उस 12-13 वर्ष के बच्चे ने दुकानदार से कहा, ''अंकल, एक पैकेट नमक दे दो।'' दुकानदार ने नमक का पैकेट बच्चे की तरफ़ बढ़ा दिया। बच्चा कुछ देर उसे उलट-पुलटता रहा, फिर कुछ सोचते हुए बोला, ''नहीं ये वाला नहीं, दूसरा दो।'' दुकानदार ने दूसरी कंपनी का पैकेट निकाला। बच्चा अब कुछ परेशान हो उठा, ''नहीं अंकल, ये भी नहीं चाहिए। ऐसा है, कल टी. वी. पर देखकर आऊँगा फिर बताऊँगा कि कौन वाला नमक चाहिए।'' यह कहते हुए वह सरपट घर की तरफ़ दौड़ पड़ा।
यह कोई काल्पनिक नहीं, एक सच्ची घटना है जो मेरी ही ऑंखों के सामने घटी। इस घटना से विज्ञापनी मायाजाल की इनसानी जेहन पर मज़बूत होती पकड़ और उसके ख़तरों के चिंताजनक संकेत मिलते हैं। इससे यह अहसास और ज्यादा तीव्र, स्पष्ट और गहरा होता है कि कैसे बाज़ारी शक्तियाँ सिर्फ़ मुनाफ़े के लिए आदमी के विराट क्षमताओं वाले दिमाग़ को विकलांग बना रही हैं। और असल में तो बचपन से ही आदमी के दिमाग़ को, जिसे कि स्वतंत्र विकास करना चाहिए, विपरीत दिशा में मोड़कर कुंद कर देना, एक राष्ट्र ही नहीं पूरी मानवीय सभ्यता के लिए कितना नुक़सानदेह हो सकता है, इसकी कल्पना तक भयावह है। कहने को विज्ञापनों का असली उद्देश्य जनसामान्य तक विभिन्न उत्पादों की जानकारी पहुँचाना है, लेकिन अब जुनून की हद तक उपभोक्तावाद की मानसिकता पैदा करना ही इनका मुख्य उद्देश्य रह गया है। विज्ञापन अब बाज़ार तैयार करने के सबसे शक्तिशाली हथियार हैं।
भारतीय संस्कृति और परम्परा में जिन चीज़ों के बारे में अपरिचय की स्थिति हो, उनके इस्तेमाल की मनाही रही है। वस्तुओं की निर्माण प्रक्रिया की पवित्रता और जीवनचर्या में उनकी ज़रूरत, ये दो उपयोग के निर्णायक बिन्दु रहे हैं। विज्ञापनी मायाजाल ने इन दोनों ही निर्णायक पहलुओं को बेमानी बना दिया है। विज्ञापन इतने आक्रामक रूप में सामने आते हैं कि किसी उत्पाद के उपादान क्या-क्या हैं, या कि उसके उत्पादन की प्रक्रिया में कितनी सफ़ाई और पवित्रता है, ये सवाल बहुत पीछे छूट गए हैं। यह विज्ञापनों का ही कमाल है कि घर में अपनी ही ऑंखों के सामने बनी चीज़ों से भी ज्यादा विश्वसनीय विज्ञापित ब्रांड की चीज़ें हो गई हैं। हालत यह है कि ऐसे तमाम लोग, जो शाकाहार के हिमायती हैं और मांस जैसी चीज़ों को देखना भी पसंद नहीं करते, वे भी बाज़ार में पहुँचकर मांस या दूसरी अभक्ष्य चीज़ें मिली हुई जाने कौन-कौन सी वस्तुएँ बड़े शौक़ से हलक़ के नीचे उतारने में लग जाते हैं।
विज्ञापनी संस्कृति ने हमारी ज़रूरतों का बिलकुल नया ही संसार रच दिया है। अब हमारी ज़रूरतें हम ख़ुद नहीं, बल्कि विज्ञापन तय करते हैं। उत्पादन ज़रूरतों के हिसाब से नहीं, बल्कि ज़रूरतें उत्पादन के हिसाब से तय होने लगी हैं। कोई नया उत्पाद आ जाता है, फिर विज्ञापन उसे अनिवार्य ज़रूरत बनाकर प्रस्तुत करते हैं। इसका उदाहरण लेना हो तो नहाने के साबुन की बात कर सकते हैं। मेरे लिए भी यह कल्पना के बाहर की बात थी कि भला साबुन के बग़ैर नहाने के बारे में कैसे सोचा जा सकता है? लेकिन अब एक लंबे अरसे से बिना साबुन के ही नहाते रहने के बाद समझ में आ रहा है कि जो लोग शरीर की सफ़ाई के लिए साबुन को अनिवार्य समझते हैं, वे दरअसल एक तरह की मानसिक गुलामी के ही शिकार हैं। नहाने के बाद सिर्फ़ रोयेंदार तौलिए से शरीर को रगड़-रगड़कर साफ़ कर लेने या बेसन, दही, मुलतानी मिट्टी वगैरह लगाकर नहाने के बाद की स्फूर्ति, ताज़गी और त्वचा की निरोगता का अहसास तो वे ही कर सकते हैं जो साबुन की गुलामी छोड़कर ये विकल्प अपना चुके होंगे। यह विज्ञापनों का ही जादू है कि साबुन जैसी और भी ढेरों एकदम से ग़ैरज़रूरी चीज़ें आधुनिक जीवनशैली में अनिवार्यता की हद तक ज़रूरी लगने लगी हैं।
विज्ञापन अधिकांशत: अतिशयोक्तिपूर्ण और झूठ के पुलिंदे होते हैं, पर प्रभाव सच का पैदा करते हैं। इस प्रभाव का ही नतीजा होता है कि वाहियात चीजें भी रोज़मर्रा की ज़रूरतें और ज़िंदगी की शान बनने लगती हैं। यह विशुध्द विज्ञापनों का प्रभाव है कि अब गाँव-देहात के लोग तक नीम, बबूल की दातून को दकियानूसी मानकर छोड़ते जा रहे हैं और भाँति-भाँति के टूथपेस्ट दाँतों पर रगड़ने लगे हैं। कितने पढ़े-लिखे जागरूक लोगों को तो मालूम भी होता है कि टूथपेस्ट दाँतों के लिए निश्चित रूप से नुक़सानदेह ही हैं, पर विज्ञापनों ने ऐसी मानसिक गुलामी पैदा कर दी है कि वे दातून या तमाम अच्छे देशी मंजनों की वकालत करते हुए भी रसायन मिले टूथपेस्ट के झाग का आकर्षण नहीं छोड़ सकते। पेप्सी-कोका कोला जैसे तमाम शून्य पोषकता के नुक़सानदेह शीतलपेयों की भी यही कहानी है।
दरअसल विज्ञापनों की चकाचौंध का सबसे काला पक्ष यह है कि वे आदमी की स्वतंत्र निर्णय की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। विज्ञापन विवेक को कुंद कर देते हैं; और इस तरह, ख़ुद को समझदार समझने वाला व्यक्ति भी अनजाने में कब उपभोक्तावाद का शिकार बन जाता है, उसे पता ही नहीं चलता। बार-बार ऑंखों के रास्ते अवचेतन तक पहुँचने वाला विज्ञापनों का झूठा संदेश जब सयाने लोगों के लिए इतनी आसानी से सच का संस्कार बन जाता है, तो फिर मासूम बच्चों पर इन प्रभावों का क्या कहा जाए
बच्चे सबसे आसानी से विज्ञापनों के प्रभाव में आते हैं। इसीलिए विज्ञापनी आक्रमण के मुख्य निशाने पर भी अब बचपन ही है। बच्चों का अबोध मन तो विज्ञापनों को एकदम सच मानकर ही ग्रहण करता है। विज्ञापन के किसी हैरतअंगेज़ कारनामे से प्रभावित होकर अगर कोई बच्चा भी वैसा ही कारनामा कर दिखाने की कोशिश में अपना नुक़सान कर लेता है तो यह इस तरह के प्रभावों का ही असर है।
जो लोग मनुष्य के विवेक पर भरोसा करते हुए विज्ञापन जैसी चीज़ों के मन पर पड़ने वाले स्थायी प्रभावों को निश्ंचित भाव से ख़ारिज़ कर देते हैं, वे लोग दरअसल यह भूल जाते हैं कि मनुष्य अंतत: एक सीखने वाला प्राणी है। बचपन से ही मन पर जैसे-जैसे संस्कार पड़ते हैं वैसी ही हमारी मानसिकता बनती जाती है। जाति, भाषा, धर्म, संस्कृति आदि की जितनी भी विविधताएँ हैं, यह सब संस्कारों का ही खेल है। मुसलमान के बच्चे को अगर हिंदू के घर में पाला जाए तो वह हिंदू प्रतीक ही ग्रहण करेगा; इसी तरह हिंदू का बच्चा यदि मुसलमान के घर में बड़ा होगा तो 'अल्लाहो अकबर' पुकारेगा ही। कहने का साफ़ अर्थ यह है कि आदमी वैसा ही बनता है जिस तरह के उसे संस्कार मिलते हैं।
पहले संस्कार देने का काम माँ, बाप, बड़े-बुज़ुर्ग, विद्यालय और समाज करते थे; पर अब नये युग की संस्कार-व्यवस्था पर विज्ञापन, सीरियल और फ़िल्में क़ाबिज़ हो गए हैं। इस नए वातावरण में नई पीढ़ी के मानसपटल पर जिस तरह के संस्कार पड़ रहे हैं वे आख़िरी नतीजे के तौर पर एक उपभोक्तावादी, गैरज़िम्मेदार, ज़िद्दी और उच्छृंखल समाज निर्माण के ही औज़ार बन रहे हैं।
आख़िर जब विज्ञापनों का झूठापन और नकारात्मक असर इतना स्पष्ट है तो सवाल यह उठता है कि हमारी राज्य और केंद्र सरकारें इनके लिए कोई प्रभावी आचार संहिता क्यों नहीं लागू करतीं ? क्यों सच की सूचना देने के लिए बने सरकारी दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे माध्यम तक इन्हीं झूठे और लोगों को मूर्ख बनाने वाले विज्ञापनों के प्रसारण में दिन-रात लगे रहते हैं? वैसे जवाब भी इसका सीधा और जगजाहिर-सा है कि विज्ञापनों से सूचना माध्यमों को बेहिसाब मुनाफ़ा होता है। इस मुनाफ़े का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट दोनों ही माध्यमों का वजूद वर्तमान में विज्ञापनों पर ही टिका हुआ है। विज्ञापनों पर इस निर्भरता को देखते हुए ही पत्रकारिता जगत में समाचार की यह मजेदार परिभाषा प्रसिध्द है कि - 'विज्ञापनों के बीच-बीच में जो कुछ छपता है उसे समाचार कहते हैं।'
असल में अब इस विज्ञापनी फ़रेब के ख़िलाफ़ जनसामान्य की ओर से आवाज़ उठनी चाहिए। सत्ताधीशों को यह चेताने की ज़रूरत है कि मुनाफ़े से ज्यादा महत्वपूर्ण एक समाज का सकारात्मक चरित्र होता है। हमारे नेताओं को यह समझना चाहिए कि व्यवस्था के हर पायदान पर अगर भ्रष्टाचार की कोई न कोई घिनौनी शक्ल मौजूद है तो यह उपभोक्तावाद के जाल में फँसते जा रहे समाज के ही कारण है। भाँति-भाँति की चीज़ों का उपभोग ही जिस समाज का मुख्य उद्देश्य बन जाएगा, वह समाज राष्ट्रनिर्माण के लिए किसी संयम का प्रदर्शन तो नहीं ही कर सकता। ज़रूरत यही है कि समय रहते विज्ञापनों, फ़िल्मों, सीरियलों आदि संस्कारों को प्रभावित करने वाले सभी रूपों के लिए ही एक प्रभावी आचार संहिता लागू हो। ऐसा हो तो नए ज़माने के बदलावों के साथ क़दमताल करते हुए भी नई पीढ़ी के दिलो-दिमाग़ को सकारात्मक दिशा में मोड़ना कोई बहुत मुश्किल नहीं है।
शुक्रवार, 16 जनवरी 2009
झूठे विज्ञापनों का ख़तरनाक सच
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1 Comment:
बहुत सामयिक एवं विचारणीय विषय है...इसपर सरकार को ध्यान देना चाहिए।
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