूति होनी चाहिए, वहाँ सांप्रदायिक तनावों की सड़ांध न महसूस होती।

     भगवान के ये घर कभी मानवीय बुराइयों पर विजय पाने की साधना-स्थली भले ही रहे हों, पर अब तो बनवाने वालों के आत्म-प्रदर्शन से बहुत आगे की बात नहीं लगते। जितने भव्य मंदिर, उतना ही ऊँचा निर्माताओं का अभिमान। मंदिर विशालकाय हो, भव्य हो तो भक्तों का हुजूम उमड़ पड़ता है। जीर्ण-शीर्ण छोटे मंदिर के पुजारी को तो रोटी के भी लाले पड़ जाएँ। दक्षिण भारत की यात्रा करें तो मंगलौर से कोई तीस किलोमीटर की दूरी पर मिलेगा हीरे-पन्ने के व्यापार का गढ़ - मूड़बिदरी। यहाँ जिधर भी निगाह दौड़ाएँगे मंदिर ही मंदिर नज़र आएँगे। एक से एक भव्य मंदिर। कहते हैं मूड़बिदरी में पहला व्यापारी आया तो उसने अपने लिए एक विशेष मंदिर बनवाया। जब दूसरे व्यापारी आए तो वे भी पीछे क्यों रहते? सबने एक से बढ़कर एक भव्य मंदिर बनवाने की जैसे होड़ लगा दी। नतीजन, यहाँ चप्पे-चप्पे पर ऐसे भव्य मंदिर देखने को मिल जाएँगे कि राजाओं के महलों की चमक फीकी पड़ जाए। लेकिन ये मंदिर किसी संवेदनशील दर्शक के मन पर कोई सौम्य प्रभाव नहीं छोड़ते; बल्कि, आतंक बनकर छा जाते हैं और वितृष्णा पैदा करते हैं। जिस देश में लाखों-करोड़ों लोग अभी भी दो जून की रोटी का ठीक से इंतज़ाम न कर पाते हों, वहाँ भव्यता की यह कैसी ईश्वर भक्ति? भक्त तो कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, नानक, रैदास भी थे जिन्होंने अपने भगवान अपने मन-मंदिर में ही पा लिए थे। महापुरुषों का संदेश यही है कि दीन-दुखियों की सेवा, देश-समाज की सेवा ही सबसे बड़ी प्रभु-भक्ति है। महर्षि दयानंद सरस्वती ने तो आर्यसमाज के छठे नियम के रूप में प्रभु-भक्ति का पैमाना ही बना दिया कि- 'संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है।' वास्तव में यदि हम महापुरुषों की वाणी और उनके जीवन-व्यवहार से प्रेरणा लें तो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे सबके ही रूप बदल जाएँगे। भगवान के ये घर सही मायने में सेवा-स्थली और दीन-दुखियों के लिए आश्रय-प्रदाता बन जाएँगे और जीवन दया, करुणा, सेवा के भाव-संगीत से झंकृत हो उठेगा।

रविवार, 4 जनवरी 2009

भारतीय संस्कृति की पहचान

भारतीय संस्कृति की पहचान का सवाल आसान और कठिन दोनों ही है। आसान इसलिए है कि भारतीय संस्कृति का उत्स बहुत स्पष्ट है और इसे इसके उत्स से देखने की सहज कोशिश करें तो इसकी विराटता का रहस्य परत-दर-परत आसानी से खुलता चला जाता है। इसके विपरीत, यदि सांस्कृतिक पहचान का यह सवाल काफ़ी जटिल लगता है तो इसलिए कि भारतीय परिवेश में जन्मे विभिन्न मत, पंथ या सम्प्रदाय भारतीय संस्कृति की अपने-अपने हिसाब से अलग-अलग परिभाषाएँ करते हैं। इस देश के बुध्दिजीवियों की भी इस मुद्दे पर अलग-अलग स्थापनाएँ हैं। पश्चिमी शिक्षा-दीक्षा में पले-बढ़े विद्वान, बुध्दिजीवी, इतिहासकार वग़ैरह तो कुछ ज्यादा ही आत्मविश्वास के साथ इस मुद्दे पर अपने विचार व्यक्त करते हैं और निश्चित रूप से इस सवाल को और जटिल बना देते हैं।

      भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए ढेर सारे लोग, ढेर सारे संगठन और ढेर सारे जनान्दोलन अक्सर आवाज़ उठाते ही रहते हैं, लेकिन समस्या यह है कि जब संस्कृति की पहचान ही स्पष्ट न हो तो आख़िर बचाया क्या जाए? संस्कृति की रक्षा के लिए मुहिम चलाने वालों से यदि पूछ लिया जाए कि आख़िर वे किन मूल्यों की रक्षा करना चाहते हैं, तो वे प्राय: असमंजस में पड़ जाते हैं। कोई भारतीय संस्कृति के लिए एक शब्द देना चाहता है - संयम; और इसको लेकर ज़ोरदार और लुभावना भाषण दे डालता है। कोई कहता है कि हमारी संस्कृति की पहचान 'त्याग' के रूप में होती है। किसी का विचार है कि भारतीय संस्कृति के मूल में दया, करुणा, अहिंसा जैसे मूल्य हैं। इसी तरह से अपने को समझदार समझने वाले हर आदमी और हर सम्प्रदाय की संस्कृति को लेकर अलग-अलग मान्यताएँ हैं। यहाँ ध्यान देने वाली एक बात ज़रूर है कि सांस्कृतिक पहचान को लेकर ये सभी विचार व मान्यताएँ अलग-अलग होते हुए भी एक-दूसरे के विपरीत नहीं हैं। सब कहीं न कहीं से भावनात्मक स्तर पर एक ही अन्तर्धारा में प्रवाहित होते हुए दीखते हैं। ऊपर से अगर कुछ मतभेद दिखते भी हैं तो आन्तरिक रूप में वे फिर भी एक सूत्र में ही जुड़े हैं। इन कुछ मतभेदों के बावजूद यदि सभी अपनी संस्कृति को संयम, त्याग, दया, करुणा, अहिंसा आदि के रूप में ही व्याख्यायित करते हैं और हिंसा या भोगवाद को अपसंस्कृति के रूप में देखते हैं तो इसका साफ़ अर्थ है कि इस देश की भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के मूल उद्गम का मनोभाव अन्तत: एक ही है।

      भारतीय इतिहास दृष्टि से देखे तो दरअसल हुआ यह है कि महाभारत काल के बाद जब इस देश का सामाजिक ढाँचा काफ़ी अव्यवस्थित होने लगा तो इस अव्यवस्था को ही अपने-अपने हिसाब से व्यवस्थित रूप देने के लिए इस देश के विचारकों, महापुरुषों ने सम्प्रदायों की नींव डाली। छिन्न-भिन्न होते सांस्कृतिक पहचान के एक लम्बे दौर में अलग-अलग सम्प्रदायों और विचारशील लोगों के लिए समग्रता में अपनी सांस्कृतिक विरासत की पहचान मुश्किल हुई तो उन्होंने अपने-अपने हिसाब से इसके सिर्फ़ कुछ अंगों को ही लेकर उन्हें अपनी मौलिक व्याख्याएँ दीं और संस्कृति का समग्र रूप कहकर प्रचारित किया। कहने का अर्थ यह है कि संयम, त्याग, अहिंसा, दया, करुणा आदि भारतीय संस्कृति के मूल उत्स और समग्र रूप की पहचान नहीं कराते, बल्कि ये सब हमारी संस्कृति के विराट रूप के सिर्फ़ कुछ उदात्ता मूल्य या अंग ही हैं।

      भारतीय संस्कृति की पहचान हर तरह की रूढ़ियों से मुक्त होकर सहजता से करने की कोशिश करें तो हमें इसकी शुरुआत वेदों से करनी पड़ेगी। पाश्चात्य विद्वानों और उन्हीं के मानसपुत्र कुछ भारतीय इतिहासकारों द्वारा तमाम भ्रम फैलाए जाने के बावजूद वेद ही भारतीय सभ्यता-संस्कृति के आदि ग्रन्थ सिध्द होते हैं। इस तरह से स्पष्टत: भारतीय संस्कृति के उत्स्रोत भी वेद ही माने जाने चाहिए। वेदों की बात करते हुए स्पष्ट रूप से यह भी समझ लेना चाहिए कि ये कोई हिन्दुओं के धर्मग्रन्थ नहीं हैं। वैदिककाल में तो हिन्दू ही क्या, किसी भी सम्प्रदाय का अता-पता ही नहीं था। 'हिन्दू' शब्द तो बहुत बाद का है और बौध्द, जैन आदि सम्प्रदाय भी बहुत बाद के हैं। वास्तव में विरासत के रूप में तो वेद कम से कम भारतीय परिवेश में जन्मे सारे ही सम्प्रदायों के सांस्कृतिक स्रोत माने जाने चाहिए, भले ही कुछ सम्प्रदायों ने वेदों की मनमानी व्याख्याएँ करके उन पर अधिकार करने की कोशिश की हो या कि कुछ ने इनका विरोध किया हो। इस तरह से जब यह समझ स्पष्ट हो जाती है कि भारतीय संस्कृति के उद्गम स्थल वेद हैं तो संस्कृति का मूल स्वरूप समझना भी आसान हो जाता है।

      वेदों में पहला वेद है--ऋग्वेद। ऋग्वेद का पहला मन्त्र है -'अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्'। यह पहला मंत्र ही वास्तव में संस्कृति की बुनियाद को स्पष्ट कर देता है। 'यज्ञ' की बात से वेदों की शुरुआत क्या हुई है कि चारों वेद ही यज्ञ की महिमा गाते दिखाई देते हैं। वास्तव में वेदों में जो कुछ भी कहा गया है, उस सबका उद्देश्य यज्ञ ही है। 'यज्ञ' के इतने रूप और इतनी व्यापकता है कि तमाम विद्वानों ने इसका मर्म न समझकर वेदों को निरा स्थूल कर्मकांडों के व्यवस्था-ग्रन्थ ही घोषित कर दिए हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि 'यज्ञ' का मूलभाव समझ लिया जाय तो स्पष्ट समझ में आएगा कि भारतीय संस्कृति को एक शब्द में समाहित करने के लिए उसे 'यज्ञ' ही कहना सर्वोचित होगा। जरा गहरी विचारणा में उतरें तो इस उपपत्ति के 'इति सिध्दम्' तक पहुँचना मुश्किल नहीं है।

      'यज्ञ' शब्द संस्कृत के 'यज्' धातु से बना है और इसका अर्थ निकलता है - देवपूजा, संगतिकरण और दान। इन तीनों शब्दों को थोड़ा और स्पष्ट करें तो चर-अचर सम्पूर्ण जगत् में चल रहे स्थूल या सूक्ष्म क्रिया और व्यवहार की सुन्दर व्याख्या हो जाती है। समस्त संसार में तीन तरह की स्थितियाँ बनती हैं। या तो कोई बड़ा होगा, या बराबरी पर होगा अथवा छोटा होगा। ये तीनों स्थितियाँ जड़-चेतन सभी पर लागू होती हैं और शक्ति या गुण किसी भी स्तर पर हो सकती हैं। इस तरह से जो किसी स्तर पर बड़ा होगा या कहें कि किसी न किसी रूप में दाता की स्थिति में होगा उसे 'देव' कहा जाएगा और वह पूजा (आदरणीयता) का सहज अधिकारी होगा। जो बराबरी पर होगा वह संगतिकरण या तालमेल का सहज अधिकारी होगा। और, जो छोटा होगा तो वह कुछ पाने का अर्थात् दान लेने का सहज अधिकारी होगा ही। जड़ जगत् का एक उदाहरण लेकर इसे आसानी से समझा जा सकता है। हम देखते ही हैं कि दो गड्ढों में से यदि एक का जलस्तर ऊँचा हो और दूसरे का नीचा, तो ऊँचे जलस्तर का बहाव निचले स्तर में तब तक होता रहता है जब तक कि दोनों बराबरी पर न आ जाएँ। मतलब यह कि उँचाई पर मौजूद जलस्तर देव की या दाता की स्थिति में है, नीचे का जल स्तर कुछ पाने की या दान लेने की स्थिति में है और जब दोनों का स्तर बराबर हो जाता है तो उनमें संगति या तालमेल चरितार्थ होने लगता है। इसी तरह से हम सब ही किसी को कुछ देने, किसी से संगति बिठाने या किसी से कुछ पाने के अधिकारी हैं। वास्तव में जड़-चेतन सम्पूर्ण जगत में परस्पर एक दूसरे से लाभ पहुँचाने के इस व्यवहार को ही 'यज्ञ' कहा गया है।

      भारतीय संस्कृति की स्थापना यह है कि यह सम्पूर्ण जगत् यज्ञमय है और इस जगत् का नियन्ता सबसे बड़ा यज्ञकर्ता है। चूँकि मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसे कि सोच-विचार कर कर्म करने या न करने की स्वतन्त्रता दी गई है, इसलिए इसे चाहिए कि सृष्टि में सहज भाव से चल रही यज्ञमयता से प्रेरणा लेकर अपने कर्मों को भी यज्ञमय बनाए। मनुष्य के सन्दर्भ में यज्ञ की परिभाषा है-'यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म:।' अर्थात् श्रेष्ठतम कर्म ही यज्ञ है। यज्ञीय कर्मों को ज्ञान-यज्ञ, कर्म-यज्ञ और उपासना-यज्ञ के वर्गीकरण से और स्पष्टता दे दी गई। इस वर्गीकरण से ही सामान्य व्यवहार से लेकर विज्ञान की बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ तक नियन्त्रित हो जाते हैं। लेकिन यहाँ यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि चाहे सामान्य व्यवहार हो या विज्ञान की उपलब्धि, कोई भी कर्म 'यज्ञ' तभी बनता है जबकि उसमें श्रेष्ठतम् भाव हो अर्थात् स्व-अर्थ यानी स्वार्थ से ऊपर उठकर परस्पर एक-दूसरे को लाभ पहुँचाने का लोककल्याणकारी भाव हो।

      परस्पर एक दूसरे को लाभ पहुँचाने के इस लोक कल्याणकारी भाव या कहें कि श्रेष्ठतम् कर्म की साधना के लिए प्राचीन भारतीय संस्कृति में 'पंच महायज्ञ' की व्यवस्था दी गई थी। यह एक महत्तवपूर्ण बात है कि यज्ञों की विशाल शृंखला में से मनुश्य की सामान्य दिनचर्या में शामिल बहुत कम समय में सम्पन्न होने वाले सिर्फ़ पाँच यज्ञों को 'महायज्ञ' कहा गया है तो इसकी ख़ास वजह है। दरअसल ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ, अतिथि यज्ञ और पितृ यज्ञ के नाम से प्रचलित ये यज्ञ ही मनुष्य को सही मायने में मनुष्य बनाते हैं। इन यज्ञों को इनकी मूल भावना के साथ व्यवहार में उतारने का ही परिणाम था कि भारत हज़ारों वर्षों तक सम्पूर्ण संसार के लिए एक उदात्ता संस्कृति का प्रचारक और आदर्श बना रहा।

      पंचमहायज्ञ की व्याख्या के साथ भारतीय संस्कृति की पहचान एकदम स्पष्ट हो जाती है। पहले 'ब्रह्मयज्ञ' को लें। 'ब्रह्मयज्ञ' में स्वाध्याय और संध्या, ये दो मुख्य चीजें समाहित हैं। स्वाध्याय का अर्थ है 'स्व' का अध्याय अर्थात् स्वयं का अध्ययन तथा 'सु' अध्याय अर्थात् जो कुछ स्वयं से इतर बेहतर है उसका अध्ययन। 'स्वाध्याय' के द्वारा मनुष्य स्वयं के आचरण की समीक्षा तथा अच्छी-अच्छी पुस्तकों आदि से ज्ञान प्राप्त करके कर्म की श्रेष्ठता सम्पादित करता है। 'संध्या' के द्वारा मनुष्य प्रतिदिन दोनों संधि बेलाओं में, जिसकी अनुकम्पा से यह शरीर मिला है, उस सृष्टि निर्माता परमशक्ति के समर्पण होकर अपने अहंभाव को नष्ट करता हुआ लोककल्याणकारी कर्म करने की संकल्पशक्ति धारण करता है। इस तरह से ब्रह्मयज्ञ का उद्देश्य है - स्वाध्याय द्वारा ज्ञान प्राप्ति, प्रभुभक्ति और संकल्प-संचय।

      'देवयज्ञ' के तहत अग्निहोत्र या हवन आता है। यह सामान्यत: समूह में किया जाने वाला यज्ञ है। मनुष्यों से लेकर जगत् के विभिन्न भौतिक पदार्थों तक में परस्पर सामंजस्य बिठाकर कार्य सम्पादन की एक तरह से कला है देवयज्ञ। इसका एक सामान्य उद्देश्य यह है कि मनुष्य अपने विभिन्न कर्मों से जाने-अनजाने पर्यावरण को जो कुछ भी नुकसान पहुँचाता है, इस यज्ञ के द्वारा उसे उसकी यथासम्भव भरपाई भी करनी चाहिए। विभिन्न तरह की लाभकारी जड़ी-बूटियों और गोघृत आदि के द्वारा किए गए अग्निहोत्र का आरोग्यकारी प्रभाव अब आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं ने भी अच्छी तरह प्रमाणित कर दिया है।

      'बलिवैश्वदेव यज्ञ' का उद्देश्य यह है कि मनुष्य जो कुछ भी अर्जित करता है उसमें मनुष्येतर प्राणियों का भी योगदान रहता है और इसलिए उसे स्वार्थी वृत्ति के वशीभूत नहीं रहना चाहिए। स्वार्थ-वृत्ति त्यागने का सबसे अच्छा अवसर रोज़मर्रा के जीवन में भोजन के समय उपस्थित होता है। इसलिए हमारी प्राचीन संस्कृति में यह व्यवस्था दी गई कि बलिवैश्वदेव यज्ञ के रूप में हम अपनी उदरपूर्ति से पहले पशु-पक्षियों से लेकर असहाय और रोगी मनुष्यों का भी अवश्य ध्यान रखें। चींटी, कुत्तो, गाय आदि को आटा या रोटी देने की आज भी जारी भारतीय परम्परा वास्तव में बलिवैश्वदेव यज्ञ का ही भूला-बिसरा हुआ सा एक रूप है।

      'अतिथि यज्ञ' का अनुष्ठान इस बात के लिए बनाया गया कि हम समाज के ज्ञानी, अनुभवी लोगों का सम्मान करते हुए उनसे व्यवहार ज्ञान प्राप्त करें। 'अतिथि' में बिना किसी निश्चित तिथि के आने का भाव तो है पर ज्ञानी, अनुभवी होना भी अतिथि के लिए ज़रूरी है। आज हम चाहे जिसको भी जिस तरह से अतिथि मान लेते हैं, प्राचीन भारतीय संस्कृति में ऐसा नहीं था।

      पाँचवाँ 'पितृयज्ञ' इसलिए बनाया गया कि जिन लोगों ने हमें पाल-पोसकर बड़ा किया उन पितरों अर्थात् माता-पिता और बड़े-बुजुर्ग़ों के प्रति हम सदैव कृतज्ञ रहें। आज जो हिन्दू धर्म में मरने के बाद श्राध्द-तर्पण के रूप में पितृयज्ञ का अनुष्ठान किया जाता है, वह वास्तव में वैदिक संस्कृति का विकृत रूप है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में तो श्राध्द-तर्पण मृत नहीं, बल्कि जीवित पितरों के लिए किए जाने का विधान है। श्राध्द और तर्पण का आशय ही यह है कि श्रध्दापूर्वक कृतज्ञभाव से सेवा करके तृप्त करना। श्रध्दापूर्वक सेवा करके तृप्त करना स्पष्टत: जीवित पितरों के लिए ही सम्भव हो सकता है।

      इस तरह से इस 'पंचमहायज्ञ' के अनुष्ठान से ही मनुष्य सही मायने में कर्म की श्रेष्ठता पर पहुँचता है, यह भारतीय संस्कृति की मूल स्थापना है। इसीलिए मनु ने स्पष्ट कहा है- 'पंचमहायज्ञेन् यथाशक्ति न हापयेत्।' अर्थात् पंचमहायज्ञों के अनुष्ठान में जहाँ तक सम्भव हो अनवधान नहीं होना चाहिए। यहाँ तक कहा गया है कि जैसे हम नियमित साँस लेते हैं और भोजन करते हैं, वैसे ही हमें पंचमहायज्ञों को भी आजीवन निभाना चाहिए। इन यज्ञों की अनिवार्यता के पीछे असली उद्देश्य यह है कि इन्हें आस्थापूर्वक व्यवहार में उतारने वाला मनुष्य स्वार्थ से हटकर लोककल्याणकारी भाव से ही जीवन जिएगा और सही मायने में मनुष्य बनेगा।

      इस व्याख्या से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संस्कृति के त्याग, संयम, दया, करुणा, परोपकार आदि उदात्ता मूल्य 'यज्ञ' के मूल विचार से ही नि:सृत होते हैं और भारतीय संस्कृति की असली पहचान 'यज्ञ' के रूप में ही की जानी चाहिए।

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

नास्तिक कौन!

नास्तिक-अर्थात् जो ईश्वर को न माने। यही इसका प्रचलित अर्थ है। मतलब यह कि ईश्वर में विश्वास करने वाले आस्तिक हैं भले ही वे किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के हों। नास्तिक हुए जैन, बौध्द, चार्वाक; या आधुनिक साम्यवादी क़िस्म के लोग। लेकिन नास्तिकता की मूल परिभाषा कुछ और कहती है। मूल परिभाषा है - 'नास्तिको वेद निन्दक:'। यानी जो वेद निन्दक हैं, वेद विरोधी हैं, वेद को अमान्य करते हैं, वे नास्तिक हैं।

      ध्यान देने पर पता चलेगा कि यह प्राचीन और मूल परिभाषा ही नास्तिकता और आस्तिकता का अर्थ ज्यादा सही ढंग से व्यक्त करती है और विज्ञानवाद का प्रतिपादक भी है। 'विद्' धातु से निष्पन्न 'वेद' शब्द का मूल अर्थ है-ज्ञान। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद इसीलिए वेद कहे जाते हैं क्योंकि माना जाता है कि इनमें मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक मूल ज्ञान की बातें बतायीर् गई हैं। इस तरह 'नास्तिको वेद निन्दक:' का अर्थ हुआ कि जो ज्ञान का विरोध करे, ज्ञान को प्रतिष्ठा न दे, अमान्य करे वह नास्तिक है। थोड़ा और गहरे उतरें तो पता चलेगा कि ज्ञान का स्थूल रूप है- अस्तित्व, वजूद। इस संसार में जो कुछ है अस्तित्वमान है। सूक्ष्म, स्थूल असंख्य मूर्तिमान पदार्थों से लेकर अमूर्त विचारों, भावनाओं तक सब कुछ अस्तित्व के ही रूप हैं। अस्तित्व भाव से ही आस्तिक निकला है। अस्तित्व का स्वीकार आस्तिकता है, अस्तित्व का नकार नास्तिकता।

      जीवनविद्या के प्रवर्तक बाबा नागराज कहते हैं, इस सृष्टि का सत्य है- अस्तित्व। इस अस्तित्व को जान लिया जाय तो जीवन का मर्म समझ में आ जाएगा और हम सहज, सुन्दर जीवन जीने लगेंगे। इस तरह देखें तो अस्तित्व में आस्था रखने वाले, उसे मानने वाले आस्तिक कहे जाने चाहिए। यही विज्ञानवाद है। इस तरह यह भी स्पष्ट होता है कि ईश्वर को न मानने वाले पन्थ, विचारधारा के लोग अस्तित्व को मानते हैं तो वे आस्तिक ही हैं। आज के साम्यवादी और विशेष रूप से विज्ञान को ही सब कुछ मानने वाले धुर आस्तिक हुए, क्योंकि वे आस्तित्व के या कहें 'अस्ति' भाव के पुजारी है। बल्कि देवी-देवता और भगवान में आस्था रखने वाले या धर्मभीरु लोग हो सकता है कि ज्यादा नास्तिक क़िस्म के सिध्द हों, क्योंकि ऐसा प्राय: देखा जाता है कि कई तरह के धार्मिक विश्वास ज्ञान का, संसार के यथार्थ सत्य या अस्तित्व का विरोध करते हैं। हो सकता है कई तरह की धार्मिक आस्थाएँ सिर्फ़ रूढ़ियाँ हों और सत्य से उनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता ही न हो।

      जीवन-व्यवहार में अस्तित्व भाव के स्वीकार का अर्थ है - जैसे हमारा अस्तित्व, वैसे ही हमसे इतर प्राणियों का भी अस्तित्व। इससे जीवन के प्रति सम्मान भाव पैदा होता है और समस्त जीव जगत के सुख-दुख के अहसास का यथार्थ भाव प्रबल बनता है। अस्तित्व मो मान्य करने से ही सृष्टि के विविध पदार्थों के यथोचित उपयोग में लेने और प्रकृति-सम्मत जीवन जीने का विज्ञान-भाव पैदा होता है। यदि हम सृष्टि को जैसा चलना चाहिए, वैसा चलने देने में सहयोगी हैं, इस संसार में अपनी भूमिका कुशलता से निभाते हैं, तो सृष्टि में अस्तित्व की स्थिति का ही सम्मान करते हैं; और यदि, हम प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करते हैं, सृष्टि के सुचारु रूप से संचालित होने में बाधा पहुँचाते हैं, तो इसका अर्थ है कि अस्तित्व भाव की ही उपेक्षा करते हैं। दूसरों को दुख देना, एक तरह से दूसरों के अस्तित्व की उपेक्षा है। महावीर स्वामी ने यदि कहा कि -जियो और जीने दो- तो इसका अर्थ यही है कि सिर्फ़ हमीं हम नहीं है इस संसार में, हमसे इतर भी हमारे जैसे अस्तित्व वाले हैं, इसलिए हमारे जैसा ही जीने का हक उनका भी बनता है। इस तरह देखें तो सृष्टि में अस्तित्व को स्वीकार करना, यानी प्रकृति के साथ समरसता और सहजता में जीना ही जीने की कला है, जीवन विद्या है और यही आस्तिकता है। इस सृष्टि में जीव-जगत से लेकर जड़-जगत तक के आपसी अन्तर्सम्बन्धों को समझ लेना और अन्योन्याश्रितता की अनिवार्यता को हृदयंगम करके जीवन-व्यवहार चलाना अस्तित्व का स्वीकार है, सम्मान है, जीवन का ज्ञान है, आस्तिकता है। कुल निहितार्थ यही है कि अच्छे काम करने वाले आस्तिक हैं, भले ही वे देवी-देवताओं से दूर रहते हों और बुरे काम करने वाले, स्वयं का स्वार्थ साधने के लिए दूसरों का जीवन नष्ट करने वाले नास्तिक हैं, भले ही वे भाँति-भाँति के भगवानों और देवी-देवताओं के पूजा-पाठ में दिन गुज़ार देते हों।