उस 12-13 वर्ष के बच्चे ने दुकानदार से कहा, ''अंकल, एक पैकेट नमक दे दो।'' दुकानदार ने नमक का पैकेट बच्चे की तरफ़ बढ़ा दिया। बच्चा कुछ देर उसे उलट-पुलटता रहा, फिर कुछ सोचते हुए बोला, ''नहीं ये वाला नहीं, दूसरा दो।'' दुकानदार ने दूसरी कंपनी का पैकेट निकाला। बच्चा अब कुछ परेशान हो उठा, ''नहीं अंकल, ये भी नहीं चाहिए। ऐसा है, कल टी. वी. पर देखकर आऊँगा फिर बताऊँगा कि कौन वाला नमक चाहिए।'' यह कहते हुए वह सरपट घर की तरफ़ दौड़ पड़ा।
यह कोई काल्पनिक नहीं, एक सच्ची घटना है जो मेरी ही ऑंखों के सामने घटी। इस घटना से विज्ञापनी मायाजाल की इनसानी जेहन पर मज़बूत होती पकड़ और उसके ख़तरों के चिंताजनक संकेत मिलते हैं। इससे यह अहसास और ज्यादा तीव्र, स्पष्ट और गहरा होता है कि कैसे बाज़ारी शक्तियाँ सिर्फ़ मुनाफ़े के लिए आदमी के विराट क्षमताओं वाले दिमाग़ को विकलांग बना रही हैं। और असल में तो बचपन से ही आदमी के दिमाग़ को, जिसे कि स्वतंत्र विकास करना चाहिए, विपरीत दिशा में मोड़कर कुंद कर देना, एक राष्ट्र ही नहीं पूरी मानवीय सभ्यता के लिए कितना नुक़सानदेह हो सकता है, इसकी कल्पना तक भयावह है। कहने को विज्ञापनों का असली उद्देश्य जनसामान्य तक विभिन्न उत्पादों की जानकारी पहुँचाना है, लेकिन अब जुनून की हद तक उपभोक्तावाद की मानसिकता पैदा करना ही इनका मुख्य उद्देश्य रह गया है। विज्ञापन अब बाज़ार तैयार करने के सबसे शक्तिशाली हथियार हैं।
भारतीय संस्कृति और परम्परा में जिन चीज़ों के बारे में अपरिचय की स्थिति हो, उनके इस्तेमाल की मनाही रही है। वस्तुओं की निर्माण प्रक्रिया की पवित्रता और जीवनचर्या में उनकी ज़रूरत, ये दो उपयोग के निर्णायक बिन्दु रहे हैं। विज्ञापनी मायाजाल ने इन दोनों ही निर्णायक पहलुओं को बेमानी बना दिया है। विज्ञापन इतने आक्रामक रूप में सामने आते हैं कि किसी उत्पाद के उपादान क्या-क्या हैं, या कि उसके उत्पादन की प्रक्रिया में कितनी सफ़ाई और पवित्रता है, ये सवाल बहुत पीछे छूट गए हैं। यह विज्ञापनों का ही कमाल है कि घर में अपनी ही ऑंखों के सामने बनी चीज़ों से भी ज्यादा विश्वसनीय विज्ञापित ब्रांड की चीज़ें हो गई हैं। हालत यह है कि ऐसे तमाम लोग, जो शाकाहार के हिमायती हैं और मांस जैसी चीज़ों को देखना भी पसंद नहीं करते, वे भी बाज़ार में पहुँचकर मांस या दूसरी अभक्ष्य चीज़ें मिली हुई जाने कौन-कौन सी वस्तुएँ बड़े शौक़ से हलक़ के नीचे उतारने में लग जाते हैं।
विज्ञापनी संस्कृति ने हमारी ज़रूरतों का बिलकुल नया ही संसार रच दिया है। अब हमारी ज़रूरतें हम ख़ुद नहीं, बल्कि विज्ञापन तय करते हैं। उत्पादन ज़रूरतों के हिसाब से नहीं, बल्कि ज़रूरतें उत्पादन के हिसाब से तय होने लगी हैं। कोई नया उत्पाद आ जाता है, फिर विज्ञापन उसे अनिवार्य ज़रूरत बनाकर प्रस्तुत करते हैं। इसका उदाहरण लेना हो तो नहाने के साबुन की बात कर सकते हैं। मेरे लिए भी यह कल्पना के बाहर की बात थी कि भला साबुन के बग़ैर नहाने के बारे में कैसे सोचा जा सकता है? लेकिन अब एक लंबे अरसे से बिना साबुन के ही नहाते रहने के बाद समझ में आ रहा है कि जो लोग शरीर की सफ़ाई के लिए साबुन को अनिवार्य समझते हैं, वे दरअसल एक तरह की मानसिक गुलामी के ही शिकार हैं। नहाने के बाद सिर्फ़ रोयेंदार तौलिए से शरीर को रगड़-रगड़कर साफ़ कर लेने या बेसन, दही, मुलतानी मिट्टी वगैरह लगाकर नहाने के बाद की स्फूर्ति, ताज़गी और त्वचा की निरोगता का अहसास तो वे ही कर सकते हैं जो साबुन की गुलामी छोड़कर ये विकल्प अपना चुके होंगे। यह विज्ञापनों का ही जादू है कि साबुन जैसी और भी ढेरों एकदम से ग़ैरज़रूरी चीज़ें आधुनिक जीवनशैली में अनिवार्यता की हद तक ज़रूरी लगने लगी हैं।
विज्ञापन अधिकांशत: अतिशयोक्तिपूर्ण और झूठ के पुलिंदे होते हैं, पर प्रभाव सच का पैदा करते हैं। इस प्रभाव का ही नतीजा होता है कि वाहियात चीजें भी रोज़मर्रा की ज़रूरतें और ज़िंदगी की शान बनने लगती हैं। यह विशुध्द विज्ञापनों का प्रभाव है कि अब गाँव-देहात के लोग तक नीम, बबूल की दातून को दकियानूसी मानकर छोड़ते जा रहे हैं और भाँति-भाँति के टूथपेस्ट दाँतों पर रगड़ने लगे हैं। कितने पढ़े-लिखे जागरूक लोगों को तो मालूम भी होता है कि टूथपेस्ट दाँतों के लिए निश्चित रूप से नुक़सानदेह ही हैं, पर विज्ञापनों ने ऐसी मानसिक गुलामी पैदा कर दी है कि वे दातून या तमाम अच्छे देशी मंजनों की वकालत करते हुए भी रसायन मिले टूथपेस्ट के झाग का आकर्षण नहीं छोड़ सकते। पेप्सी-कोका कोला जैसे तमाम शून्य पोषकता के नुक़सानदेह शीतलपेयों की भी यही कहानी है।
दरअसल विज्ञापनों की चकाचौंध का सबसे काला पक्ष यह है कि वे आदमी की स्वतंत्र निर्णय की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। विज्ञापन विवेक को कुंद कर देते हैं; और इस तरह, ख़ुद को समझदार समझने वाला व्यक्ति भी अनजाने में कब उपभोक्तावाद का शिकार बन जाता है, उसे पता ही नहीं चलता। बार-बार ऑंखों के रास्ते अवचेतन तक पहुँचने वाला विज्ञापनों का झूठा संदेश जब सयाने लोगों के लिए इतनी आसानी से सच का संस्कार बन जाता है, तो फिर मासूम बच्चों पर इन प्रभावों का क्या कहा जाए
बच्चे सबसे आसानी से विज्ञापनों के प्रभाव में आते हैं। इसीलिए विज्ञापनी आक्रमण के मुख्य निशाने पर भी अब बचपन ही है। बच्चों का अबोध मन तो विज्ञापनों को एकदम सच मानकर ही ग्रहण करता है। विज्ञापन के किसी हैरतअंगेज़ कारनामे से प्रभावित होकर अगर कोई बच्चा भी वैसा ही कारनामा कर दिखाने की कोशिश में अपना नुक़सान कर लेता है तो यह इस तरह के प्रभावों का ही असर है।
जो लोग मनुष्य के विवेक पर भरोसा करते हुए विज्ञापन जैसी चीज़ों के मन पर पड़ने वाले स्थायी प्रभावों को निश्ंचित भाव से ख़ारिज़ कर देते हैं, वे लोग दरअसल यह भूल जाते हैं कि मनुष्य अंतत: एक सीखने वाला प्राणी है। बचपन से ही मन पर जैसे-जैसे संस्कार पड़ते हैं वैसी ही हमारी मानसिकता बनती जाती है। जाति, भाषा, धर्म, संस्कृति आदि की जितनी भी विविधताएँ हैं, यह सब संस्कारों का ही खेल है। मुसलमान के बच्चे को अगर हिंदू के घर में पाला जाए तो वह हिंदू प्रतीक ही ग्रहण करेगा; इसी तरह हिंदू का बच्चा यदि मुसलमान के घर में बड़ा होगा तो 'अल्लाहो अकबर' पुकारेगा ही। कहने का साफ़ अर्थ यह है कि आदमी वैसा ही बनता है जिस तरह के उसे संस्कार मिलते हैं।
पहले संस्कार देने का काम माँ, बाप, बड़े-बुज़ुर्ग, विद्यालय और समाज करते थे; पर अब नये युग की संस्कार-व्यवस्था पर विज्ञापन, सीरियल और फ़िल्में क़ाबिज़ हो गए हैं। इस नए वातावरण में नई पीढ़ी के मानसपटल पर जिस तरह के संस्कार पड़ रहे हैं वे आख़िरी नतीजे के तौर पर एक उपभोक्तावादी, गैरज़िम्मेदार, ज़िद्दी और उच्छृंखल समाज निर्माण के ही औज़ार बन रहे हैं।
आख़िर जब विज्ञापनों का झूठापन और नकारात्मक असर इतना स्पष्ट है तो सवाल यह उठता है कि हमारी राज्य और केंद्र सरकारें इनके लिए कोई प्रभावी आचार संहिता क्यों नहीं लागू करतीं ? क्यों सच की सूचना देने के लिए बने सरकारी दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे माध्यम तक इन्हीं झूठे और लोगों को मूर्ख बनाने वाले विज्ञापनों के प्रसारण में दिन-रात लगे रहते हैं? वैसे जवाब भी इसका सीधा और जगजाहिर-सा है कि विज्ञापनों से सूचना माध्यमों को बेहिसाब मुनाफ़ा होता है। इस मुनाफ़े का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट दोनों ही माध्यमों का वजूद वर्तमान में विज्ञापनों पर ही टिका हुआ है। विज्ञापनों पर इस निर्भरता को देखते हुए ही पत्रकारिता जगत में समाचार की यह मजेदार परिभाषा प्रसिध्द है कि - 'विज्ञापनों के बीच-बीच में जो कुछ छपता है उसे समाचार कहते हैं।'
असल में अब इस विज्ञापनी फ़रेब के ख़िलाफ़ जनसामान्य की ओर से आवाज़ उठनी चाहिए। सत्ताधीशों को यह चेताने की ज़रूरत है कि मुनाफ़े से ज्यादा महत्वपूर्ण एक समाज का सकारात्मक चरित्र होता है। हमारे नेताओं को यह समझना चाहिए कि व्यवस्था के हर पायदान पर अगर भ्रष्टाचार की कोई न कोई घिनौनी शक्ल मौजूद है तो यह उपभोक्तावाद के जाल में फँसते जा रहे समाज के ही कारण है। भाँति-भाँति की चीज़ों का उपभोग ही जिस समाज का मुख्य उद्देश्य बन जाएगा, वह समाज राष्ट्रनिर्माण के लिए किसी संयम का प्रदर्शन तो नहीं ही कर सकता। ज़रूरत यही है कि समय रहते विज्ञापनों, फ़िल्मों, सीरियलों आदि संस्कारों को प्रभावित करने वाले सभी रूपों के लिए ही एक प्रभावी आचार संहिता लागू हो। ऐसा हो तो नए ज़माने के बदलावों के साथ क़दमताल करते हुए भी नई पीढ़ी के दिलो-दिमाग़ को सकारात्मक दिशा में मोड़ना कोई बहुत मुश्किल नहीं है।
शुक्रवार, 16 जनवरी 2009
झूठे विज्ञापनों का ख़तरनाक सच
प्रस्तुतकर्ता संत समीर पर 12:24 am 1 टिप्पणियाँ
गुरुवार, 4 दिसंबर 2008
भाषाई अराजकता के अपराधी
'शब्द-ब्रह्म' - जी नहीं, 'शब्द-शैतान'! आज का मीडिया जैसी भाषा बना-बरत रहा है, उसे देखते हुए ऐसा ही कुछ कहना पड़ेगा। वाक्य संरचना की आधार-ईंट, या कहें अभिव्यक्ति के मूल माध्यम (भाषा) के मूलाधार 'शब्द' गढ़े तो जाने चाहिए अपने समाज की ज़रूरतों, आकाङ्क्षाओं और सांस्कृतिक विशेषताओं के अनुरूप, लेकिन आज के दौर में वे मीडिया के अराजक व्यवहार के उच्छृङ्खल प्रक्षेप के एक उलट-रूप में हमारे सामने आ रहे हैं। इस तरह, जो भाषा आकार ले रही है वह संवेदनहीन है, उसमें अभिव्यक्ति का उथलापन है और सबसे चिन्ताजनक यह कि वह एक ऐसे भावी समाज का आतङ्क बुन रही है जो अपने समूचे अस्तित्व में 'सांस्कृतिक बन्दर' की नियति भोगने को अभिशप्त होगा।
मीडिया का तो यह दायित्व होना चाहिए था कि अन्तरजाल (इण्टरनेट) के व्यापक सम्भावनाओं वाले इस समय में अपने ही बल पर जैसे-तैसे आगे बढ़ती हमारी हिन्दी का वह कोई सर्वस्वीकृत मानक रूप तैयार करने का अभियान चलाता, ताकि दुनिया की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि से समृध्द इस भाषा की वैश्विक पहचान और आसान बनती; लेकिन दुर्भाग्य कि मीडिया बाज़ार के स्वार्थों के साथ गलबहियाँ करते हुए हिन्दी की हत्या की साज़िश में शामिल हो गया है। यह मीडिया का ही कमाल है कि हिन्दी के माई-बाप की जगह पर, अपने देश की आबोहवा में पली-बढ़ी तमाम भाषाओं और बोलियों के बजाय, अब औपनिवेशिक दम्भ और आतङ्क की प्रतीक अङ्ग्रेजी बैठती जा रही है।
ऐसा नहीं है कि हिन्दी के लिए अङ्ग्रेजी पहले एकदम अछूत रही है। सच तो यह है कि हिन्दी ने डॉक्टर, मशीन, मोटर, बस, जीप, सिगरेट, ऑपरेशन, स्कूल, कालेज, कम्पनी, पोस्टकार्ड, पोस्ट ऑफिस, क्रीम, बिस्कुट, ब्रश, लिपिस्टिक जैसे तीन हजार से भी ज्यादा अङ्ग्रेजी शब्दों को अपने रोज़मर्रा के व्यवहार की शब्दावली में शामिल कर अपना बना लिया है और बनाती भी जा रही है। लेकिन, हिन्दी का मूल स्वभाव देखें तो इसके असल सगे-सम्बन्धी तो यहाँ के माहौल में पनपी भाषाएँ-बोलियाँ ही हो सकती हैं, जबकि अङ्ग्रेजी की जगह दूर के रिश्तेदार से ज्यादा की नहीं बनती। जो लोग हिन्दी का हाजमा अङ्ग्रेजी से कमज़ोर समझते हैं, वे भ्रम में हैं और हिन्दी का हाजमा बढ़ाने के चक्कर में उसकी सेहत बरबाद कर रहे हैं। ज़रा 'हिन्दुस्तान' अख़बार के 'रीमिक्स' परिशिष्ट में छपे ये वाक्य पढ़िए-
''ज्यादातर युवतियों को रोज़ एक ही टेंशन रहती है कि रोज़-रोज़ क्या ड्रेस पहनें और क्या न पहने। ऐसा क्या पहनें जो हमें आकर्षक लुक देने के साथ-साथ कम्फर्टेबल भी लगे। स्ट्रेप टॉप गर्मियों में काफ़ी हद तक आपकी इस समस्या का समाधान कर सकता है। यह लड़कियों के लिए काफ़ी आरामदायक है और सभी प्रकार की पर्सनेलिटी में निखार लाता है। चाहे आप मोटी हों या पतली, यह सभी तरह की पर्सनेलिटी को कूल लुक देगा। स्ट्रेप टॉप में आज जितनी वैरायटी मार्केट में मौजूद है, इतनी पहले कभी नहीं थी।''
क्या इस भाषा में सम्प्रेषण शक्ति ज्यादा है? अव्वल तो ऐसी भाषा में किसी गम्भीर विमर्श की बात ही बेमानी है। और यहीं पर, इस साज़िश की भी पहचान की जा सकती है कि बाज़ार, जिसके ही इशारों पर हिन्दी की हिङ्ग्रेजी या हिङ्गलिश बनाई जा रही है, वह चाहता ही नहीं है कि समाज किसी गम्भीर विमर्श की बात कभी सोचे। बाज़ार को चाहिए उपभोक्ता; और वह भी ज्यादातर ग़ैरज़रूरी चीज़ों का। ऐसा उपभोक्ता 'खाओ-पियो मौज उड़ाओ' की मानसिकता से बनता है। उपभोक्तावादी प्रवृत्ति की अनिवार्य शर्त है कि विवेक कमज़ोर पड़े, संस्कार बिगड़ें। और, संस्कार बिगाड़ने के तमाम औज़ारों में से एक यह भी है कि आदमी की बोल-बात बिगड़ जाए तो संस्कार भी बिगड़ने ही लगते हैं। इसीलिए बाज़ार की ताक़तें हमारी बोल-बात यानी हमारी भाषा बिगाड़ने की मुहिम सी चलाए हुए हैं। इस सन्दर्भ में जाने-अनजाने मीडिया बाज़ार के हाथ की कठपुतली बन गया है। इस तरह, भाषा बनाने-बिगाड़ने का पूरा खेल ही मीडिया की कप्तानी में खेला जा रहा है और इस खेल का प्रायोजक बाज़ार नेपथ्य में बैठा नतीजे भुनाने के असल खेल में मशगूल है। किसी ज़माने में भाषा संस्कार का दारोमदार परिवार, समाज और पाठशाला पर हुआ करता था। गुरूजी-मास्साहब (मास्टर साहब) का सिखाया-बताया भाषा-ज्ञान ही हमारे जैसे लोगों की अभिव्यक्ति का सहारा बना। लेकिन अब सबका स्थानापन्न मीडिया है। 'मास्साहब' भी संस्कार मीडिया से ही ग्रहण कर रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो आमजन के दिलो-दिमाग़ में ग़ज़ब की ही घुसपैठ कर ली है और जैसी भाषा वह दिन-रात हमें सिखा रहा है, वह भी 'भाषा के साथ बलात्कार' से कम नहीं है। चैनलिया हिन्दी का हाल देखना हो तो स्क्रीन पर चलती हुई समाचार पट्टियाँ पढ़िए। 'इराक के इण्टेरिम प्रधानमन्त्री मिस्टर चेलाबी ने यूएन के अध्यक्ष से अधिक ग्राण्ट की माँग की है', 'गेहँ एक हफ्ते लॉस पर बन्द हुआ' - जैसे वाक्य समाचार वाचकों की ज़ुबान से इतनी सङ्ख्या में सुनाई देंगे कि आप गिनते हुए थक जाएँगे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विज्ञापनों की हिन्दी तो ख़ैर जैसे अङ्ग्रेजी टकसाल में ही ढलकर निकलती है। क्या बच्चे, क्या बूढ़े, हर घर में मौजूद टेलीविजन के सैकड़ों चैनल दिन-रात चीख-चीखकर सबको ही अपना भाषा-ज्ञान बाँटने में लगे हैं। नई पीढ़ी के नौनिहालों का तो 'होमवर्क' तक टेलीविजन के सामने हो रहा है, फिर वे बेचारे संस्कार लेने और कहाँ जाएँ!
भाषा के साथ नवाचार में इलेक्ट्रॉनिक और प्रिण्ट दोनों ही जैसे होड़ कर रहे हैं। प्रिण्ट मीडिया की बात करें तो क़रीब सात साल पहले 'नवभारत टाइम्स' ने अपने समाचारों में अङ्ग्रेजी शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल शुरू किया था। शीर्षकों में काफ़ी सङ्ख्या में अङ्ग्रेजी शब्द प्रयोग किए जाने लगे। देखा-देखी अन्य अख़बारों ने भी भाषा-क्रान्ति की यह राह पकड़ ली। इस क्रान्ति में शहीद होने के जोख़िम जैसी कोई बात थी नहीं, तो बड़े-बड़े भाषा-वीर पैदा हो गए। इस क्रान्ति की वाहवाही लूटने के लिए 'नवभारत टाइम्स' ने बाक़ायदा हिङ्ग्रेजी की वकालत में नए भारत की 'लैङ्ग्वेज' के युगद्रष्टा भाव से लेख (13 नवम्बर-2006) तक छापा। यह सब शुरू हुआ सरलता, सहजता, सम्प्रेषणीयता और नए युग की नब्ज़ पहचानने के नाम पर। लेकिन सचमुच क्या ऐसा है? ज़रा कुछ शीर्षकों के नमूने देखें।
1- स्ट्रेपटाप का स्टाइलिश लुक
2- छात्रसंघ पोल में नो पॉलिटिक्स
3- रीयल लाइफ सिस्टर को मिला रीयल ब्रदर
4- कॉटन को ऐसे करें कैरी
5- मैटेलिक मेकअप में ऐसे करे ट्राई
6- आर यू स्मार्ट!
7- रेडी फॉर टफ ट्रैक
8- समरनाइट्स में मिडनाइट मज़ा
9- पे बढ़ने के बाद बढ़ सकती है महँगाई
10-सुपरस्टार चिरंजीवी की पॉलिटिक्स में एंट्री
क्या सचमुच ये शीर्षक हिन्दी को ज्यादा बोधगम्य और बेहतर बनाते हैं या हिन्दी की मूल पहचान को ही मिटाने का काम करते हैं? क्या सम्प्रेषणीयता और सरलता के नाम इस तरह अङ्ग्रेजी शब्दों का अविवेकपूर्ण इस्तेमाल किया जा सकता है। 'शटरडे शॉपिंग', 'फ्रूट फैक्टायड', 'ब्यूटी टिप्स', 'गोडिजिटल', 'थीम स्टोरी', 'हेल्थ ख़बरें', 'फिटनेस फंडा', 'यूथ गैलरी', 'फर्स्ट पर्सन', 'फ्यूचर जोन', 'रीयल बाइट्स' जैसे स्तम्भ क्या हिन्दी को समृध्द करते हैं? 'हिन्दुस्तान' अख़बार ने अपने परिशिष्टों के 'फेस्ट', 'मेट्रो रीमिक्स' जैसे नाम रखे हैं, यह मानकर कि ये शब्द अब आमफ़हम हो चुके हैं। लेकिन बात तो यह है कि 'हिन्दुस्तान' के पाठकों से ही इन शब्दों के मायने पूछे गए तो ज्यादातर अचकचा गए। कई पाठकों ने साफ़ कहा कि वे इस वजह से अख़बार नहीं ख़रीदते कि इसमें हिङ्ग्रेजी का प्रयोग हो रहा है। वे तो यह भी कहते हैं कि दिखावे के चक्कर में बोलचाल में भले लोग अङ्ग्रेजी की छौंक लगाएं, पर पढ़ने में तो खिचड़ी भाषा अटपटी ही लगती है और इस वजह से अख़बार की विश्वसनीयता भी कम होती है। आगत को सूँघ लेने का दम भरने वाले 'नवभारत टाइम्स' को भी समझ लेना चाहिए कि उसकी हिङ्ग्रेजी ने उसकी विश्वसनीयता और लोकप्रियता बढ़ाई नहीं है, बल्कि उसे हास्यास्पद ही बनाया है। सनद रहे कि कभी के सबसे आगे रहने वाले इस अख़बार से अब ढेर सारे दूसरे अख़बार काफ़ी आगे निकल चुके हैं।
दरअसल, भाषा के इस तरह के बदलावों के लिए बदलाव की सहज, स्वाभाविक प्रक्रिया का तर्क देने के पीछे छद्म है। भाषा समय के प्रवाह में सहजता से अनायास ही नहीं बदल रही है, बल्कि सायास बदली जा रही है। शोर मचा-मचाकर सबके दिलों में यह बैठाने की कोशिश हो रही है कि यह सब समय के प्रवाह में हो रहा है। इस बदलाव में हिन्दी में रच-बस गए अङ्ग्रेजी के शब्दों को कवच बनाया जा रहा है। प्रचलित शब्दों के बीच अप्रचलित शब्द घुसाकर उन्हें प्रचारित किया जा रहा है। दरअसल, निहित स्वार्थों के प्रक्षेप इसी तरह प्रचार पाते हैं और धीरे-धीरे अनपेक्षित होते हुए भी जीवन व्यवहार का अङ्ग बन जाते हैं। अब, हर व्यक्ति अपना ख़ुद का अख़बार तो निकाल नहीं सकता, इसलिए सामने जो कुछ आएगा उसे उसको पढ़ना ही है और पढ़े का संस्कार भी उसके मानस पर पड़ना ही है। इस बदलाव में इस संस्कार का कुप्रभाव ही है कि अब लोग 'मेरे सिर में हेडेक है', 'आगे का फ्यूचर ख़राब है', आज सबेरे मॉर्निङ्ग में ही तो मिले थे' जैसे हास्यास्पद वाक्य बोलते हुए ज़रा भी नहीं सोचते। चिन्ताजनक बात यह है कि हिन्दी का जैसे-जैसे हिङ्ग्रेजीकरण हो रहा है, वैसे-वैसे बोलियों के शब्द ग़ायब होते जा रहे हैं, जबकि हिन्दी के असली खाद-पानी तो बोलियों से निकले और देशज शब्द ही हैं। हिङ्ग्रेजी के झण्डाबरदारों को कौन बताए कि खटिया, मचिया, गोनरी, भेली, भदेली, भउरी, जाँता, काँड़ी, सिल-लोढ़ा बोलियों के सिर्फ़ सञ्ज्ञावाचक शब्द ही नहीं है, बल्कि एक पूरी तहज़ीब का प्रतिनिधित्व करते हैं।
ऐसा नहीं है कि हिन्दी में बाहरी शब्द कम हैं। भरमार है उनकी। वे ज़रूरत के हिसाब से इक्का-दुक्का होकर आए, घुले-मिले और रच-बस गए। उर्दू के ज़रिए अरबी, फ़ारसी के अनगिन शब्द हिन्दुस्तान के माहौल में घुले-मिले तो हिन्दी ने उन्हें अपना शृङ्गार ही बना लिया। लिपि की बाड़ बीच में न रहे तो सामान्य हिन्दी और उर्दू में तो अन्तर करना भी मुश्किल हो जाए। लेकिन, हिङ्ग्रेजी या हिङ्गलिशीकरण तो भाषाई आक्रमण है। मीडिया शब्दों की ज़रूरत बग़ैर पहचाने हिन्दी में उन्हें ज़बरदस्ती ठेल रहा है, थोप रहा है। अङ्ग्रेजी शब्दों में ही बेहतर अभिव्यक्ति-सामर्थ्य और सम्प्रेषण-शक्ति देखने वालों को एक बार यह भी देख लेना चाहिए कि हिन्दी ने आकाशवाणी, वायुयान, हवाईअड्डा, दूरदर्शन, जलवायु, प्रवक्ता, रेखाचित्र, नगरपालिका, समाचार-पत्र, पत्रकार, पत्राचार और सम्पादकीय जैसे सैकड़ों सुन्दर शब्द सृजित किए हैं। इच्छाशक्ति और सङ्कल्प हो तो दूसरे तमाम अङ्ग्रेजी शब्दों के भी हिन्दी में ज्यादा बेहतर विकल्प तैयार किए जा सकते हैं।
वास्तव में भाषा को भ्रष्ट करने के पीछे मुख्य ताक़तें दो हैं। एक है, मालिकों का वर्ग, जो बाज़ार में अपनी पहुँच पक्की करने की सनक में इस तरह के निर्देश देता है जिन्हें न चाहते भी लागू करना मीडिया संस्थानों की मजबूरी होती है; और दूसरा है, सम्पादकों का वर्ग, जिसमें ज्यादातर का लेना-देना अब सम्पादकी से कम प्रबन्धकी से ज्यादा है। अब के अधिकतर सम्पादकों में वैसे भी भाषा संस्कार दयनीय है, लेकिन जो सम्पादक की कुर्सी पर पहुँच गए हैं उन्हें उनके आत्मभ्रम से कौन उबारे। ऐसे अधकचरे भाषा-ज्ञान वाले सम्पादकों की सनक ने हिन्दी का ज्यादा नुक़सान किया है। साफ़-सुथरी हिन्दी के प्रति ईमानदारी से चिन्ता करने वाले इक्के-दुक्के सम्पादकों को छोड़ दें, तो जब जिन सम्पादकों की हम हिन्दी की वर्तमान पत्रकारिता के शिखर पुरुषों में गिनती करते हैं, उनका ही भाषा-ज्ञान आश्वस्त नहीं करता, तो ऐरे-गैरों का कहना ही क्या? मैं यहाँ नाम नहीं लेना चाहता, क्योंकि इससे एक नया विवाद खड़ा हो सकता है, लेकिन एक बड़े सम्पादक, जिन्हें मैं भी कम से कम वैचारिक प्रतिबध्दता को लेकर कई मामलों में आदर्श जैसा ही मानता हूँ, की भाषाई लापरवाही का हाल देखिए कि वे अपने हस्तलेख में 'अन्तर्आत्मा' ('र्' के बजाय 'आ' के ऊपर रेफ लगा हुआ समझें। युनीकोड में 'आ' के ऊपर रेफ लगाकर दिखाना संभव नहीं है।) लिखना चाहते हैं, पर हमेशा लिखते हैं 'अर्न्तआत्मा'। वे 'वेश्या' को 'वैश्या' लिखते हैं; जबकि 'वेश्या' का मतलब है 'धन लेकर समागम कराने वाली स्त्री' और 'वैश्या' का अर्थ है 'वैश्य (चार वर्णों में एक) की स्त्री'। प्रवाहपूर्ण भाषा के बावजूद उनके लेखों में स्त्रीलिङ्ग और पुल्लिङ्ग की अकसर अराजकता दिखाई दे जाती है। ज़ाहिर है कि नई पीढ़ी इन्हीं बड़े-बुज़ुर्गों के प्रयोगों को मानक मानकर आगे बढ़े तो दो-चार दशक बाद भाषा को लेकर बड़े-बड़े अनर्थ दिखाई देंगे। एक पत्रिका के सम्पादक महोदय 'नेतागिरी', 'गाँधीगिरी' को वर्तनी के लिहाज़ से सही शब्द समझते थे और 'नेतागीरी', 'गाँधीगीरी' को ग़लत। जब मैंने उन्हें ध्यान दिलाया कि 'गिरी' का मतलब होता है गुठली, बीज; उदाहरण के लिए 'बादाम की गिरी' और 'गीरी' का अर्थ है 'धन्धा', 'पेशा' - जिस अर्थ में 'नेतागीरी' जैसे शब्द हम बोलते हैं - तो वे बेचारे खिसिया से गए और उन्हें अपनी ग़लती माननी पड़ी। तमाम सफल और नामी-गिरामी पत्रकारों की दशा यह है कि उन्हें नहीं मालूम कि वर्णमाला में 'श्र' (इसे बीच वाली तिरछी डंडी हटाकर पढ़ें, क्योंकि यूनीकोड में बिना डंडी के 'श्र' नहीं बन पाता।) वर्ण की जगह कहाँ है। वे नहीं जानते कि 'श' ही 'श्र' (बिना डंडी के) है। इसी अज्ञानता की वजह से प्राय: लोग 'श्रृंगार' धड़ल्ले से लिखते हैं। जाहिर है, इस अज्ञान के शिकार हिन्दी यूनीकोड विकसित करने वाले लोग भी हैं, अन्यथा 'श्र' को शुध्द रूप में बिना बीच वाली डंडी के भी बनाते। रेफ के साथ 'श्र' लिखना तो कुछ वैसा ही है, जैसे कि हम 'क्र' 'प्र' 'त्र' वगैरह लिखते हैं। इसी तरह अकसर 'ध्द', 'द्व' में 'ध', 'व' को हल् समझ लिया जाता है, जबकि हल् है 'द्'। 'हिन्दुस्तान' अख़बार की इस बात के लिए ज़रूर तारीफ़ की जानी चाहिए कि वह अपने लिए एक मानक वर्तनी बनाने की दिशा में गम्भीरता से काम कर रहा है। देश के सारे अख़बार ही इस दिशा में एक-दूसरे के साथ समन्वय स्थापित करते हुए कुछ कर सकें, तो हिन्दी का सचमुच बहुत भला हो सकता है।
प्रिण्ट मीडिया ने सबसे बड़ा अनर्थ किया है चन्द्रबिन्दु ( ँ ) की जगह बिन्दु ( ं ) का प्रयोग प्रचारित करके। अनुनासिक और अनुस्वार के ये चिह्न बिल्कुल भिन्न व्याकरणिक ज़रूरतें हैं। यदि हर कहीं बिन्दु ही इस्तेमाल हो तो सँवार-संवार, हँस-हंस, स्वाङ्ग (स्व+अङ्ग)-स्वाँग जैसे तमाम शब्दों में अन्तर करना मुश्किल हो जाएगा। चन्द्रबिन्दु के ख़त्म होने से हिन्दी के वैश्विक प्रचार में भी बहुत बड़ी बाधा पैदा हो जाएगी। जिसकी हिन्दी की पृष्ठभूमि न होगी उसके लिए तो बिन्दु लगे हज़ारों-हज़ार शब्दों का उच्चारण अलग-अलग ही रटना पड़ेगा। और तब, हम गर्व से यह भी नहीं कह सकेंगे कि देवनागरी में जो लिखा जाता है वही बोला भी जाता है; या कि यह दुनिया की सबसे वैज्ञानिक लिपि है। इस सन्दर्भ में हिन्दी दैनिक 'हिन्दुस्तान' की ज़रूर प्रशंसा की जानी चाहिए कि उसने चन्द्रबिन्दु के शुध्द प्रयोग को पुन: प्रचारित करना शुरू किया है। अच्छी बात है कि वह अपने लिए मानक वर्तनी निर्धारित करने का काम भी गम्भीरता से कर रहा है।
इसी तरह पूर्णविराम के लिए खड़ी पाई ( । ) की जगह पर अङ्ग्रेजी फुलस्टाप के बिन्दु ( . ) का प्रयोग भी, जो 'इण्डिया टुडे', 'सरिता', 'मुक्ता', 'हंस' जैसी कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में किया जा रहा है, हिन्दी की प्रकृति से मेल नहीं खाता। हिन्दी में अङ्ग्रेजी की तरह वाक्य की शुरुआत 'कैपिटल लेटर' से नहीं होती। इसके अलावा हिन्दी में विसर्ग ( : ) और नुक्ते ( . ) के प्रयोग के चलते पूर्णविराम के रूप में बिन्दु का प्रयोग भ्रामक स्थितियाँ पैदा करेगा और देवनागरी की वैज्ञानिकता पर भी ग्रहण लगाने का ही काम करेगा। यह भी आश्चर्य की ही बात है कि अपने ढाई हज़ार चिह्ननुमा अक्षरों के साथ चीनी भाषा निरन्तर विकसित हो रही है, जापानी की चित्रात्मक लिपि भी जापानियों को परेशान नहीं करती, पर हिन्दी की वैज्ञानिकता बचाए रखने भर को सिर्फ इने-गिने वर्णों-शब्दों का शुध्द इस्तेमाल भी हमारे मीडिया महारथियों को बोझ लग रहा है। आश्चर्य यह भी है कि ये ही लोग अङ्ग्रेजी में हिज्जे की एकाध ग़लती से भी उद्विग्न हो उठते हैं, पर हिन्दी में घोर अराजकता भी इन्हें परेशान नहीं करती। टीवी चैनलों और अख़बारों-पत्रिकाओं से भले तो 'अन्तरजाल' (इण्टरनेट) के चिट्ठे (ब्लॉग) हैं, जहाँ चिट्ठाकारी कर रहे नवसिखुवे तक टूटी-फूटी और काफ़ी हद तक अराजक क़िस्म की हिन्दी लिखते हुए भी निरन्तर भाषा-सुधार का अभियान-सा चलाए हुए हैं और हिन्दी के अनुकूल तकनीकी सुधार भी कर रहे हैं।
दरअसल, हमारे रोज़मर्रा के आम व्यवहार में कोई परेशानी खड़ी नहीं होती, इसलिए हमें शायद भ्रष्ट हो रही भाषा का सवाल उद्वेलित नहीं करता; लेकिन है यह गम्भीर मसला। मीडिया सिर्फ़ भाषा को ही भ्रष्ट नहीं कर रहा, बल्कि वह इस बहाने समाज को भी ग़ैरज़िम्मेदारी और उच्छृङ्खलता का पाठ पढ़ा रहा है। भाषा का सवाल सिर्फ अभिव्यक्ति के एक औज़ार भर से नहीं, बल्कि एक जीवन्त समाज की सांस्कृतिक अस्मिता से भी जुड़ा है। इसलिए, हिन्दी मीडिया को अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी पहचानते हुए अपनी भाषा के प्रति भी एक सचेत दृष्टि अपनानी ही चाहिए, राष्ट्रहित इसी में है।