सोमवार, 5 जनवरी 2009

भगवान के घर

ईश्वर की प्रार्थना के लिए भक्तों को क्या चाहिए? मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च या और कुछ? राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का कहना था - 'देश के करोड़ों ग़रीबों और भूखों मरते लोगों की सेवा करनी है तो प्रार्थना मंदिर ईंट-चूने का मकान नहीं हो सकता, इसके लिए तो आकाश का छप्पर और दिशाओं रूपी खंभे ही काफ़ी होने चाहिए।' गाँधीजी अपनी इस मान्यता के साथ ही जिए और मरे, और बीती सदी के सबसे बड़े जनसेवक साबित हुए। बापू के इस वक्तव्य को अहसास में उतारना हो तो एक बार उनकी आख़िरी साधना-स्थली सेवाग्राम आश्रम (वर्धा) देखना चाहिए। वहाँ 'बापू कुटी' और 'आदि निवास' के बीच वह स्थान है जहाँ गाँधीजी आश्रम के रहवासियों, सहयोगियों के साथ सर्वधर्म प्रार्थना किया करते थे। बिल्कुल सीमाहीन प्रार्थना मंदिर। ईंट-पत्थरों की कोई चहारदीवारी नहीं। एक अदना-सा चबूतरा भी नहीं। खुली धरती, खुला आसमान और चहुँ ओर की खुली-खुली प्रकृति। ऐसा था गाँधीजी का सीमाहीन, बंधनविहीन प्रार्थना मंदिर कि आसपास का वातावरण भी प्रार्थनारत दिखाई दे।

     आज गली-गली, चौराहे-चौराहे पर दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बन रहे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च वग़ैरह आदमी के गिरते चरित्र को नहीं बचा पा रहे हैं तो ऐसे में गाँधीजी की मान्यता ही ज्यादा प्रासंगिक लगती है। शायद हम ईंट-पत्थरों को जोड़-जोड़कर अपने-अपने भगवानों के भाँति-भाँति के भव्य घर बनाने में उलझ गए हैं। इस उलझाव में प्रभु का असली काम कहीं पीछे छूट गया है। ऐसा न होता तो भगवान के जिन घरों में प्रेम, सेवा, सहिष्णुता के सुवास की अनुभूति होनी चाहिए, वहाँ सांप्रदायिक तनावों की सड़ांध न महसूस होती।

     भगवान के ये घर कभी मानवीय बुराइयों पर विजय पाने की साधना-स्थली भले ही रहे हों, पर अब तो बनवाने वालों के आत्म-प्रदर्शन से बहुत आगे की बात नहीं लगते। जितने भव्य मंदिर, उतना ही ऊँचा निर्माताओं का अभिमान। मंदिर विशालकाय हो, भव्य हो तो भक्तों का हुजूम उमड़ पड़ता है। जीर्ण-शीर्ण छोटे मंदिर के पुजारी को तो रोटी के भी लाले पड़ जाएँ। दक्षिण भारत की यात्रा करें तो मंगलौर से कोई तीस किलोमीटर की दूरी पर मिलेगा हीरे-पन्ने के व्यापार का गढ़ - मूड़बिदरी। यहाँ जिधर भी निगाह दौड़ाएँगे मंदिर ही मंदिर नज़र आएँगे। एक से एक भव्य मंदिर। कहते हैं मूड़बिदरी में पहला व्यापारी आया तो उसने अपने लिए एक विशेष मंदिर बनवाया। जब दूसरे व्यापारी आए तो वे भी पीछे क्यों रहते? सबने एक से बढ़कर एक भव्य मंदिर बनवाने की जैसे होड़ लगा दी। नतीजन, यहाँ चप्पे-चप्पे पर ऐसे भव्य मंदिर देखने को मिल जाएँगे कि राजाओं के महलों की चमक फीकी पड़ जाए। लेकिन ये मंदिर किसी संवेदनशील दर्शक के मन पर कोई सौम्य प्रभाव नहीं छोड़ते; बल्कि, आतंक बनकर छा जाते हैं और वितृष्णा पैदा करते हैं। जिस देश में लाखों-करोड़ों लोग अभी भी दो जून की रोटी का ठीक से इंतज़ाम न कर पाते हों, वहाँ भव्यता की यह कैसी ईश्वर भक्ति? भक्त तो कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, नानक, रैदास भी थे जिन्होंने अपने भगवान अपने मन-मंदिर में ही पा लिए थे। महापुरुषों का संदेश यही है कि दीन-दुखियों की सेवा, देश-समाज की सेवा ही सबसे बड़ी प्रभु-भक्ति है। महर्षि दयानंद सरस्वती ने तो आर्यसमाज के छठे नियम के रूप में प्रभु-भक्ति का पैमाना ही बना दिया कि- 'संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है।' वास्तव में यदि हम महापुरुषों की वाणी और उनके जीवन-व्यवहार से प्रेरणा लें तो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे सबके ही रूप बदल जाएँगे। भगवान के ये घर सही मायने में सेवा-स्थली और दीन-दुखियों के लिए आश्रय-प्रदाता बन जाएँगे और जीवन दया, करुणा, सेवा के भाव-संगीत से झंकृत हो उठेगा।

2 Comments:

Unknown said...

संत जी को प्रणाम, संत वाणी को प्रणाम.

makrand said...

aapka lekh samj ko nai disha de