गुरुवार, 8 जनवरी 2009

चकलाघर चलाइए, रोजगार पाइए

दुनिया का सांस्कृतिक भूगोल बदल रहा है। नैतिकता के सबसे वर्जित इलाकों की बाड़ टूट रही है। कब कौन सा अजूबा घट जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। अकल्पनीय लगने वाला एक ऐसा ही अजूबा है - वेश्यावृत्ति विद्यालय। जी हाँ! बेल्जियम के एंटवर्प में चल रहे इस विद्यालय में स्त्री, पुरुष दोनों ही 'वेश्यावृत्ति' व्यवसाय की बाकायदा तालीम ले सकते हैं। अपने हिसाब से एक नई क्रांति का सूत्रपात करने वाले इसके आयोजकों के मुताबिक इस विद्यालय में स्वच्छ यौन संबंध, व्यवसाय प्रबंधन और वेश्यावृत्ति से संबंधित कानूनों की जानकारी दी जाएगी। मतलब यह कि यहाँ, वेश्यावृत्ति अपनाने वालों को ग्राहकों को लुभाने, ललचाने, पटाने और कामुकता के पाश में फांसने की सारी जुगत बताई और सिखाई जाएगी।

वेश्यावृत्ति की शिक्षा बाँटने वाले इन लोगों का कहना है कि वे इस धंधे की छवि सुधारना चाहते हैं और इस व्यवसाय के प्रति लोगों में आत्मविश्वास जगाना चाहते हैं। यानी, वेश्यावृत्ति को शुध्द व्यवसाय समझिए और इसमें कामयाबी के झंडे गाड़ने हैं तो सारी शर्मो-हया ताक पर रखकर मैदान मे कूद जाइए। मजेदार बात यह है कि इस तरह के अजूबे सबसे पहले पश्चिम में ही सुनने को मिलते हैं। मुनाफे को समर्पित पश्चिमी नजरिया दरअसल हर चीज को व्यापार और बाजार की तरह देखने का आदी होता जा रहा है। फिर तो पश्चिमी समाजों के लिए नैतिकता की आखिरी हद भी लाभ की खातिर ढहा देना वाजिब लग रहा है, तो इसमें कोई बहुत ताज्जुब की बात नहीं है। किसी भी उपभोक्तावादी समाज को बेरोजगारी की विकराल होती समस्या के चलते इस तरह की परिणतियों से गुजरना पड़ सकता है। बेरोजगारी की समस्या वास्तव में त्याग और संयम के ठीक विपरीत खड़ी उपभोक्तावादी जीवन दृष्टि की नई देन है। ऐसे में उपभोग के मंजिल विहीन मार्ग पर सरपट दौड़ लगाते समाज में रोजगार की तलाश में तमाम सनातन वर्जनाएँ भी टूटेंगी ही। यह उपभोक्तावादी संस्कृति के देह-विमर्श का अनिवार्य नतीजा है।

वेश्यावृत्ति को पश्चिम के कई देशों में जिस तरह से सम्मान दिया जाने लगा है, उसके नतीजे धीरे-धीरे पूरी दुनिया को और खास तौर से गरीब देशों को गंभीर रूप से भुगतने होंगे, यह स्पष्ट रूप से समझ लिया जाना चाहिए। पश्चिम में पनपे मूल्य, मान्यताएँ और रोग अंतत: हिन्दुस्तान जैसे गरीब देशों तक पहुँचते ही हैं और उन्हें ही ज्यादा कष्ट देते हैं। इस मामले में थाईलैंड का उदाहरण दिया जा सकता है, जहाँ की अर्थव्यवस्था में वेश्यावृत्ति के धंधे की भागीदारी बढ़ती ही जा रही है, लेकिन देश निरंतर कमजोर हो रहा है। हमारे लिए असली सवाल यह है कि किसी दिन भारतीय संस्कृति की छाती पर वेश्यावृत्ति के प्रशिक्षण संस्थान और उद्योग खड़े होंगे तो हम क्या करेंगे? भारतीय संस्कृति पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करने वाले कुछ लोगों को यह हास्यास्पद लग रहा होगा, लेकिन है यह गंभीर बात। इसी देश में जब समलैंगिकता के समर्थक खुलेआम खड़े होने लगे हैं तो वेश्यावृत्ति को वैधानिक जामा भी देर-सबेर पहनाने का काम किया ही जा सकता है।

अभी ही इस देश में जाने ही कितनी बेबस लड़कियों को वेश्यावृत्ति के इस नारकीय धंधे में जाने के लिए चोरी-छिपे मजबूर किया ही जाता है। जब यह वैधानिक तौर पर व्यवसाय का रूप लेगा तो हालात क्या होंगे, यह सोचकर सिहरन होती है। आखिर इस देश ने उपभोक्तावादी बयार में आकर अपने उन सांस्कृतिक मूल्यों को लगभग भुला ही दिया है, जिन पर चलते हुए उसके सामने बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझने का सवाल ही नहीं उठता। भारतीय समाज भी अब पश्चिम के नक्शे-कदम पर है, तो उस समाज की विकृतियाँ भी झेलनी ही पड़ेंगी। यानी, जिस भारतीय समाज में शरीर को किसी परम आध्यात्मिक उद्देश्य तक ले जाने का साधन माना जाता रहा हो, जहाँ रत्ती भर भी अनैतिक अर्थोपार्जन अमान्य हो, वहाँ भी अब अगर देह को नितांत बाजार की वस्तु बना दिया जाय और किसी दिन अपने सांस्कृतिक मूल्यों के ठीक विपरीत जगह-जगह वेश्यावृत्ति प्रशिक्षण संस्थान खोलकर उनके मुख्य दरवाजे पर 'चकलाघर चलाइए, रोजगार पाइए' जैसे आमंत्रण वाक्य चस्पाँ कर दिए जाएँ, तो फिर आश्चर्य ही क्या?

बुधवार, 7 जनवरी 2009

अपना डॉक्टर आप बनने का जोख़िम उठाएँ

इस लेख का शीर्षक पढ़कर पाठक कुछ आश्चर्य में पड़ सकते हैं, क्योंकि पत्र-पत्रिकाओं से लेकर टेलीविजन तक में जनसामान्य के लिए यही मशवरा दिया जाता है कि किसी को अपना डॉक्टर ख़ुद बनने का जोख़िम नहीं उठाना चाहिए। लोग बग़ैर किसी डॉक्टरी सलाह के अपनी छोटी-मोटी तकलीफ़ों के लिए मनमर्ज़ी से दवाएँ खाकर अक्सर ही जिस तरह से बड़ी-बड़ी तकलीफ़ों को न्यौता दे बैठते हैं, उसे देखते हुए डॉक्टरी सलाह से ही दवा खाने के मशवरे को जायज़ कहा ही जाएगा, लेकिन मैं अगर अपना डॉक्टर आप बनने की सलाह दे रहा हूँ तो उसकी भी जायज़ वजहें हैं।
मेरा मानना है कि लोग अपना डॉक्टर ख़ुद बनने का जोख़िम नहीं उठाते, इसीलिए दुनिया में बीमारियाँ बढ़ रही हैं और सेवाभाव वाली चिकित्सा मुनाफ़े का व्यवसाय बना दी गई है। मौजूदा हालात ये हैं कि जिसके पास पर्याप्त धन है वह तो आसानी से चिकित्सा सुविधाएँ जुटा लेता है, पर सामान्य आदमी के लिए साधारण बीमारी भी मुसीबतों का पहाड़ लेकर आती है। आदमी ज्यादा ग़रीब हुआ तो कई बार डॉक्टरी फ़ीस की व्यवस्था न कर सकने के कारण साधारण बुख़ार भी उसके लिए मौत का पैग़ाम बन जाता है। सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था का हाल यह है कि बड़े शहरों में बड़े लोगों के लिए तो बड़ी-बड़ी सुविधाएँ हैं, पर गाँव-देहात और छोटे शहरों के लिए बुनियादी सुविधाएँ तक नदारद हैं। देश की 90 फ़ीसदी आबादी बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं से दूर है। देश के लगभग 25 हज़ार प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों का हाल भी बुरा ही है। इसी का नतीजा है कि प्राइवेट नर्सिंग होमों और अस्पतालों में सुविधा के नाम पर मरीज़ों को बेरहमी से लूटा जाता है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य की हालत यह है कि देश की लगभग एक तिहाई महिलाएँ और आधे से भी ज्यादा बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। लगभग 55 प्रतिशत महिलाओं और 75 प्रतिशत बच्चों में ख़ून की कमी है। देश के हर पंद्रहवें शिशु की एक वर्ष के भीतर ही मौत हो जाती है। औसतन 10 में 4 नवविवाहिताओं को प्रजनन संबंधी कम से कम एक स्वास्थ्य समस्या ज़रूर रहती है। लगभग दो-तिहाई महिलाओं को अपनी प्रजनन संबंधी समस्याओं के लिए दवाएँ नहीं मिल पातीं। यदि इन समस्याओं का समुचित इलाज नहीं हो पाता तो वे गंभीर बीमारियों से भी ग्रस्त हो जाती हैं। ऐसे में आने वाली संतति का स्वास्थ्य भला कैसे बेहतर रह सकता है? सामान्य आबादी के हिसाब से देखें तो औसतन 1 लाख की आबादी वाले छोटे से इलाक़े में भी लगभग तीन हज़ार लोग दमा से, पाँच-छह सौ लोग टी. बी. से, लगभग डेढ़ हज़ार लोग पीलिया से और लगभग 4 हज़ार लोग मलेरिया से ग्रस्त मिल जाएँगे। छोटी-मोटी बीमारियों से तो हर कोई परेशान मिलेगा। आज के समाज में पूरी तरह से एक स्वस्थ आदमी को ढूँढ़ निकालना दुनिया का सबसे बड़ा अजूबा ही होगा।
स्वास्थ्य विज्ञान की ढेरों उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने के बाद भी राष्ट्रीय स्वास्थ्य की यह दशा है तो इसका एक बड़ा कारण यही है कि लोगों का स्वास्थ्य ठीक रखने की ज़िम्मेदारी मुनाफ़े को ही अपना धर्म मान चुके डॉक्टरों, नर्सिंग होमों और अस्पतालों को ही सौंप दी गई है और लोगों को डराया जा रहा है कि वे अपनी चिकित्सा ख़ुद करने का ख़तरा मोल न लें। ऐसे में हो यह रहा है कि जागरूक क़िस्म के लोग भी स्वास्थ्य विज्ञान को सिर्फ़ चिकित्सा व्यवसाय से जुड़े लोगों का ही विषय मानकर इसकी साधारण जानकारी तक करने की ज़रूरत नहीं समझते; और अगर, कभी किसी सामान्य सी तकलीफ़ में डॉक्टर की फ़ीस से बचने के लिए या लापरवाही में ही किसी सुनी-सुनाई दवा का इस्तेमाल कर लेते हैं तो अक्सर इसका दुष्प्रभाव भी उन्हें झेलना ही पड़ जाता है।
वास्तव में स्वास्थ्य विज्ञान की ज़रूरी जानकारी तो हर व्यक्ति को ही होनी चाहिए। सिर्फ़ आहार-विहार की ही समुचित जानकारी हो तो आधी से ज्यादा बीमारियाँ पास ही न फटकने पाएँगी। दुनिया के हर पशु-पक्षी को अपने आहार-विहार का सहज ज्ञान है। उसे किसी अस्पताल की ज़रूरत नहीं पड़ती, लेकिन सृष्टि के सबसे बुध्दिशाली मनुष्य का हाल यह है कि उसे ही नहीं मालूम कि वह क्या खाए, क्या पिए, कैसे सोए, कैसे रहे? यहाँ एक जानने लायक़ महत्वपूर्ण बात यह है कि प्राचीन भारतीय व्यवस्था में आज के जैसी स्थिति नहीं थी। हमारी प्राचीन संस्कृति में हर विद्यार्थी के लिए ही स्वास्थ्य शिक्षा अनिवार्य रही है। तब जीवन के अन्य ज़रूरी ज्ञान के साथ आयुर्वेद का भी ज्ञान शिक्षा का ज़रूरी हिस्सा था। आयुर्वेद का अर्थ सिर्फ़ जड़ी-बूटियों से ही नहीं, बल्कि उस समय तक विकसित समूचे चिकित्साविज्ञान से था। तब के साधारण आदमी को भी जड़ी-बूटियों आदि के बारे में इतना गहरा ज्ञान होता था कि ज्यादातर बीमारियों को वह ख़ुद ही ठीक कर सकता था। किसी विशेषज्ञ वैद्य के पास तो कुछ विशेष परिस्थितियों में ही जाने की नौबत आती थी। स्वास्थ्य के प्रति इस दृष्टिकोण का ही नतीजा है कि प्राचीन सांस्कृतिक धारा छिन्न-भिन्न हो जाने के बावजूद अभी-भी कहीं किसी गाँव-गिराँव में कोई न कोई बूढ़ा-बुजुर्ग़ जड़ी-बूटियों का थोड़ा-बहुत जानकार मिल ही जाता है।
आज भी ज़रूरत इसी बात की है कि कम से कम समाज के जागरूक और पढ़े-लिखे लोगों को स्वास्थ्य विज्ञान का अध्ययन ज़रूर करना चाहिए और आमतौर पर होने वाली अधिकांश बीमारियों का इलाज करने में उन्हें सक्षम होना चाहिए। ऐसा हो तो वे अपना स्वास्थ्य तो ठीक ही रख सकेंगे, अपने परिवार और गाँव-समाज के ग़रीब लोगों की भी बड़ी सेवा कर सकेंगे। एलोपैथी को अगर ख़तरे की पध्दति मानकर छोड़ भी दिया जाय तो प्राकृतिक चिकित्सा, एक्यूप्रेशर, आयुर्वेद और होम्योपैथी-बायोकैमी जैसी चिकित्सा पध्दतियों को तो आसानी से सीखा ही जा सकता है। प्राकृतिक चिकित्सा और एक्यूप्रेशर की बुनियादी बातें तो अनपढ़ लोगों को भी सिखाई जा सकती हैं। इतनी जानकारी से ही ढेर सारी तकलीफ़ों से निजात मिल सकती है। जो लोग पढ़े-लिखे और जागरूक क़िस्म के हैं उन्हें आयुर्वेद और होम्योपैथी जैसी पध्दतियों को गंभीरता से सीखना चाहिए। होम्योपैथी तो आधुनिक युग के लिए बहुत ही क्रांतिकारी पध्दति है। यही एक पध्दति ऐसी है जिससे गंभीर आनुवंशिक बीमारियाँ तक बड़ी आसानी से ठीक की जा सकती हैं। इसके अलावा एलोपैथी में जिन बीमारियों में शल्यक्रिया अनिवार्य बताई जाती है उनमें भी लगभग 90-95 फ़ीसदी स्थितियाँ होम्योपैथी में बिना किसी चीड़-फाड़ के ठीक की जा सकती हैं। यह एक आश्चर्यजनक बात है कि कई असाध्य बीमारियाँ इस पध्दति में आसानी से साध्य हो जाती हैं।
यह सब जो मैं कह रहा हूँ तो इसलिए कि इसका मैं प्रत्यक्ष अनुभवकर्ता भी हूँ। बचपन से लेकर कुछेक वर्ष पहले तक मैंने काफ़ी बीमारियाँ भुगती हैं। एलोपैथी की कितनी दवाएँ और कितने इंजेक्शन मेरे शरीर में समा चुके हैं, इसकी गिनती कर पाना मेरे लिए भी मुश्किल ही है। और तो और, इन दवाओं का दुष्प्रभाव यह हुआ कि मेरे लीवर, फेफड़े, गुर्दे और ऑंतें बुरी तरह प्रभावित हो गए। यदि अभी तक डॉक्टरों अस्पतालों के ही चक्कर में होता तो एक तो ख़र्च लाखों में पहुँचता ही और तब पर भी मेरे अभी तक जीवित बचे रहने की गारंटी होती, इसमें भी संदेह ही था। जीवन को संकटग्रस्त जानकर मैंने आत्मबल जुटाया और अपना डॉक्टर आप बनने की शुरूआत की। प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद, एक्यूप्रेशर, होम्योपैथी का मैंने विशेष अध्ययन किया तो आज स्थिति यह है कि मैं अपने स्वास्थ्य की रक्षा तो कर ही रहा हूँ, प्रतिदिन अपने व्यस्त समय में से एक दो घंटे निकालकर लोगों को चिकित्सा परामर्श और होम्योपैथी की नि:शुल्क दवाएँ भी देता हूँ। इस दौरान शायद उन ग़रीब मरीज़ों को भी उतनी ख़ुशी न हुई होगी जितनी कि उनकी कई असाध्य बीमारियाँ ठीक करने के बाद मुझे हुई हैं।
हर परिवार में न सही तो हर गाँव में ही यदि एक-दो लोग भी इन दुष्प्रभावहीन चिकित्सा पध्दतियों की जानकारी कर लें तो डॉक्टरों अस्पतालों की लूट पर अंकुश लग जाए। एक व्यक्ति का सालाना चिकित्सा ख़र्च यदि औसतन हज़ार रुपये भी मानकर चलें तो दस लोगों के सामान्य परिवार का इस तरह कम से कम दस हज़ार रुपया हर साल बच सकता है। पूरे गाँव के स्तर पर यह रक़म लाखों में पहुँचेगी और इस बचत से गाँव के विकास के कई ज़रूरी काम किए जा सकते हैं। तो निष्कर्ष साफ़ है कि जागरूक लोग अपना डॉक्टर ख़ुद बनने का जोख़िम जरूर उठाएँ, लेकिन अधकचरेपन के साथ नहीं। दो-चार दवाओं के ही नाम न रटें, बल्कि चिकित्सा विज्ञान के सिध्दांतों की समझ बनाएँ तो 'नीम हक़ीम ख़तरे जान' वाली स्थिति नहीं रहेगी। एलोपैथी दवाओं में विशेष सावधानी की ज़रूरत इसलिए पड़ती है कि इसकी ज्यादातर दवाएँ दुष्प्रभाव भी करती हैं। हालाँकि एलोपैथी का सीखना भी होम्योपैथी वग़ैरह से कठिन नहीं है, पर दवाओं के मिश्रणों के समुचित ज्ञान के बगैर इनका इस्तेमाल मनमानी तरीक़े से नहीं ही करना चाहिए। ऐसे में एलोपैथी दवाओं के लिए डॉक्टर की सलाह ज्यादा ज़रूरी हो जाती है; अन्यथा, इस पध्दति की भी पर्याप्त जानकारी हो तो कोई संकट नहीं है।
इस तरह की सलाह पर अमल करके यदि गाँव-गाँव में लोग चिकित्सा सेवा के काम करने लगें तो एक बड़ी अड़चन यह आएगी कि सरकार इस बात की इजाज़त नहीं देगी। चिकित्साशास्त्र की पढ़ाई के लिए बड़े-बड़े मेडिकल कालेज खुले हैं और बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ दी जाती हैं। विज्ञान की पढ़ाई अनिवार्य है। ऐसे में मान लिया गया है कि बिना कालेज की पढ़ाई किए चिकित्साशास्त्र का ज्ञान असंभव है। एलोपैथी की जान-बूझकर जटिल बनाई गई पध्दति के लिए इस धारणा को किंचित ठीक मान भी लें, तो आयुर्वेद या होम्योपैथी के लिए तो इस तरह के अध्ययन की व्यवस्था सरासर अनुचित ही है। होम्योपैथी के बारे में तो यह ग़ज़ब का सच है कि जिसका भी मनोविज्ञान में, सोच-विचार में, समाजसेवा करने में रुचि हो, वह इस पध्दति का बेहतर चिकित्सक बन सकता है।
सिर्फ़ मेडिकल कालेज की डिग्री वालों को ही चिकित्सा क्षेत्र में आने की छूट है, तो इसलिए कि यह अब सेवा का क्षेत्र न रहकर धंधा बन गया है और चिकित्सा माफ़िया नहीं चाहते कि व्यक्ति, परिवार या गाँव-समाज अपने स्वास्थ्य की देख-रेख खुद कर ले। लेकिन यदि राष्ट्रीय स्वास्थ्य की विकराल होती समस्याओं पर क़ाबू पाना है, तो जो भी लोग सेवाभाव से चिकित्सा का काम करना चाहते हैं, उनके लिए बिना कालेज की डिग्री की अनिवार्यता के भी चिकित्साशास्त्र की पढ़ाई की सहूलियत सरकारों को देनी चाहिए। वैसे सरकारी सहूलियत न भी मिले तो भी हर जागरूक व्यक्ति को प्राकृतिक, आयुर्वेदिक, एक्यूप्रेशर, होम्योपैथी आदि में से एक या एकाधिक पध्दतियों की जानकारी करके कम से कम अपना डॉक्टर ख़ुद बनने का पुरुषार्थ तो करना ही चाहिए। वास्तव में संपूर्ण स्वास्थ्य का सपना पूरा हो सकता है तो कुछ इसी तरह।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

खेल के लिए यमुना से खिलवाड़

आख़िर अदालत ने यमुना किनारे राष्ट्रमंडल खेलों के लिए विभिन्न तरह के निर्माणों की इजाज़त दे ही दी। लेकिन, सवाल तो फिर भी है कि राष्ट्रमंडल खेल या एक नदी की ज़िन्दगी से खिलवाड़! काश, यमुना अपने अहसास बाँट सकती तो अपनी वेदना ज़रूर व्यक्त करती कि-- अरे, सृष्टि के सबसे समझदार प्राणी, क्या यही तेरी समझदारी है कि अपने चन्द दिनों के खेल-तमाशे के लिए युग-युग से मेरे खेलने-विचरने की, मेरे हिस्से की ज़मीन भी हड़प ले। लेकिन दुर्भाग्य! यमुना सिर्फ़ एक नदी है। प्रकृति की मूक बेजान संरचना। उसके हर्ष-विषाद की कोई परिभाषा नहीं है, न कोई ज़ुबान। एक मरती हुई नदी के अहसास से गुज़रना, उसकी पीड़ा उसके क्रंदन को महसूस कर पाना तो दरअसल किसी बड़े जिगरे का काम है, जो प्रकृति के साथ समरस होकर जीवन जीने से संभव बनता है। और यह, शायद प्रकृति को रौंदकर विकास के महल बनाने के जुनून में पगलाए जा रहे आज के आदमी में नहीं रहा। और इस नाते, ढेर सारे प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों, विरोधों-आपत्तियों के बीच विकास के नाम पर यमुना किनारे अतिक्रमण चलता रहेगा; उसके तटों पर पंचतारा होटल, मॉल, हेलीपैड और खेल प्रशाल बनते रहेंगे; और अंतत: सन्-2010 में दस दिनों तक कभी के उपनिवेश देशों की आज़ाद धमा-चौकड़ी भी चलेगी ही।
सवाल सन्-2010 में दिल्ली में आयोजित किए जा रहे राष्ट्रमंडल खेलों के औचित्य पर नहीं है। खेल तो होने ही चाहिए; क्योंकि वे मनुष्य जीवन की नीरसता कम करते हैं, संघर्षों के लिए हौसला देते हैं, देह-दिमाग़ की सक्रियता के महत्वपूर्ण उपादान हैं। यह बात अलग है कि दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन को जिस पैमाने पर राष्ट्रीय गौरव घोषित किया जा रहा है, वैसा बहुत कुछ है नहीं। यह हमारे लिए कोई जग जीतने वाली बात भी नहीं है। फिर भी ये खेल हों और सफलता के साथ हों, तो राष्ट्र का सम्मान बढ़ने से भला कहाँ इनकार।
मूल सवाल दरअसल यह है कि क्या सिर्फ़ दस दिन के जोश के लिए सदियों से हमारी तहज़ीब का हिस्सा रही एक नदी की अस्मिता से ऐसा अविवेकपूर्ण बरताव किया जाएगा, जिसके परिणाम भविष्य में ख़तरनाक हो सकते हैं? क्या राष्ट्रमंडल खेलों के लिए इस देश में और कोई जगह नहीं बची? दिल्ली में यमुना किनारे ही ये आयोजन आख़िर क्यों? और अगर, राष्ट्र का गौरव दिखाने को दिल्ली की ही दरकार है, तो यमुना तट छोड़ और भी तमाम जगहें दिल्ली में या दिल्ली के इर्द-गिर्द चिह्नित क्यों नहीं की जा सकती थीं?
चन्द दिनों के लिए ही यमुना के तटों पर अस्थायी अतिक्रमण की बात होती तो भी बहुत ज्यादा चिंता की बात नहीं थी। चिंता तो इस बात से पैदा होती है कि खेल ख़त्म होने के बाद भी यमुना को उसका मूल स्वरूप वापस नहीं मिलेगा। उसकी प्राकृतिक संरचना हमेशा-हमेशा के लिए बिगाड़ दी जाएगी। यमुना सिमट जाएगी। दिल्ली में उसके तट से 47 किलोमीटर का दायरा समाप्तप्राय: सा हो जाएगा और निरंतर गंदे नाले में तब्दील होती जा रही इस नदी की दशा और भी दयनीय हो जाएगी।
दुर्भाग्य है कि सारी दुनिया में पर्यावरण चेतना के ढेर सारे अभियानों के बावजूद हमारे नीति-निर्माताओं, योजनाकरों को यह बात समझ में नहीं आती कि अविरल बहती एक नदी का मनुष्य के जीवन से कितना घना रिश्ता है। बात शहरों की, घनी आबादी की हो, तो यह सवाल और मौज़ूँ हो उठता है। प्राचीनकाल से ही हमारे शहर नदियों से नज़दीकी बनाकर बसते रहे हैं तो यह यूँ ही नहीं है। ख़ास बात यह भी है हमारा नगरीय जीवन नदी तटों से सटकर भले ही शुरू हुआ, पर उसने कभी इन तटों को अतिक्रमण का शिकार नहीं बनाया। प्रकृति की यह हमारी पुरातन समझ है कि नदी अपने किनारों का जो विस्तार करती है वह प्राकृतिक संतुलन की अनिवार्य माँग होती है। हमारे पुरखों को मालूम था कि नदी के तटों पर कंक्रीट के जंगल नहीं, हो सके तो पेड़-पौधों की हरियाली पैदा की जाती है, ताकि नदी की निर्मल धार और हरियाली का सुयोग हमारे फेफड़ों को साफ़ स्वास्थ्यप्रद हवा प्रदान करने का माध्यम बने, और बाढ़ की विभीषिकाएँ विनाश के त्रासद अध्याय न लिख पाएँ। यमुना का तट, कदम्ब का पेड़ और बंसी बजैया - मिलकर इस देश का सांस्कृतिक प्रतीक गढ़ते हैं। यह बात हमारे रहनुमाओं को समझ में आ जाय तो शायद वे यह भी जान-समझ पाएँगे कि यमुना के किनारों को पाट देने का उनका पुरुषार्थ अंतत: हमारे जीवन से बहुत कुछ छीन लेने का धतकरम ही साबित होगा।
राष्ट्रमंडल खेलों के चलते यमुना के साथ कैसा खेल शुरू हुआ है और इसके क्या नफ़ा-नुक़सान हैं, इसे समझने के लिए पूरी योजना पर ही एक निगाह डालनी होगी। जो खेलगाँव यमुना के तटों को पाटकर बनाया जा रहा है, उसके तहत पाँच सितारा होटल, हेलीपैड, मॉल, मनोरंजन केंद्र वगैरह बनेंगे। 8500 खिलाड़ियों के ठहरने के लिए 4500 कमरों की आलीशान इमारतें बनाने का काम जारी है। यमुना के सीने पर ही आरामदेह दिल्ली को समर्पित मेट्रो का बुलडोजरी अक्स तो ख़ैर बहुत पहले से ही साफ़ दिखने लगा है। मेट्रो डिपो का काम दिन-दूनी रात-चौगुनी रफ्तार से जारी है। भगवान का नाम लेकर बना अक्षरधाम मंदिर भी यमुना की देह में ज़बरदस्ती पनपा दिया गया एक नासूर ही है। खेल के नाम पर तो ख़ैर जिस तरह से नित नई योजनाओं की घोषणा जारी है उसके चलते कहा नहीं जा सकता कि इस नदी के साथ अभी और कितने हादसे गुज़रेंगे।
राष्ट्र के इस तथाकथित आत्मगौरव के लिए पहले का तय पूरा बज़ट 1700 करोड़ रुपए तो जाने कब का पानी की तरह बहा दिया गया है। अब तो बात 23000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा ख़र्चने तक जा पहुँची है। ज़ुबान से अंक-ऑंकड़े तो आप बड़ी आसानी बोल-बताकर आगे बढ़ सकते हैं, पर देश के आम आदमी को तो तब अहसास होगा जब उसे यह पता चले कि इतने पैसों में देश के सारे गरीब बच्चों की पढ़ाई का इन्तज़ाम किया जा सकता है। या, इतने पैसों में पाँच सौ बेहतर सुविधाओं के अस्पताल खोले जा सकते हैं। इतना धन ठीक से समायोजित कर दिया जाए तो आत्महत्या कर रहे किसानों की ज़िन्दगी ख़ुशहाल बन जाए। याकि, इतने धन से गाँवों में पीने के साफ़ पानी की व्यवस्था बहुत बेहतर बनाई जा सकती है। लेकिन अरबों रुपयों के खर्च के बाद कुल नतीजा यह होगा कि दिल्ली में यमुना और दुबली हो जाएगी। दुखद यही है कि यमुना के दुबलाने का अर्थ सिर्फ़ उसका किनारा-कछार ख़त्म हो जाने तक ही सीमित नहीं रहेगा। इसके नतीजों को तो यमुना के जल अधिग्रहण क्षेत्र के सिमट जाने के ख़तरों के अन्यान्य रूपों में पहचानना होगा। इससे बरसात में जल सोखने का क्षेत्र घट जाएगा, जिससे दिल्ली और उसके इर्द-गिर्द के इलाकों की सतह के नीचे जो भूजल भंडार है उसकी पुनर्भरण की अब तक की सहज प्राकृतिक प्रक्रिया भी बाधित हो जाएगी। मतलब यह कि अभी से पानी की किल्लत झेल रहा महानगर और मुश्किल में फँसेगा। नदी के जल अधिग्रहण क्षेत्र के सिमटने का यह भी अर्थ है कि दिल्ली जैसी घनी आबादी वाले शहर से खुले इलाके का एक बहुत बड़ा हिस्सा ख़त्म हो जाएगा। नतीजतन, हवा में प्रदूषण का ख़तरा अब और बढ़ेगा। अजब विडम्बना है कि यमुना की खादर पर विकास और राष्ट्रीय सम्मान के नाम पर बेहद घनी आबादी की उस दिल्ली में अतिक्रमण का खेल चल रहा है, जहाँ खुले तटों की ज़रूरत ज्यादा है। इसके भावी संकेत यह भी हो सकते हैं कि कहीं एक दिन यमुना को पूरी तरह पाटकर समतल बना दिए जाने की ही कोई योजना न सामने आ जाए।
विकास की आधुनिक सोच के पंडित ख़ुशहाली का रास्ता जिस तरह 'नदी जोड़ो' जैसी योजनाओं में देख रहे हैं, उसके चलते नाला बन चुकी यमुना की राह नदियों को जोड़ने के क्रम में सचमुच बदलकर दिल्ली से उसका वजूद ही मिटा दिया जाए तो सचमुच कोई बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिए? भविष्य की पीढ़ियाँ अस्तित्व के संकट से जूझने को अभिशप्त हों तो अपनी बला से! अभी हाल तो हमें अपनी तकनीकी उपलब्धियों पर इतना भरोसा हो चला है कि नदी की धारा बदल देने, उसके तटों को पाटकर वहाँ बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर देने में ही विकास और समॄध्दि के सूत्र दिखाई दे रहे हैं। लेकिन शायद यह हम भूल रहे हैं कि प्रकृति के नियमों में किंचित भी फेरबदल कर सकने की बिसात आदमी में नहीं हैं। आख़िर हम उत्पाद तो प्रकृति के ही हैं, तो प्रकृति पर भारी पड़ने का मुग़ालता अंतत: हम पर ही भारी पड़ेगा। नदी प्रकृति की महान निर्मितियों में से एक है। नदी के स्वरूप में इतना बड़ा परिवर्तन कोई गङ्ढा खोदने-पाटने जैसी छोटी-मोटी परिघटना नहीं है कि इसके परिणामों की अनदेखी कर दी जाए। प्रकृति की बड़ी संरचनाओं के साथ छेड़छाड़ के परिणाम भी बड़े ही होंगे। धरती की हरियाली की अहमियत हमने कम की, हवा में ज़हर घोला तो उसके दुष्प्रभावों के तौर पर प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, जीव-जन्तुओं की तमाम प्रजातियों पर मँडरा रहे ख़तरे का सामना तमाम वैज्ञानिक-तकनीकी उपलब्धियों के बाद भी सारी दुनिया को करना ही पड़ रहा है। ऐसे में दिल्ली में यमुना के तटों पर बड़ी-बड़ी इमारतों का जाल खड़ा कर देने का प्रकृति विरोधी काम भी किसी भी ख़तरे को आमंत्रित कर दे, तो ताज्ज़ुब की बात न होगी। जगह-जगह बंधी हुई यमुना दिल्ली में नाला जैसी हो गई है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि भविष्य में इसमें कभी पानी नहीं उफनेगा। बरसात या पिघलते ग्लेशियरों ने कभी बाढ़ की स्थिति पैदा की अथवा टिहरी जैसे बाँधों की दीवारें - भगवान न करे - कभी दरक गईं तो उफनता पानी यमुना का तल तलाश ही लेगा और तब उसके जल अधिग्रहण क्षेत्र में खड़ी बहुमंजिली इमारतों का क्या हाल होगा, यह सोच लेना भर रोंगटे खड़े करने को काफ़ी है। ख़तरा भूकंप का भी है। दिल्ली सिस्मिक जोन चार में आता है। यानी भूकंप के बड़े ख़तरे यहाँ की धरती ने अपने गर्भ में छुपा रखे हैं। उसमें भी यमुना के तटों पर ख़तरा अन्य जगहों की तुलना में ज्यादा ही है। ऐसे में भूकंप की स्थितियों में विनाश का शिकार भी यमुना का तट ही ज्यादा होगा। प्रकृति के शायद ये संकेत हैं कि उसने आदमी के स्थायी निवास न बन लायक़ ख़तरे की जगहों पर नदी, पहाड़, समंदर बना रखे हैं, ताकि वहाँ आबादी की स्थितियाँ कम बनें या न बनें; पर आदमी प्रकृति के संकेत समझने से इनकार कर दे तो दैवी आपदाओं में दोष किसका?
यमुना के शीलहरण की दरअसल यह 'रियल स्टेट' कहानी है। रियल स्टेट के बड़े-बड़े खिलाड़ियों, बिल्डर माफियाओं की निगाहें अब यमुना के खुले तटों पर ही लगी हैं। दिन-दिन फैलती दिल्ली में घटती ज़मीनों ने मुनाफ़े के कारोबारियों को यमुना के किनारे के दस हज़ार हेक्टेयर खाली इलाके में अकूत पैसा बनाने की संभावना दिखा दी है। राष्ट्रीय सम्मान के राष्ट्रमंडल खेलों को तो असल में क़ब्ज़े की शुरुआत के लिए एक बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। इसका प्रमाण यह भी है कि खेल ख़त्म होने के बाद इसके निर्माणों को बड़े पैमाने पर बेचने की योजना अभी से बना ली गई है। बड़ी संख्या में बने फ्लैट दो-दो करोड़ में बिकेंगे। 'राष्ट्रीय सम्मान' का शोर मचाकर तमाम विरोधों के बावजूद सौ एकड़ के तट पर डीडीए के क़ाबिज़ होने की प्रक्रिया पूरी होने को है। यहाँ रिहायशी और व्यावसायिक इमारतें बनेंगी। पर्यावरण और वन मंत्रालय पर दबाव डालकर 'पर्यावरण स्वीकृति' भी प्राप्त कर ली गई है। भले ही मंत्रालय ने यमुना तट की स्थितियों के मद्देनज़र सिर्फ़ अस्थायी निर्माण की स्वीकृति दी हो, पर सत्ता-तंत्र का मिज़ाज पहचानें तो साफ़ कहा जा सकता है कि खेल ख़त्म होते ही अस्थायी को स्थायी में बदलते देर न लगेगी। मज़े की बात यह है कि इस सारे निर्माण में प्राइवेट बिल्डरों की सबसे बड़ी भूमिका रहेगी। मतलब, खेल के बहाने मुनाफ़े का खेल। आम आदमी की इसमें भी कोई जगह नहीं। असल में विकास के नाम पर हर तरह के खेल-तमाशे में 80 फ़ीसद उस आबादी की नियति में तो त्रासदी भोगना ही बदा है जो जल-जंगल-ज़मीन का सिर्फ़ ज़रूरत भर को इस्तेमाल करके अपनी ज़िन्दगी गुज़ार रहा है।
कहने को सरकारी ऐलान यही है कि यमुना को बरबाद नहीं होने दिया जाएगा, बल्कि राष्ट्रमंडल खेलों के चलते उसका कायाकल्प कर दिया जाएगा। 3150 करोड़ रुपए की योजना सिर्फ यमुना की साफ़-सफ़ाई के लिए तैयार की गई है। यमुना के किनारों के लिए बनी योजनाओं से पूर्वी और मध्य दिल्ली का हुलिया तक बदल देने की बात कही जा रही है। डीडीए ने यमुना की अभी तक किसी भी तरह की छेड़छाड़ से बच गई 7300 हेक्टेयर ज़मीन का कायाकल्प करने की घोषणा की है। इसमें से 85 फ़ीसद ज़मीन मनोरंजन गतिविधियों के काम में ली जाएगी। इसके तहत पार्क, वाटर स्पोट्र्स, पक्षी अभ्यारण्य, हेरिटेज वॉक से लेकर फार्मूला वन रेसिंग कार के टैक वगैरह बनेंगे। वादा यह भी है कि यमुना किनारे पक्के निर्माण कम से कम किए जाएंगे।
यमुना को बचाने-सँवारने की सरकारी चिंता अगर असली हो तो कुछ राहत महसूस की जा सकती है, पर दुर्भाग्य से अब तक यमुना के कायाकल्प की जो भी सरकारी चिंताएं सामने आई हैं, उनके नतीजे उल्टे दुखी करने वाले ही रहे हैं। पिछले डेढ़ दशक में यमुना की सफ़ाई पर 1500 करोड़ रुपए से ज्यादा ख़र्च कर दिए गए, पर इस नदी में गंदगी की कालिमा बढ़ती ही रही। यमुना को बचाने की ढेर सारी आयोजनाओं का कुल नतीजा यह हुआ है कि 30 जगहों पर इस नदी का तट अब तक ख़त्म हो चुका है। ढेर सारी कोशिशों के बावजूद 22 नाले 3296 मिलियन गैलन लीटर गंदा पानी और औद्योगिक कचरा यमुना में दिन-रात उड़ेल ही रहे हैं, भले देश का 40 फ़ीसद सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट अकेले दिल्ली में ही हो।
इन हालात में समाज, संस्कृति और आबोहवा बचाए रखने के हामी लोग अगर चिंतित हो रहे हैं कि कहीं राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन यमुना के वजूद पर कहर बनकर न टूटे, तो स्वाभाविक ही है। त्रासदीपूर्ण स्थिति यह है कि तथाकथित विकास का कालिया नाग यमुना के सीने पर सवार है, और उसे नथ सकने की कूवत वाला कोई कृष्ण दूर-दूर तक नजर नहीं आता।
सन्त समीर

सोमवार, 15 दिसंबर 2008

बिन ईमानदारी दुनिया कहाँ रहेगी

अन्तरजाल के संसार में विचरते हुए जिन बन्धु ने यह प्यारी सी कहानी याद दिला दी, उनका बहुत-बहुत आभार। लीजिए, आप भी सुनिए!
महाभारत युध्द अपनी परिणति को प्राप्त हो चुका था और राज्य पाण्डवों को वापस मिल गया था। शासन की बागडोर युधिष्ठिर के हाथ थी। कहानी युधिष्ठिर के शासनकाल की ही है। एक किसान ने अपना खेत दूसरे किसान को बेच दिया। दूसरे किसान ने जब खेत जोतना शुरू किया तो हल का फल एक जगह पर अटक गया। किसान ने उस स्थान को खोदा तो स्वर्ण मुद्राओं से भरा एक कलश निकल आया। इस कलश को लेकर फौरन वह उस किसान के पास पहुँचा, जिससे उसने खेत ख़रीदा था। उसे कलश सौंपते हुए बोला कि यह लो, इस पर तुम्हारा ही अधिकार है, क्योंकि मैंने जब खेत ख़रीदा था तो सिर्फ़ मिट्टी के दाम दिए थे, इस कलश के नहीं। तुम्हारे पूर्वजों ने कभी इसे ज़मीन में गाड़ा रहा होगा, इसे अब तुम ही सँभालो। लेकिन, पहले किसान ने कलश लेने से इनकार कर दिया। उसने कहा कि मैंने तो खेत बेच दिया, अब उसमें से अनाज निकले या कुछ और, उस पर तो तुम्हारा ही अधिकार है।
बात उलझ गई। काफ़ी देर तक तर्क-वितर्क चलता रहा, पर दोनों में से कोई भी उन स्वर्ण मुद्राओं भरे कलश को अपने पास रखने को तैयार न हुआ। अन्तत: समस्या सुलटाने दोनों महाराज युधिष्ठिर के पास पहुँचे। युधिष्ठिर ने उन दोनों को ही समझाने की बहुतेरी कोशिश की, परन्तु बात न बनी। कुछ सोच-विचार कर दोनों किसानों ने सुझाव दिया कि महाराज राज्य आपका है, सो इसे आप ही सँभाले। क्यों न इन स्वर्ण मुद्राओं को राजकीय ख़जाने में जमा कर दिया जाए? पर, युधिष्ठिर भी ऐसा करने को तैयार न हुए। अन्त में यह गुत्थी इस तरह सुलझाई गई कि एक निर्धन कन्या के विवाह में इन स्वर्ण मुद्राओं को ख़र्च किया गया। यानी दोनों किसानों के साथ महाराज युधिष्ठिर ने भी उस धन पर अपना अधिकार नहीं समझा।
काश! ऐसी ईमानदारी आज के समाज में भी होती तो कल्पना करिए कि यह संसार कैसा होता! हम घर से बाहर निकलते, निर्भय-निर्द्वन्द्व। घर से खाकर निकलें या बाहर जाकर होटल-ढाबे में खा लें, बात बराबर। कहीं कोई मिलावट नहीं; खाने में असली तेल-घी है या जानवर की चर्बी, ऐसे किसी सन्देह की भी गुंजाइश नहीं। ईमानदार समाज हो तो बाज़ार में कहीं भी कुछ भी ख़रीदें तो सही दाम, ठीक सामान और फिर तो मोल-तोल की नोंक-झोंक भी क्यों? कितना सुकून मिले, जब आप किसी सरकारी दफ्तर पहुँचें और बगैर आपकी जेब पर ऑंख गड़ाए बाबू आपकी फाइलें निबटा दे, पूरी मुस्तैदी के साथ। न कोई रिश्वत न लेट-लतीफ़ी। ईमानदारी का समाज हो तो मनुष्य, मनुष्य के साथ तो विश्वासघात नहीं ही करे, प्रकृति के साथ भी समरस होकर जिए। ईमानदारी का वातावरण हो तो निठारी जैसे वीभत्स काण्ड भी न देखने पड़ें और हर तरफ़ अमन-चैन का साम्राज्य हो।
लेकिन दुर्भाग्य! आज की दुनिया में ऐसे समाज की कल्पना सिर्फ सपने की सी बात लगती है। और, ऐसा सपना देखने वाले के लिए सामान्यत: हर कोई यही कहेगा कि - दिल के बहलाने को ग़ालिब ख़याल अच्छा है। व्यवस्था के हर पायदान पर भ्रष्टाचार जो पसर चुका है। ईमानदारी तो जैसे अजायबघर की वस्तु बन गई है। हाल का ही सर्वे है कि भारत में भ्रष्टाचार निरन्तर बढ़ रहा है और ईमानदारी घट रही है। 180 देशों के बीच भ्रष्टाचार के मामले में भारत जहाँ पहले 72वें स्थान पर था, वहीं अब खिसककर और नीचे 85वें स्थान पर पहुँच गया है। ईमानदारी का अंक 3.5 से घटकर 3.4 हो गया है। दिन-दिन घटती ईमानदारी और बढ़ते भ्रष्ट आचरण का ही परिणाम है कि समाज के हर हिस्से में सड़ान्ध सा फैलता दिखाई देता है। हाल यह है कि आज दिन-दोपहर भरे बाज़ार में भी एक अकेली लड़की कहीं किसी काम से निकले तो लगता है जैसे भूखे शेर-चीतों के झुण्ड के सामने से गुज़र रही हो। सैकड़ों शिकारी निगाहें उसे घूरने लगती हैं। जबकि, होना तो यह चाहिए था कि आधी रात को भी कोई बला की ख़ूबसूरत स्त्री भी अकेली कहीं निकल जाए, तो कम से कम मनुष्य नाम के प्राणी से डरने की ज़रूरत तो उसे न ही पड़े। भय की स्थिति तो हिंस्र जानवरों को देखकर पैदा होनी चाहिए। मनुष्य को देखकर तो सुरक्षा-भाव का अहसास होना चाहिए। किसी स्वस्थ समाज की मूल पहचान वास्तव में यही है।
परन्तु आज, इस तरह के समाज-निर्माण की बात करिए तो लोग आप पर हँस पड़ेंगे और फ़ब्ती कसते हुए कहेंगे कि बन्धुवर! इस युग में ईमानदारी की राह चलेंगे तो कभी आगे नहीं बढ़ सकेंगे।
क्या सचमुच ईमानदारी की राह इतनी कठिन हो गई है; या कि ईमानदारी भरे जीवन की नियति असफलता के अन्धकार में पहुँचकर विलीन हो जाना है? नहीं, बिलकुल नहीं! ऐसा नैराश्य तो प्रतिगामी लोगों के मन में ही पैदा हो सकता है। डगर कठिन अवश्य है, पर इतनी बड़ी निराशा की कोई वजह नहीं है। रास्ते कण्टकाकीर्ण हो सकते हैं, पर बन्द नहीं हैं। असल बात हौसले की है, इच्छाशक्ति की है। प्रश्न यह है कि हमारा मन्तव्य क्या है? हमारी चाह सकारात्मक है, हम ईमानदार जीवन जीना चाहते हैं, तो ईश्वर की इस सृष्टि में सम्भावनाओं के द्वार चारो ओर खुले हुए हैं। याद रखिए कि इस संसार के विभिन्न मानवीय समाजों में व्यवस्था नाम की कोई भी चीज़ अगर बची हुई है, तो वह बेईमानी नहीं ईमानदारी के कारण है। जिस ईमानदारी को लोग जीवन से बेदख़ल करके सफल होना चाहते हैं, अगर वह पूरी तरह समाप्त हो जाए तो यह संसार चल नहीं सकता। हर तरफ़ बेईमानी का अर्थ है कि हर व्यक्ति अपना स्वार्थ साधने को हर समय सामने वाले को धोखा देने को तैयार दिखाई देगा। कोई किसी पर ज़रा भी विश्वास नहीं करेगा। और तब, जीवन-व्यवहार क्षणमात्र भी नहीं चल सकता। सिर्फ़ बेईमानी से काम निकालने का अर्थ है कि हम एक-दूसरे को ही समाप्त करने पर तुले होंगे। यहाँ तक कि न बाप-बेटे में आपसी विश्वास होगा और न भाई-बहन में। सही बात तो यह है कि यदि आएदिन हम विश्वासघात की कहानियाँ सुनते हैं तो इसका अर्थ यही है समाज में कहीं न कहीं विश्वास बचा हुआ है, जिसे कि कुछ स्वार्थी लोग तोड़ते हैं।
वास्तव में समाज में सुव्यवस्था की जो भी स्थितियाँ हैं, वे ईमानदारी के कारण हैं और दुर्व्यवस्था की जो स्थितियाँ हैं, वे बेईमानी के कारण हैं। हाँ, लोगों में अपने दायित्वों के प्रति ईमानदारी की मात्रा ज्यादा होगी तो सुव्यवस्था ज्यादा होगी और बेईमानी की मात्रा ज्यादा होगी तो दुर्व्यवस्था ज्यादा होगी। सुन्दर समाज के आकांक्षी लोगों को चाहिए कि वे जहाँ भी हैं, जैसे भी हैं, ईमानदारी को प्रोत्साहित करें। स्वयं तो ईमानदार रहें ही, अच्छी बात है, पर औरों को भी ईमानदार रहने की प्रेरणा दें तो और अच्छी बात है। ईमानदारी का सुकून बेईमानी की तमाम सुख-सुविधाओं पर निश्चित रूप से भारी है; पर याद यह भी रखना चाहिए कि निर्वीर्य ईमानदारी का इस युग में बहुत अर्थ नहीं है। ईमानदारी मजबूरी का नाम नहीं होना चाहिए। ईमानदारी का वास्तविक रूप वास्तव में मनुष्य को अपने काम में योग्य बनाता है, उसे दक्षता की दिशा में ले जाता है। अकुशलता, फूहड़पना एक तरह से अपनी स्वाभाविक क्षमता के प्रति बेईमानी है। ईमानदार व्यक्ति कार्यकुशल हो तो वह कभी बेकार नहीं रह सकता। भ्रष्टाचार चाहे जितना बढ़ जाए, पर ईमानदार आदमी की आवश्यकता कभी ख़त्म नहीं हो सकती। सचाई तो यह है कि बेईमान भी चाहता है कि उसके यहाँ काम करने वाला उसके साथ ईमानदारी से रहे। मतलब कि बेईमान को भी एक स्तर पर जाकर ईमानदार की ही जरूरत है। बस, चाहिए यह कि यदि हम अपने साथ दूसरों का बरताव ईमानदारी भरा चाहते हैं, तो हम भी दूसरों के साथ ईमानदारी से प्रस्तुत हों। जीवन-व्यवहार का यही मूल रहस्य समझने-समझाने की है। हमारा जीवन ज्यादा से ज्यादा सौ-सवा सौ साल का है। अपवाद के तौर पर बहुत ज्यादा जी लेंगे तो डेढ़-दो सौ साल। इसी से हम सोच सकते हैं कि काल के अखण्ड प्रवाह में मनुष्य का भरपूर जीवन भी समन्दर में बूँद बराबर भी न होगा। ऐसे में, याद रखना चाहिए कि बेईमानी की बैसाखी मजबूती का सिर्फ़ भ्रम पैदा कर सकती है और बीच डगर में कभी भी धोखा दे सकती है। शाश्वतता तो सत्य, ईमानदारी से नि:सृत मूल्यों की ही रहती है। आख़िर बेईमानी के व्यापार से कुछ लाख या करोड़ रुपए इधर-उधर करके भी हम कौन से नए सूरज, चाँद, सितारे गढ़ लेंगे!
आइए, अपनी अन्तरात्मा में थोड़ा आत्मबल जगाएँ, ईमानदारी की राह पर दो पग बढ़ाएं, अपने सगे-सम्बन्धियों-पड़ोसियों को भी इस राह का राही बनने की थोड़ी प्रेरणा दें - और इस तरह, इस संसार को थोड़ा और रहने के क़ाबिल बनाएं। मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है।

रविवार, 7 दिसंबर 2008

समलैंगिकता ज़िन्दाबाद

तो क्या आने वाले दिनों में भूख, ग़रीबी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पीछे हो जाएँगे और देश के सामाजिक संगठन समलैंगिक प्रेम की आज़ादी का आन्दोलन चलाते हुए दिखेंगे? संकेत जो मिल रहे हैं वे कुछ ऐसी ही कहानी कह रहे हैं। स्थितियाँ ऐसी बन रही हैं कि भारत में भी समलैंगिकों के समूह आजकल बल्लियों उछल रहे हैं। समाज के सबसे समझदार और स्पष्ट दृष्टिबोध की पहचान वाले लोग उन्हें खुलकर समर्थन देने लगे हैं, तो इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है? सामाजिक संगठनों के सोशल फोरम जैसे महाआयोजनों में समलैंगिकता का मुद्दा अगर विशेष महत्व पाने लगे, तो इसका अर्थ यही निकलता है कि बेहतर दुनिया बनाने की चाह रखने वालों की प्राथमिकताएँ कुछ और दिशा ले रही हैं।

 

बहरहाल, समाजकर्म में लगे सारे ही लोग भले ही इस दिशा में न हों, पर जो तसवीर उभर रही है, वह चिन्ताजनक है। जिस देश में आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी दो जून की रोटी का ठीक से इन्तज़ाम न कर पाता हो; जिस देश के लाखों बच्चों की ज़िन्दगी कूड़ा बीनने और फुटपाथों पर ठिठुरते हुए रात गुज़ारने को अभी भी अभिशप्त हो; जिस देश की स्त्रियाँ ढेर सारी वर्जनाओं में ख़ुद को आज भी जकड़ा हुआ महसूस करती हों; जिस देश के जवान सपने बेरोज़गारी के ऍंधेरे में गुम हो जाने की नियति से ग्रस्त हों; उस देश में सामाजिक सरोकारों का दम भरने वाले लोग समलैंगिकता के आज़ाद व्यवहार के छूट की माँग को अपनी प्राथमिकताओं के शीर्ष पर रखने लगें, तो यह दु:खद ही है। इसे बुनियादी सरोकारों को दरकिनार कर सिर्फ़ मौज-मस्ती के लिए एक विकृत उच्छृंखल स्वार्थवृत्ति प्रेरित स्वच्छन्द भोग की बेलगाम लालसा के अलावा और क्या कहा जा सकता है?

     

इस सूचना पर आप हँसें या तरस खाएँ, पर यह सच है कि साल भर पहले ही प्रशान्त भूषण, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, एम. जे. अकबर, सतीश गुजराल, श्याम बेनेगल, कुलदीप नैयर, आशीष नन्दी, शुभा मुद्गल, अरुन्धती राय, सुमित सरकार, बी. जी. वर्गीज, अरुणा राय और दिलीप पडगाँवकर जैसे लोग समलैंगिक आन्दोलन के पक्ष में खड़े हो चुके हैं। अमर्त्य सेन जैसे व्यक्ति ने तो यहाँ तक कह दिया कि-'समलैंगिक आचरण की स्वतन्त्रता है या नहीं, इससे तय होता है कि मानव सभ्यता का कितना विकास हुआ है।' सभ्यता के विकास के इस अजब-गज़ब पैमाने पर क्या कहा जाए? इसे एक भले दिमाग़ का बुरा इस्तेमाल न कहें तो क्या कहें?

     

इधर समलैंगिक समूह अपना एक अलग तर्कशास्त्र और जीवन-दर्शन विकसित करने में लगे हैं। इसके लिए  पत्रिकाएँ और वेबसाइटें तक चल रही हैं। कुछ वैज्ञानिक अध्ययन इस दिशा में उनके लिए ख़ासे मददगार साबित हो रहे हैं। बात-बात में वैज्ञानिक अध्ययनों का हवाला देने वाले समझदार क़िस्म के लोगों के लिए भी यह क़ायल करने वाली बात है ही। ब्रूस बागेमील, जोआन रफगार्डन, पॉल वाज़ जैसे वैज्ञानिकों के अध्ययनों का निष्कर्ष है कि मनुष्य की बात हो या मनुष्येतर प्राणियों की, नर-मादा का प्रेम स्वाभाविक नहीं है। मसलन, पक्षियों को छोड़कर अभी तक नर और मादा के बीच भावनात्मक सम्बन्धों के प्रमाण नहीं मिले हैं। या कहें यदा-कदा ही मिले हैं। वहीं दूसरी ओर, प्रकृति में नरों में आपस में और मादाओं में आपसी गहरे भावनात्मक सम्बन्धों के प्रमाण बहुत बड़ी संख्या में हैं। यह भी कि स्तनधारियों में नर और मादा का समागम केवल प्रजनन के लिए होता है और उतना ही होता है जितना कि प्रजनन के लिए ज़रूरी हो। यह समागम आनन्द और प्रेम के लिए हरगिज़ नहीं होता। यानी मनुष्यों में नर व मादा यदि प्रजनन की ज़रूरत से ज्यादा सम्बन्ध रख रहे हैं तो यह प्रकृति की व्यवस्था के ख़िलाफ़ है। कुछ वैज्ञानिक अध्ययनों का निष्कर्ष यह भी है कि चिम्पाजी की प्रजाति बोनोबोस, जिर्राफ, पेंग्विन, पैरेट, बीटल्स, व्हेल्स समेत डेढ़ हज़ार से ज्यादा प्रजातियों में होमो सैक्सुअलिटी के गुण पाए जाते हैं। नार्वे की राजधानी के 'द ओस्लो नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम' में तो पिछले दिनों बाक़ायदा इसकी एक प्रदर्शनी भी लगाई गई। यह जानना भी दिलचस्प होगा कि लगभग 23 सौ साल पहले ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने हाईनस नामक जीव में होमो सैक्सुअलिटी की बात कही थी। इसके अलावा कुछ लोग समलैंगिकता को आनुवंशिक विशेषता के तौर पर जब-तब प्रचारित करते ही रहते हैं।

     

अब, अगर ये अध्ययन और निष्कर्ष सचमुच प्रकृति में क़ायम जीवन-व्यवहार की सही व्याख्या करते हैं तो हमारे जैसे लोग इन्हें कब तक नकार पाएँगे? दुनिया के दरो-दीवार की खुलती हुई खिड़कियों से एक न एक दिन सच की रोशनी आ ही सकती है। असल में हमारी दिलचस्पी सचमुच के किसी वैज्ञानिक निष्कर्ष को नकारने की नहीं, बल्कि यह देखने की है कि क्या ये अध्ययन वैज्ञानिक ही हैं या विज्ञान के नाम पर इनमें किसी छद्म का इस्तेमाल हुआ है। अगर समलैंगिकता के झंडाबरदार इन वैज्ञानिक अध्ययनों को अपने पक्ष में अकाट्य प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत करते हुए यह कहना चाहते हैं कि स्त्री और पुरुष का समागम सिर्फ़ सन्तति के लिए है और यह आनन्द और प्रेम के लिए हरगिज़ नहीं है तो फिर उन्हें इस प्रत्यक्ष अनुभूति का भी जवाब देना होगा कि स्त्री-पुरुष समागम में आनन्दातिरेक और प्रेम की अभिव्यक्ति होती क्यों है? कोई लाख चाहे पर समागम के दौर के आनन्दातिरेक से विमुख नहीं रह सकता। समागम में आनन्द प्राप्ति जैसी कोई बात न होती तो आदमी कामान्ध होकर बलात्कार जैसी बेजां हरकतें भी क्यों करता? सहज अनुभूतियाँ जीवन-व्यवहार की सही व्याख्या करती हैं या खींच-तान कर कुछ निहित उद्देश्यों को लेकर निकाले जा रहे तथाकथित वैज्ञानिक अध्ययन? यदि यौन और प्रेम सम्बन्ध पुरुष का पुरुष या स्त्री का स्त्री के साथ ही स्वाभाविक और प्राकृतिक होता तो प्रकृति ने स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे का पूरक क्यों बना दिया? प्रकृति ने क्यों नहीं समलिंगी सम्बन्धों में ही सन्तति की सम्भावना भी बना दी? आख़िर सृष्टि को चलाए रखने के लिए नर-मादा की पारस्परिक ज़रूरत क्यों?

 

      प्राकृतिक और सहज प्रवाह को बनावटी बन्दिशों से कभी भी एक हद से ज्यादा नहीं रोका जा सकता। काम का आवेग इतना सहज है कि ब्रह्मचर्य की महत्ता पर उपदेशों-प्रवचनों के अम्बार के बाद भी कभी बृहत्तर समाज ब्रह्मचर्य का साधक नहीं बना। ब्रह्मचर्य का चोला पहने लोगों में भी गिने-चुने ही होंगे जो सचमुच काम भाव को क़ाबू में रख पाए हों। फिर, समलैंगिकता ही ज्यादा स्वाभाविक है तो समलैंगिकों की संख्या भी क्यों उँगलियों पर गिनने लायक़ ही रही?

 

      समलैंगिकता के समर्थक यदि यह तर्क प्रस्तुत कर रहे हैं कि प्रकृति में डेढ़ हज़ार से ज्यादा प्रजातियों में समलैंगिक व्यावहार पाया जाता है तो सवाल यह भी उठता है कि बाक़ी की लाखों प्रजातियों में क्यों नहीं समलैंगिकता पायी जाती? यह भी कि मनुष्य को भी इन लाखों में ही क्यों न शामिल माना जाए? और यदि हज़ार-दो-हज़ार या दस हज़ार प्रजातियों में भी समलैंगिक व्यवहार पाया जाए तो क्या सिर्फ़ इस आधार पर ही मनुष्य को भी इस राह पर चल पड़ना चाहिए? आख़िर जो लाखों प्रजातियाँ समलैंगिक व्यवहार नहीं करतीं, उन जैसा व्यवहार आदमी क्यों न करे? अधिसंख्य का व्यवहार ही मनुष्य का प्रेरक क्यों न हो? बात यह भी है कि जिन्हें हम विभिन्न प्रजातियों में समलैंगिक व्यवहार के रूप में देख रहे हैं, हो सकता है कल को वे कुछ और साबित हों। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है, क्योंकि इस तरह के अध्ययनों की प्रवृत्ति बाद में अकसर ग़लत साबित होने की रही ही है। हमने देखा ही है कि किस तरह विज्ञान के ही नाम पर डिब्बाबन्द दूध को माँ के दूध से बेहतर प्रचारित किया गया और जब स्पष्ट दुष्परिणाम दिखे तो निष्कर्ष उलट दिए गए। कहा यह भी गया कि च्युंगम चबाने से याददाश्त बढ़ती है। इससे च्युंगम बनाने वाली कम्पनियों की चाँदी हो गई। जबकि, सच यह है कि याददाश्त का सम्बन्ध च्युंगम से नहीं चबाने की क्रिया से है। इसी तरह प्रसिध्द मेडिकल मैगजीन 'लांसेट' ने एक अध्ययन रिपोर्ट छापी कि होम्योपैथी दवाओं का असर सिर्फ़ मनेवैज्ञानिक होता है और यह अवैज्ञानिक चिकित्सा पध्दति है। पत्रिका ने इस बात का उत्तर देने की ज़रूरत नहीं समझी कि अबोध शिशुओं पर होम्योपैथी दवाओं का क्यों एलोपैथी से भी बेहतर असर दिखता है? या कि जानवरों पर होम्योपैथी दवाओं का कौन सा मनोवैज्ञानिक असर होता है? असल में एलोपैथी के तौर-तरीक़े को ही मात्र विज्ञानसम्मत मानने के दुराग्रह के नाते यह मूर्खतापूर्ण अध्ययन सामने आया।

 

      सिर्फ़ विज्ञान का मुलम्मा चढ़ा देने भर से कोई अध्ययन वैज्ञानिकतापूर्ण नहीं हो जाता। ऐसा होता तो प्राय: एक शोध को सिरे से ख़ारिज कर देने वाले आए-दिन दूसरे शोध सामने न आते। पशु-पक्षियों के व्यवहार में समलैंगिकता तलाशना तो और भी सन्देहास्पद है, क्योंकि इतनी प्रगति के बाद भी हम मनुष्येतर प्राणियों की भाषा, भावना और व्यवहार पर कोई अन्तिम निर्णय देने की स्थिति में नहीं पहुँच सके हैं। यह सोचने वाली बात है कि पंजाब और हिमाचल के लायंस सफारी 'छतबीड़ जू' तथा 'रेणुका' में कुछ रोगों के कारण नस्ल ख़त्म करने के उद्देश्य से जब नर और मादा शेरों को अलग-अलग रखा गया तो देखने में यही आया कि ज्यादा समय तक मादा से दूर रहने पर नर शेर ग़ुस्से में ख़ुद को ज़ख्मी करने लगे, पर कामावेग की शान्ति के लिए उन्होंने आपस में किसी तरह का समलैंगिक व्यवहार नहीं किया। पशु-पक्षियों का कोई व्यवहार ऊपरी तौर पर आदमी जैसा दिखने भर से उसे आदमी के समकक्ष घोषित कर देना अज्ञान का परिचायक हो सकता है किसी वैज्ञानिक दृष्टि का नहीं।

 

वास्तव में यह सब विकृत शरीर सुख की आज़ादी को जायज़ ठहराने के तर्कजाल से ज्यादा और कुछ नहीं है। किसी क्रिया के प्रकृति के अनुकूल या प्रतिकूल होने का सबसे बड़ा पैमाना तो यह है कि यदि कोई क्रिया प्रकृति के अनुकूल है तो उससे प्रकृति की गति में कोई विक्षोभ नहीं पैदा होता, उसकी सुचारू गति बनी रहती है। इस अर्थ में दुनिया के सारे लोग दयावान, करुणावान, ईमानदार और एक-दूसरे के सहयोगी भाव वाले हो जाएँ तो संसार की गति में बाधा नहीं पड़ेगी, बल्कि दुनिया और भी रहने के क़ाबिल बन जाएगी। अब यदि सारे लोग बेईमान, भ्रष्ट, एक-दूसरे को बात-बात में धोखा देने वाले हो जाएँ, तो कल्पना करिए कि कितने क्षण जीवन-व्यवहार चल सकेगा? कुछ ऐसे ही, यदि सारे लोग समलैंगिकता को सहज व्यवहार मानकर अपना लें, तो हम समझ सकते हैं कि मनुष्य जाति के नष्ट होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।

 

सच तो यह है कि इस सहज सिध्द अप्राकृतिक प्रवृत्ति पर यदि बहस-मुबाहिसे की ज़रूरत पड़े तो समझ लेना चाहिए कि यह बीमार समाज की निशानी है। मानवेतर जीवन से लेकर किसी भी स्तर पर इसे अप्राकृतिक और अनुचित सिध्द किया जा सकता है। पशु-पक्षियों से लेकर मनुष्य तक में नर-मादा की एक-दूसरे के लिए पूरक होने की अनिवार्यता से ही यह सहज समझ आ जानी चाहिए कि समलैंगिकता नितान्त अप्राकृतिक है और अनुचित है। पशु-पक्षियों में विवेक न होने के बावजूद यह सहज समझ है। यदि आदमी में यह समझ गड़बड़ाने लगी है तो निश्चित रूप से उसका मानस बीमार हो रहा है। इस मायने में पश्चिम का समाज ज्यादा बीमार है। समलैंगिकता स्वस्थ और जीवन्त समाज की निशानी नहीं हो सकती। यह तो उद्देश्यहीन, भटके हुए और मुर्दा हो रहे समाज की ही पहचान है। पश्चिम की दशा यही है। उस समाज में जो जुम्बिश दिखाई दे रही है, वह जीवन्तता की कम, मौत के पहले की फड़कन ज्यादा हैं। दरअसल विज्ञान की कोख से जन्मी टेक्नॉलोजी उनके हाथ लग गई है। इसके सहारे नित नई उपभोग की विधियाँ तलाशने को ही वे अपना साध्य मान बैठे हैं। संयम का अर्थ और उसकी उपादेयता उन्हें नहीं मालूम। आदमी के होने का अर्थ भी उन्हें नहीं मालूम। जिस समाज के लोगों के लिए अपने होने का अर्थबोध सिर्फ़ इतने तक सिमट गया हो कि वे सिर्फ़ इसलिए पैदा हुए हैं कि नित नई चीज़ों का ज्यादा से ज्यादा उपभोग कर सकें तो उस समाज की निरन्तर छीजती जीवन्तता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है! वास्तव में कामुकता भोगवाद की सबसे प्रबल दैहिक अभिव्यक्ति है। और इसी नाते, समलैंगिकता जैसी काम-विकृतियाँ उन्हीं भोगवादी समाजों की ईजाद हैं। टेक्नॉलोजी की महारत ने, यह ज़रूर है कि उनमें उनके जीवन्त होने का भ्रम पैदा कर रखा है। लेकिन किसी भी विलासी समाज का इस तरह का भ्रम ज्यादा दिनों तक क़ायम नहीं रह सकता। इतिहास में तमाम पन्ने ऐसे मिलेंगे, जिनमें विलासी समाजों के पतन की महागाथाएँ मिल जाएँगी।

 

      समझदार क़िस्म के लोग अगर यह तर्क दे रहे हैं कि समलैंगिकता तो भारतीय संस्कृति में बहुत पहले से ही रही है, तो उनकी इतिहास और संस्कृति की समझ पर तरस ही खाया जा सकता है। दुनिया के भोगवादी समाजों की देन समलैंगिकता की समस्या को उन्हीं के नज़रिए से देखने पर इस तरह का दृष्टिदोष तो होगा ही। समाजकर्म का आधुनिक संस्करण दरअसल पश्चिम के ही चित्ता-मानस से गहरे तक प्रभावित हो चुका है-  सम्भवत: इसलिए भी कि एनजीओ संस्कृति में धन का प्रवाह वहीं से ज्यादा हो रहा है-  अन्यथा, समझदारों के लिए यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि समलैंगिकता का मतलब सिर्फ़ एक विकृत शरीर सुख की माँग है और भारतीयता सिर्फ़ शरीर सुख नहीं है। भारतीयता की विशेषता अपने मूल रूप में मौजूद हो तो इससे शून्य जैसे आविष्कार निकलते हैं जिससे दुनिया में विज्ञान का सफ़र आसान हो जाता है; जबकि, पश्चिम का शरीर-सुख सिफलिस और एड्स जैसे रोग देता है जो तमाम उपलब्धियों पर भी ग्रहण लगाने का काम करते हैं। ऐसे में, यह सोचना पड़ेगा कि क्या भारतीय संस्कृति-सभ्यता को हम अप्रासंगिक मान चुके है और शरीर-सुख को ही केन्द्रीय तत्तव मानकर चलने वाला पश्चिमी समाज हमारा आदर्श और लक्ष्य बन गया है? और क्या सामाजिक संगठनों को अब बेहतर दुनिया का रास्ता कुछ इसी तरफ़ से खुलता दिखाई दे रहा है?

 

      हालाँकि यह सब कहते-समझते हुए भी यह तो माना ही जा सकता है कि समलैंगिकता एक स्थिति है और समाज के किसी हिस्से का यथार्थ भी है। समलैंगिक अगर किसी को नुक़सान नहीं पहुँचाते तो सिर्फ़ इस व्यवहार की वजह से वे नफ़रत के पात्र भी नहीं बन जाते। समलैंगिकता अतृप्तता की स्थितियों में तनावों से जन्मी एक बीमार मानसिकता हो सकती है और इसके लिए प्रताड़ना और नफ़रत के बजाय सहानुभूति और इलाज की व्यवस्था की ज़रूरत है।