शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

इस प्यार को विस्तार दो (1)

प्रेम क्या है - एक विशिष्ट आकर्षण। यह उथला भी हो सकता है और गहरा भी। इस आकर्षण की अदृश्य डोर में ही सारी सृष्टि बंधी है। ब्रह्मांड का एक भी अणु-परमाणु इसकी परिधि से बाहर नहीं है। जीव जगत् में प्रवेश करें तो इस आकर्षण का जीवंत रूप दिखने लगता है, इसमें चेतना प्रवहमान होने लगती है; और, मानवी संदर्भ लें तो इसमें भाव जुड़ जाते हैं, यह सही अर्थों में प्रेम बन जाता है। पर, प्रेम को परिभाषित कर पाना क्या इतना आसान है? इतने चेहरे हैं इस ढाई आखर के कि यह हर व्याख्या हर परिभाषा की बाड़ तोड़ स्वच्छंद विचरता ही दिखाई देता है। उफनती नदी, हहराते समंदर को सीमाओं की फिक्र भला कहां हो सकती है। प्रेम भी कुछ-कुछ ऐसा ही है। एक तरफ यह है, 'प्रेम कौ पंथ कराल महा तलवार के धार पर ध्याइबो है' - तो दूसरी तरफ, 'अति सूधो प्रेम को मारग है, जहां नैकु सयानप बांक नहीं'। इस देश में सूर, कबीर, मीरा, रसखान, जायसी, बोधा, घनानंद, मतिराम, तुलसी, देव, बिहारी; और परदेश में शेक्सपीयर के नाटकों से लेकर चीन के फु सुंग लिंग की कथाओं और 'काली बतख गायन दल' के लाल बेरी के फूल खिलाने तक में प्रेम के ही नाना रूप दिखाई देते हैं।

जैसा देश, प्रेम का वैसा वेश। इतना अथाह इतने रंग कि कोई जितना चाहे जिस रूप में चाहे, भर ले अपनी हृदयस्थली में। माता-पिता, गुरु-शिष्य, भाई-बहन, पति-पत्नी से लेकर प्रेमी-प्रेमिका तक के अन्यान्य रिश्तों में यह प्रेम-प्यार ही नाना रूपों में अभिव्यक्त होता है। श्रध्दा, भक्ति, अनुराग, विराग, वात्सल्य, स्नेह, रति, करुणा, दया, उदारता सबकी डोर का मूल तंतु यही है। प्रिय का भाव जहां है, प्रेम-प्यार वहीं है। यह बात अलग है कि यौवन के द्वार पर जिस प्यार की मनुहार इस संसार में हम देखते हैं, चहुंओर प्रसिध्दि ज्यादा उसी की है। हो भी क्यों न, आखिर नायक-नायिका के मिलन में जिस प्रेम का प्रस्फुटन होता है, वही तो इस सृष्टि का असली संचालक तत्तव है। बसंत के फूलों की खिलखिलाहट में प्रकृति भी कुछ ऐसा ही संदेश देती है। इतना मादक है यह प्रेम कि इसके मदहोशों की कथाओं से इतिहास के जाने कितने पन्ने भर गए हैं। लैला-मजनूं, सलीम-अनारकली, हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल, रूपमती-बाज बहादुर, ढोला-मारू, शीरीं-फरहाद की ऐसी ही प्रेम-कहानियां हैं, जो देह और आत्मा का तल बराबर कर देती हैं। भारतीय पुराणों की तरफ निगाह दौड़ाएं तो राधा-कृष्ण का उदात्ता प्रेम कौन नहीं जानता। शकुंतला-दुष्यंत की कहानी भी इसी प्रेम से पगी है। सावित्री-सत्यवान भी प्रेम और समर्पण की जीत की एक दास्तान ही हैं।

अलबत्ता, प्रेम हमेशा मर्यादित ही रहा हो, ऐसा भी नहीं है। यह उच्छृंखल भी हुआ है। और, इस उच्छृंखलता के ही भय से बार-बार इसे जंजीरों में बांधने की कोशिश भी हुई है, इस पर पहरे बैठाए गए हैं; पर बरसने की बेला हो तो पानी से भरे बादल को कौन थाम सका है। विद्रोही प्रेम ने प्राण की भी परवाह नहीं की कभी। लैला-मजनूं जैसी कथाएं इसी राह पर चल कालजयी बनी हैं। रोम के राजा क्लोडियस द्वितीय ने शादी और प्रेमियों के मिलन पर पाबंदी लगाई तो प्रेम पुजारी संत वैलेंटाइन ने छुप-छुपकर शादियां कराईं और प्रेमी-मिलन का जैसे अभियान ही चला दिया। वैलेंटाइन को इस गुस्ताखी के लिए 14 फरवरी 269 ईस्वी को सजाए मौत दी गई, पर इस संत का संदेश ऐसा फैला कि यह दिन 'वैलेंटाइन डे' के रूप में पश्चिम के लिए हर साल का 'प्रेम दिवस' ही बन गया। अब तो यह भौगोलिक सीमाएं लांघ सार्वदेशिक-सा ही हो चला है। यह जरूर है कि प्रेम के इस तरल प्रवाह में बहुत कुछ व्यापार का स्वार्थ भी शामिल हो गया है। बल्कि, भारत में तो इसका प्रचार बजरिए बाजार ही हुआ है। वैसे भी बाजार हर मौके का फायदा उठाने की फिराक में रहता ही है, सो युवा पीढ़ी की नब्ज पर हाथ धरने का इस प्रेम पर्व से अच्छा मौका और क्या हो सकता है?

बहरहाल, व्यापार-बाजार, स्वार्थ-परार्थ, दैहिक-आत्मिक जिस भी रूप में देखना चाहें, प्रेम पर्व की मौजूदगी तमाम देशों में दिख जाएगी। यूरोप से लेकर दक्षिण-मध्य अमेरिका, एशिया और मध्य-पूर्व तक किसी न किसी रूप में प्रेम पर्व मनाया ही जाता है। फ्रांस में 'सेंट वैलेंटाइन', डेनमार्क और नार्वे में 'वैलेंटाइन्स डैग', स्वीडन में 'अला झारटैंस डैग' यानी 'आल हर्ट्स डे', फिनलैंड में 'वाइस्तावैन प्कूवा' यानी 'फ्रेंड्स डे', इस्टोनिया में 'सोब्रा पावा', स्लोवेनिया में 'सेंट ग्रेगोरी डे', रोमानिया में 'ड्रैगोबेट', टर्की में 'सेवजिलिलर गुनु' यानी 'स्वीट हर्ट', ग्वाटेमाला में 'दिया देल एमोर वाई ला एमिस्टेड' यानी 'डे आफ लव एंड फ्रेंडशिप', ब्राजील में 'डियाडास नामो रोडेस', दक्षिणी अमेरिका के ज्यादातर हिस्सों में 'लव एंड फ्रेंडशिप डे', जापान में वैलेंटाइन के साथ 'व्हाइट डे', कोरिया में जनवरी से दिसंबर तक हर 14 तारीख को 'ब्लैक डे', 'पेपिरो डे', 'कैंडिल डे', 'वैलेंटाइन डे', 'रोज डे', 'सिल्वर डे', 'ग्रीन डे', 'म्यूजिक डे', 'वाइन डे', 'मूवी डे' और 'हग डे', चीन में 'किंग रेन झी', ईरान में 'सेपानडार मेज्गान' जैसे पर्व वैलेंटाइन डे के ही अलग-अलग रूप दिखते हैं। सऊदी अरब तक में तमाम पाबंदियों के बावजूद प्रेमी जोड़े वैलेंटाइन मनाने से अब कहां मानते हैं! हिंदुस्तान में भी वैलेंटाइन डे के खिलाफ धार्मिक-सामाजिक संगठनों की तरफ से अक्सर फतवे जारी किए जाते हैं, पर युवाओं पर असर कुछ भी नहीं होता। उल्टे, प्रतिक्रिया में यह और प्रचारित ही होता है।

उच्छृंखलता बढ़ने के जिस तर्क पर 'वैलेंटाइन डे' का विरोध होता है, सही कहें तो वह तर्क एकदम से बेदम भी नहीं है; पर दुर्भाग्य कि ये फतवे भी कोई कम उच्छृंखल नहीं होते। प्रेमी जोड़ों पर डंडे बरसाने की कोशिश होती है, जबरदस्ती उन्हें रोका जाता है। ऐसे में भला क्योंकर वे रुकेंगे! युवाओं की राह कुछ गलत भी हो, तो सवाल है कि वे अपने संस्कार कोई आसमान से तो नहीं लेकर आए। जो लोग युवा पीढ़ी में बढ़ती उच्छृंखलता से दुखी हैं, उन्हें पहले अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। नई पीढ़ी को सकारात्मक संस्कार देने की सोचनी चाहिए। संस्कार सही होंगे तो 'वैलेंटाइन डे' की उच्छृंखलता अपने आप निकल भागेगी और यह पवित्र प्रेम का महापर्व हो जाएगा, भले ही इसकी प्रकृति विदेशी हो; या, यह हमारे सांस्कृतिक परिवेश के लिए अनुपयोगी हुआ तो कुछ दिनों में अपने आप अप्रासंगिक होकर खत्म हो जाएगा। ध्यान दें तो हिंदुस्तान की होली भी प्रेम पर्व ही है। होलिका दहन से एक महीने पहले से ढोलक की थाप पर फागुन गीतों के शब्द-शब्द में प्रेम का संदेश ही सुनाई पड़ता है। यहां तो 'फागुन में बुढ़वा देवर लागे' वाला आलम है, पर इस रंगोत्सव का प्रेम नख से शिख तक निर्मल-निश्छल-सहज है। असल में वैलेंटाइन डे के प्रेम का विरोध करने के बजाय उसका कुछ ऐसा ही भारतीयकरण करने की जरूरत है। इस 'प्रेम दिवस' की भावभूमि को ऐसा विस्तार मिले, तो शायद इस दिन पनपने वाला प्रेम भी क्षणिक न रह जाए और अपनी सार्थक परिणति को प्राप्त हो।

(2)
आदिवासियों से सुनिए वैलेंटाइन का संदेश
मौसम की मादकता वही, बस तारीखें जुदा-जुदा। यह एक दिन, तो वह पूरे सात दिन। इसमें गुलाब का फूल, तो उसमें गुलाबी रंग; बल्कि, यूं कहें कि इसका फूल उसमें फलित हो जाता है। जी हां! देखने की कोशिश करें तो इस 'वैलेंटाइन डे' और उस 'भगोरिया' की अंतर्धाराएं कुछ ऐसी ही एक-सी दिखाई देंगी।

भगोरिया, यानी पश्चिमी मध्यप्रदेश के आदिवासियों का प्रणय पर्व। होलिका दहन के ठीक हफ्ते भर पहले शुरू होने वाले इस त्यौहार का मर्म धार, झाबुआ, खरगौन आदि इलाकों के हाट-बाजार से गुजरते हुए जानने की कोशिश करें, तो हो सकता है आप की जुबान से बेसाख्ता यह भी निकल ही पड़े कि संत वैलेंटाइन भले ही पैदा पश्चिम में हुए, पर उनकी आत्मा तो भगोरिया मेले में ही व्यापती है। देह और देही, दोनों को साधने का यह पर्व है ही ऐसा। युवाओं के लिए इहलोक का आनंद-रस और बड़े-बुजुर्गों के लिए परलोक का ब्रह्म-रस, यही भागोरिया का मूल संदेश है।

कहते हैं कि राजा भोज के समय कासूमार और बालून नाम के दो भील राजाओं ने अपनी राजधानी भागोर में बड़े-बड़े मेले और हाट लगवाने शुरू किए तो उन्हें भगोरिया कहा जाने लगा। इससे अलग मान्यता यह है कि इस मेले में युवक-युवतियां एक-दूसरे को पसंद करने के बाद भागकर ब्याह रचाते हैं, इसलिए इसकी प्रसिध्दि भगोरिया नाम से हुई। बात ज्यादा दुरुस्त यही लगती है, क्योंकि भागकर ब्याह रचाने की यह परंपरा अभी भी बनी ही हुई है। वर्तमान का सच यही है कि मधुमास के फूलों से सजी-संवरी प्रकृति का संदेश सुन आदिवासी युवक-युवतियां भी जितना हो सकता है सजते-संवरते हैं; और, जो जीवन भर साथ निभा सके, उस संगी की तलाश में भगोरिया मेले में पहुंचते हैं। ढोल-मृदंग की थाप की अनुगूंज और बांसुरी के मीठे स्वर घुले माहौल में लड़का जिस लड़की को पसंद करता है, उसके गालों पर गुलाबी रंग लगा देता है; यदि लड़की भी कुछ इसी अंदाज में जवाब दे दे, तो समझिए कि बात पक्की। और, फिर तो दोनों भगोरिया मेले से भागकर विवाह के बंधन में बंधने की तैयारी शुरू कर देते हैं। कुछ इसी तरह से लड़का यदि लड़की को पान का बीड़ा पकड़ाए और लड़की खुशी-खुशी उसे लेकर खा ले, तो समझिए कि भगोरिया से भागने का सबब मिल गया। प्रेमी जोड़ों के इस मिलन में धन-संपत्तिा के कोई मायने नहीं हैं। लुका-छिपी का भी कोई खेल नहीं है यह, न वादे निभाने-तोड़ने की जद्दोजहद। सब कुछ इतना सहज, पारदर्शी कि प्रेम की आधुनिक परिभाषा पानी भरे इस भगोरिया-प्यार के आगे।

प्रेम के इजहार का ऐसा बिंदास त्यौहार पूरे संसार में कहीं और न मिलेगा। रंगों के त्यौहार (होली) की अगवानी पूरी रंगीन मिजाजी के साथ। प्रेम-प्रदर्शन का ऐसा खुलापन, पर शर्मो-हया के खयाल के साथ, कहीं और दुर्लभ है। प्रकृति के बासंती संदेश को प्रकृति के साथ समरस होकर जीवन जी रहा आदिवासी समाज शायद ज्यादा बेहतर समझता है। सभ्य समाज को वर्जनाओं से मुक्ति की राह यही समाज दिखा सकता है। वर्जनाओं से मुक्ति का मतलब उच्छृंखलता की राह पर कदम बढ़ाना भी कतई नहीं है, या कि भगोरिया जीवन को सिर्फ भोग-भाव से ही नहीं जोड़ता, बल्कि रंगीन मिजाजी का यह त्यौहार रंगों के पार किसी और संसार में भोग-भाव से दूर योग-भाव का भी संदेश देता है। आदिवासी समाज के बड़े-बुजुर्ग पूरे भगोरिया त्यौहार के दौरान भोग-विलास का भाव मन से निकाल एक खास तरह की आध्यात्मिक साधना से गुजरते हैं। बल्कि, यों कहा जाए तो ज्यादा ठीक होगा कि भगोरिया के दो रूप हैं - एक मेला और दूसरा त्यौहार। मेले की परिणति नायक-नायिका के मिलन में है, जो प्रकृति की ओर से सृष्टि-विस्तार की अनिवार्य शर्त है, तो त्यौहार की परिणति जीवन-साधना में है।
संत वैलेंटाइन के संदेश की व्यापकता इससे ज्यादा भला और क्या हो सकती है!
(3)
प्यार का बाजार भाव
सच कहें तो हिंदुस्तान जैसे देशों में वैलेंटाइन डे के उमड़ते प्यार के पोर-पोर में बाजार-व्यापार-कारोबार है। इस देश में वैलेंटाइन डे का प्रवेश सहज ढंग से नहीं हुआ है। यह बाजार द्वारा प्रायोजित और मीडिया द्वारा प्रक्षेपित है। युवाओं को भरमाने का सबसे आसान तरीका दिल के खेल के अलावा और क्या हो हो सकता है। सो, मीडियाई रेसिपी के लिए यह उम्दा मसाला है, तो बाजार के लिए युवाओं की जेबें खाली कराने का सुनहरा मौका। इस दिन होटल, रेस्तरां, मॉल, नाइट क्लब, बाजार सब सज जाते हैं। पत्र-पत्रिकाओं में प्रेम संदेशों की भरमार होती है, तो खाने-पीने की चीजों से लेकर भांति-भांति के उपहार तक दिल का आकार ग्रहण कर लेते हैं।

ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में तो इस मौके पर भेजे जाने वाले प्रेम संदेशों और ग्रीटिंग कार्डों की तादाद बीस करोड़ के भी पार पहुंच जाती है। ब्रिटेन के लोग इस दिन के लिए फूलों पर साढ़े तीन करोड़ पौंड खर्च कर देते हैं। इनमें से एक करोड़ की संख्या तो सिर्फ लाल गुलाब की ही होती है। इस प्रेम पर्व के तीन दिनों के भीतर अमेरिका में ग्यारह करोड़ से अधिक फूल बिक जाते हैं, जिनमें लाल गुलाब होते हैं पांच करोड़ के आसपास। कुछ कंपनियों ने तो इस दिन के लिए दुनिया के किसी कोने में फूल और उपहार पहुंचाने का धंधा ही शुरू कर दिया है। हिंदुस्तान की आबादी का खयाल करें तो यहां भी वैलेंटाइन डे के पूरी तरह प्रचार पा जाने के बाद प्यार का बाजार कितना बड़ा बन जाएगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यही वजह है कि अभिनंदन पत्र बनाने वाली कंपनियों के लिए फरवरी का पहला पखवाड़ा अब किसी 'प्रमोटिंग' उत्सव से कम नहीं है।

हाल यह है कि होटल और रेस्तरां युवाओं को लुभाने के लिए 'कामदेव की रसोई' से 'कामोद्दीपक भोजन' कराने का आमंत्रण देने लगे हैं, संगीत कंपनियां दिल की बात सुनाने के खास आयोजन करने लगी हैं और इलेक्ट्रॉनिक सामान तक इस दिन के लिए खासतौर पर दिलनुमा बनाए जाने लगे हैं। सच कहें तो हिंदुस्तान में वैलेंटाइन डे का बाजार भाव तभी तय होने लगा था, जबकि बड़ौदा के गायकवाड़ ने इसी दिन 14 फरवरी, 1891 को अपनी प्रेमिका के नाम 47 हजार पौंड का सबसे महंगा प्रेम-उपहार भेजा।

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

झूठे विज्ञापनों का ख़तरनाक सच

उस 12-13 वर्ष के बच्चे ने दुकानदार से कहा, ''अंकल, एक पैकेट नमक दे दो।'' दुकानदार ने नमक का पैकेट बच्चे की तरफ़ बढ़ा दिया। बच्चा कुछ देर उसे उलट-पुलटता रहा, फिर कुछ सोचते हुए बोला, ''नहीं ये वाला नहीं, दूसरा दो।'' दुकानदार ने दूसरी कंपनी का पैकेट निकाला। बच्चा अब कुछ परेशान हो उठा, ''नहीं अंकल, ये भी नहीं चाहिए। ऐसा है, कल टी. वी. पर देखकर आऊँगा फिर बताऊँगा कि कौन वाला नमक चाहिए।'' यह कहते हुए वह सरपट घर की तरफ़ दौड़ पड़ा।

यह कोई काल्पनिक नहीं, एक सच्ची घटना है जो मेरी ही ऑंखों के सामने घटी। इस घटना से विज्ञापनी मायाजाल की इनसानी जेहन पर मज़बूत होती पकड़ और उसके ख़तरों के चिंताजनक संकेत मिलते हैं। इससे यह अहसास और ज्यादा तीव्र, स्पष्ट और गहरा होता है कि कैसे बाज़ारी शक्तियाँ सिर्फ़ मुनाफ़े के लिए आदमी के विराट क्षमताओं वाले दिमाग़ को विकलांग बना रही हैं। और असल में तो बचपन से ही आदमी के दिमाग़ को, जिसे कि स्वतंत्र विकास करना चाहिए, विपरीत दिशा में मोड़कर कुंद कर देना, एक राष्ट्र ही नहीं पूरी मानवीय सभ्यता के लिए कितना नुक़सानदेह हो सकता है, इसकी कल्पना तक भयावह है। कहने को विज्ञापनों का असली उद्देश्य जनसामान्य तक विभिन्न उत्पादों की जानकारी पहुँचाना है, लेकिन अब जुनून की हद तक उपभोक्तावाद की मानसिकता पैदा करना ही इनका मुख्य उद्देश्य रह गया है। विज्ञापन अब बाज़ार तैयार करने के सबसे शक्तिशाली हथियार हैं।

भारतीय संस्कृति और परम्परा में जिन चीज़ों के बारे में अपरिचय की स्थिति हो, उनके इस्तेमाल की मनाही रही है। वस्तुओं की निर्माण प्रक्रिया की पवित्रता और जीवनचर्या में उनकी ज़रूरत, ये दो उपयोग के निर्णायक बिन्दु रहे हैं। विज्ञापनी मायाजाल ने इन दोनों ही निर्णायक पहलुओं को बेमानी बना दिया है। विज्ञापन इतने आक्रामक रूप में सामने आते हैं कि किसी उत्पाद के उपादान क्या-क्या हैं, या कि उसके उत्पादन की प्रक्रिया में कितनी सफ़ाई और पवित्रता है, ये सवाल बहुत पीछे छूट गए हैं। यह विज्ञापनों का ही कमाल है कि घर में अपनी ही ऑंखों के सामने बनी चीज़ों से भी ज्यादा विश्वसनीय विज्ञापित ब्रांड की चीज़ें हो गई हैं। हालत यह है कि ऐसे तमाम लोग, जो शाकाहार के हिमायती हैं और मांस जैसी चीज़ों को देखना भी पसंद नहीं करते, वे भी बाज़ार में पहुँचकर मांस या दूसरी अभक्ष्य चीज़ें मिली हुई जाने कौन-कौन सी वस्तुएँ बड़े शौक़ से हलक़ के नीचे उतारने में लग जाते हैं।

विज्ञापनी संस्कृति ने हमारी ज़रूरतों का बिलकुल नया ही संसार रच दिया है। अब हमारी ज़रूरतें हम ख़ुद नहीं, बल्कि विज्ञापन तय करते हैं। उत्पादन ज़रूरतों के हिसाब से नहीं, बल्कि ज़रूरतें उत्पादन के हिसाब से तय होने लगी हैं। कोई नया उत्पाद आ जाता है, फिर विज्ञापन उसे अनिवार्य ज़रूरत बनाकर प्रस्तुत करते हैं। इसका उदाहरण लेना हो तो नहाने के साबुन की बात कर सकते हैं। मेरे लिए भी यह कल्पना के बाहर की बात थी कि भला साबुन के बग़ैर नहाने के बारे में कैसे सोचा जा सकता है? लेकिन अब एक लंबे अरसे से बिना साबुन के ही नहाते रहने के बाद समझ में आ रहा है कि जो लोग शरीर की सफ़ाई के लिए साबुन को अनिवार्य समझते हैं, वे दरअसल एक तरह की मानसिक गुलामी के ही शिकार हैं। नहाने के बाद सिर्फ़ रोयेंदार तौलिए से शरीर को रगड़-रगड़कर साफ़ कर लेने या बेसन, दही, मुलतानी मिट्टी वगैरह लगाकर नहाने के बाद की स्फूर्ति, ताज़गी और त्वचा की निरोगता का अहसास तो वे ही कर सकते हैं जो साबुन की गुलामी छोड़कर ये विकल्प अपना चुके होंगे। यह विज्ञापनों का ही जादू है कि साबुन जैसी और भी ढेरों एकदम से ग़ैरज़रूरी चीज़ें आधुनिक जीवनशैली में अनिवार्यता की हद तक ज़रूरी लगने लगी हैं।

विज्ञापन अधिकांशत: अतिशयोक्तिपूर्ण और झूठ के पुलिंदे होते हैं, पर प्रभाव सच का पैदा करते हैं। इस प्रभाव का ही नतीजा होता है कि वाहियात चीजें भी रोज़मर्रा की ज़रूरतें और ज़िंदगी की शान बनने लगती हैं। यह विशुध्द विज्ञापनों का प्रभाव है कि अब गाँव-देहात के लोग तक नीम, बबूल की दातून को दकियानूसी मानकर छोड़ते जा रहे हैं और भाँति-भाँति के टूथपेस्ट दाँतों पर रगड़ने लगे हैं। कितने पढ़े-लिखे जागरूक लोगों को तो मालूम भी होता है कि टूथपेस्ट दाँतों के लिए निश्चित रूप से नुक़सानदेह ही हैं, पर विज्ञापनों ने ऐसी मानसिक गुलामी पैदा कर दी है कि वे दातून या तमाम अच्छे देशी मंजनों की वकालत करते हुए भी रसायन मिले टूथपेस्ट के झाग का आकर्षण नहीं छोड़ सकते। पेप्सी-कोका कोला जैसे तमाम शून्य पोषकता के नुक़सानदेह शीतलपेयों की भी यही कहानी है।

दरअसल विज्ञापनों की चकाचौंध का सबसे काला पक्ष यह है कि वे आदमी की स्वतंत्र निर्णय की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। विज्ञापन विवेक को कुंद कर देते हैं; और इस तरह, ख़ुद को समझदार समझने वाला व्यक्ति भी अनजाने में कब उपभोक्तावाद का शिकार बन जाता है, उसे पता ही नहीं चलता। बार-बार ऑंखों के रास्ते अवचेतन तक पहुँचने वाला विज्ञापनों का झूठा संदेश जब सयाने लोगों के लिए इतनी आसानी से सच का संस्कार बन जाता है, तो फिर मासूम बच्चों पर इन प्रभावों का क्या कहा जाए

बच्चे सबसे आसानी से विज्ञापनों के प्रभाव में आते हैं। इसीलिए विज्ञापनी आक्रमण के मुख्य निशाने पर भी अब बचपन ही है। बच्चों का अबोध मन तो विज्ञापनों को एकदम सच मानकर ही ग्रहण करता है। विज्ञापन के किसी हैरतअंगेज़ कारनामे से प्रभावित होकर अगर कोई बच्चा भी वैसा ही कारनामा कर दिखाने की कोशिश में अपना नुक़सान कर लेता है तो यह इस तरह के प्रभावों का ही असर है।

जो लोग मनुष्य के विवेक पर भरोसा करते हुए विज्ञापन जैसी चीज़ों के मन पर पड़ने वाले स्थायी प्रभावों को निश्ंचित भाव से ख़ारिज़ कर देते हैं, वे लोग दरअसल यह भूल जाते हैं कि मनुष्य अंतत: एक सीखने वाला प्राणी है। बचपन से ही मन पर जैसे-जैसे संस्कार पड़ते हैं वैसी ही हमारी मानसिकता बनती जाती है। जाति, भाषा, धर्म, संस्कृति आदि की जितनी भी विविधताएँ हैं, यह सब संस्कारों का ही खेल है। मुसलमान के बच्चे को अगर हिंदू के घर में पाला जाए तो वह हिंदू प्रतीक ही ग्रहण करेगा; इसी तरह हिंदू का बच्चा यदि मुसलमान के घर में बड़ा होगा तो 'अल्लाहो अकबर' पुकारेगा ही। कहने का साफ़ अर्थ यह है कि आदमी वैसा ही बनता है जिस तरह के उसे संस्कार मिलते हैं।

पहले संस्कार देने का काम माँ, बाप, बड़े-बुज़ुर्ग, विद्यालय और समाज करते थे; पर अब नये युग की संस्कार-व्यवस्था पर विज्ञापन, सीरियल और फ़िल्में क़ाबिज़ हो गए हैं। इस नए वातावरण में नई पीढ़ी के मानसपटल पर जिस तरह के संस्कार पड़ रहे हैं वे आख़िरी नतीजे के तौर पर एक उपभोक्तावादी, गैरज़िम्मेदार, ज़िद्दी और उच्छृंखल समाज निर्माण के ही औज़ार बन रहे हैं।

आख़िर जब विज्ञापनों का झूठापन और नकारात्मक असर इतना स्पष्ट है तो सवाल यह उठता है कि हमारी राज्य और केंद्र सरकारें इनके लिए कोई प्रभावी आचार संहिता क्यों नहीं लागू करतीं ? क्यों सच की सूचना देने के लिए बने सरकारी दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे माध्यम तक इन्हीं झूठे और लोगों को मूर्ख बनाने वाले विज्ञापनों के प्रसारण में दिन-रात लगे रहते हैं? वैसे जवाब भी इसका सीधा और जगजाहिर-सा है कि विज्ञापनों से सूचना माध्यमों को बेहिसाब मुनाफ़ा होता है। इस मुनाफ़े का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट दोनों ही माध्यमों का वजूद वर्तमान में विज्ञापनों पर ही टिका हुआ है। विज्ञापनों पर इस निर्भरता को देखते हुए ही पत्रकारिता जगत में समाचार की यह मजेदार परिभाषा प्रसिध्द है कि - 'विज्ञापनों के बीच-बीच में जो कुछ छपता है उसे समाचार कहते हैं।'

असल में अब इस विज्ञापनी फ़रेब के ख़िलाफ़ जनसामान्य की ओर से आवाज़ उठनी चाहिए। सत्ताधीशों को यह चेताने की ज़रूरत है कि मुनाफ़े से ज्यादा महत्वपूर्ण एक समाज का सकारात्मक चरित्र होता है। हमारे नेताओं को यह समझना चाहिए कि व्यवस्था के हर पायदान पर अगर भ्रष्टाचार की कोई न कोई घिनौनी शक्ल मौजूद है तो यह उपभोक्तावाद के जाल में फँसते जा रहे समाज के ही कारण है। भाँति-भाँति की चीज़ों का उपभोग ही जिस समाज का मुख्य उद्देश्य बन जाएगा, वह समाज राष्ट्रनिर्माण के लिए किसी संयम का प्रदर्शन तो नहीं ही कर सकता। ज़रूरत यही है कि समय रहते विज्ञापनों, फ़िल्मों, सीरियलों आदि संस्कारों को प्रभावित करने वाले सभी रूपों के लिए ही एक प्रभावी आचार संहिता लागू हो। ऐसा हो तो नए ज़माने के बदलावों के साथ क़दमताल करते हुए भी नई पीढ़ी के दिलो-दिमाग़ को सकारात्मक दिशा में मोड़ना कोई बहुत मुश्किल नहीं है।