गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

जेहाद से न खुलेंगे जन्नत के द्वार

चार दिन की चांदनी की तरह चार दिन की शांति और फिर धमाका! यह हिंदुस्तान की नियति बन गई है। क्या देश का कोई हिस्सा ऐसा बचा है जिसके बारे में कहा जा सके कि यहां आतंकवाद के नापाक कदम नहीं पड़ सकते। सच यही है कि कहीं भी कभी भी आतंकवादी हमले हो सकते हैं और दुखद यह है कि ऐसी प्राय: हर घटना के तार इस्लामी मान्यताओं से जुड़ जाते हैं या जोड़ दिए जाते हैं। मुस्लिम बुद्धिजीवी और विद्वान भी इस बात से चिंतित हैं कि फतवे, जेहाद और आतंकवाद जैसी चीजें इस्लाम की छवि खराब करने का काम कर रही हैं।
इस्लामी विद्वानों की चिंता जायज हो सकती है लेकिन, पूरी दुनिया के समाजों में अभिव्यक्ति के खुलेपन की लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं शुरू हो चुकने के बावजूद इस्लाम विरोधी एक बयान पर कुछ इस्लामिक संगठन जेहाद का ऐलान करते हुए यदि यह कहें कि - हम क्रास (सलीब) के अनुचर पोप को बताना चाहेंगे कि अपनी पराजय का इंतजार करो। निरंकुश शासको और काफिरो, तुम अपने किए के नतीजे देखने का इंतजार करो। हम क्रास को मिटा देंगे। तुम्हारे पास अब इस्लाम या मौत को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। तो इस तरह की प्रतिक्रियाओं से इस धारणा को ही बल मिलता है कि तलवार, बंदूक और बम की भाषा इस्लाम की फितरत में है।यह सब कहने का अर्थ यह भी नहीं है कि यहां हिंदू धर्म की वकालत की जा रही है, क्योंकि सर्वांग में हिंदू धर्म को भी कोई बहुत साफ-पाक नहीं माना जा सकता, बल्कि कई मायनों में यह अन्य कई धर्मों से कहीं ज्यादा वीभत्स है। चूंकि यहां बात हिंसक गतिविधियों के एक मुद्दे से है, इसलिए अन्य बातों की पड़ताल बहुत उचित नहीं है।
इस्लामी बुद्धिजीवियों को इस बात पर भी गंभीर चिंतन करना चाहिए कि इस्लाम मानने वालों के लिए आतंकवादी बनना आखिर इतना आसान क्यों है? एक बार आतंकवाद का जवाब देने के उद्देश्य से कुछ कट्टरवादी हिंदू संगठनों ने भी मानव बम तैयार करने की घोषणाएं की थीं, पर वे जरा भी सफल नहीं हुए। करोड़ों हिंदुओं में एक भी ऐसा नहीं तैयार हुआ जो धर्म के नाम पर मानव बम बनकर किसी हिंसक गतिविधि को अंजाम दे सके। किसी समस्या, तात्कालिक प्रतिक्रिया या स्वार्थ में हिंसा पर उतर आना एक अलग बात है, परंतु हिंसा हिंदुत्व के मूल चरित्र में नहीं है, इसलिए तमाम कोशिशों के बाद भी इसमें आतंकवादी संगठन नहीं चलाए जा सकते। स्पष्टत: धुर हिंदुत्व विरोधी भी यह आरोप नहीं लगा सकते कि हिंदुस्तान के कोने-कोने में हिंदू धर्म तलवार के जोर पर फैला। यूं हिंदू धर्म के विभिन्न संप्रदायों में भी छिटफुट कुछ संघर्षों का इतिहास ढूंढ़ा जा सकता है, पर ये संघर्ष किसी को जोर-जबरदस्ती अपने संप्रदाय में दीक्षित करने के लिए नहीं थे। यहां विभिन्न संप्रदायों के अस्तित्व के पीछे मूल वजह थी शास्त्रार्थ और वैचारिक रूप से एक जनसंवाद की स्वस्थ प्रक्रिया। यहां एक मूल मान्यता यह रही है कि - वादे-वादे जायते तत्वबोध:। क्या इस्लाम के विद्वान यह भरोसा दे सकते हैं कि उनके यहां मान्यताओं पर सवाल खड़े करने, संदेह करने या शास्त्रार्थ आयोजित करने की छूट है? यदि है तो फतवे और जेहाद की नौबत ही क्यों?
बहरहाल, इस्लाम के चंद बुद्धिजीवियों की चिंता पूरे इस्लामी जगत की चिंता बननी चाहिए और धर्म के झंडाबरदार सभी मुल्ले-मौलवियों को समझना चाहिए कि वे अपनी मजहबी छवि फतवों, जिदों और जेहाद की घोषणाओं से नहीं सुधार सकते। किसी समूह के बारे में धारणाएं और छवियां सामूहिक आचरण और लोक-व्यवहार का प्रतिफल हुआ करती हैं। वर्तमान का आचरण लोक-लुभावन हो तो अतीत के ढेर सारे पाप धुल जाते हैं और वर्तमान का आचरण समाज में नकारात्मक भाव पैदा करे तो पिछले ढेर सारे पुण्य बिसरा भी दिए जाते हैं। कहने का अर्थ यही है कि इस्लाम की छवि को साफ-पाक बनाना है तो उसके मानने वालों को अपने समुदाय के भीतर अन्य समुदायों के साथ एक स्वस्थ संवाद की स्थिति पैदा करनी होगी। आगे की सही राह चुनने के लिए तर्क-वितर्क और शास्त्रार्थ का सहज वातावरण बनाना होगा। यही तरीके हैं जो हिंसक गतिविधियों में भटक रहे लोगों को शेष समाज के प्रति सहज आचरण दे सकते हैं तथा फतवे और जेहाद की घोषणाएं मानवीय सेवा के उपक्रमों में बदल सकती हैं। सेवा एक ऐसा अहिंसक हथियार है जिसके सामने तलवारों की तेज धार भी बेकार हो जाती है। सेवा ऐसा आचरण है जो अकसर विरोधी को भी बगैर तर्क-वितर्क के ही अपना मुरीद बना लेता है। ईसाइयत के प्रचार में सेवा तत्व का बहुत बड़ा हाथ रहा है, भले ही इस सेवा में बहुत कुछ छद्म रहा हो।
दुर्भाग्य यह है कि इस्लाम के दामन में लगे दाग धोने के लिए मुल्ले-मौलवियों का एक बड़ा वर्ग हिंसा तक को जायज ठहराता है। उसकी समझ में यह नहीं आता कि आज आतंकवादी हिंसा इस्लामी मान्यताओं पर सबसे बदनुमा दाग है, तो ऐसी ही वजहों से। इस्लामी आतंकवाद का वर्तमान रूप जनसमस्याओं से हटकर सभ्यताओं के संघर्ष के निकट पहुंच चुका है, तो वह भी इन्हीं वजहों का प्रतिफल है। इस्लामी समुदाय के साथ एक मुश्किल यह भी है कि वह वर्तमान चुनौतियों का सामना करने के बजाय बंद समाज की वकालत करने लगता है। इस्लाम का दामन साफ-पाक देखने की इच्छा रखने वाले लोगों को सोचना चाहिए कि एक तरफ आप चांद-तारों की सैर के मंसूबे भी पालें और दूसरी तरफ बंद समाजों की दुनिया बनाना चाहें, तो यह अब संभव नहीं हो सकता। विज्ञान और तकनीक के रथ की सवारी जिस मुकाम तक पहुंचाती है, सही अर्थों में वहां धार्मिक समूहों, सांप्रदायिक जिदों या जातीय पहचानों के कोई मायने नहीं रह जाते। ऐसे में, दूसरे समुदायों से कटकर रहना या उन्हें काफिर करार देना मूर्खतापूर्ण सांप्रदायिक सनक के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। बात कड़वी लगे, पर सच यही है कि जन्नत में दाखिला बजरिए जेहाद किसी खुशनुमा ख्वाब से ज्यादा और कुछ नहीं है। बात यह भी है कि जेहादी अगर पूरी दुनिया के इस्लामीकरण में ही अमन की असली राह देख रहे हैं तो उन्हें सबसे पहले जिन देशों की व्यवस्थाएं इस्लाम के ही नाम पर चलाई जा रही हैं उन पर ही गौर कर लेना चाहिए। इतने पर भी आंखें न खुलें तो यह बंद दिमाग और बीमार मानसिकता की ही पहचान हो सकती है।
वैसे, इस्लाम के कुछ विद्वान अगर यह सोचते हैं कि आतंकवादी हिंसा का आरोप पूरे मुस्लिम समुदाय पर नहीं लगाया जा सकता, तो उनका ऐसा सोचना भी एकदम से अनुचित नहीं है। बल्कि, आतंकवादी गतिविधियों में सिर्फ इने-गिने गुट ही सक्रिय हैं। लेकिन इस आधार पर मुस्लिम समुदाय एकदम दोषमुक्त भी नहीं हो जाता, क्योंकि आतंकवादियों की हरकतों के पीछे उनका निजी स्वार्थ नहीं, बल्कि एक खास किस्म की वैचारिक ऊर्जा है और यह ऊर्जा उन्हें इस्लाम की मान्यताओं से ही मिल रही है, कहीं बाहर से नहीं। सिर्फ यह कहकर छुटकारा नहीं पाया जा सकता कि आतंकवादी हिंसा सिर्फ कुछ सिरफिरे या बहके हुए लोगों का काम है। पूरी दुनिया में इस्लाम के नाम पर हो रही आतंकवादी गतिविधियां इस बात का स्पष्ट संकेत हैं कि इस्लाम की पूरी विचारधारा में कहीं ऐसा कुछ जरूर है जिसे इस तरह की हिंसा के लिए आसानी से आधार बनाया जा सकता है।
इस्लामी विद्वानों को अगर लगता है कि आतंकवादी गुट इस्लाम की बेजा व्याख्याएं करके अपना निहित स्वार्थ साध रहे हैं तो उन्हें पूरे तेवर के साथ इस्लाम की मानवीय व्याख्याओं को सामने लाना चाहिए और अपने समुदाय में फैले वैचारिक भ्रमों को दूर करने की मुहिम चलानी चाहिए। हिंसक गतिविधियों के लिए वैचारिक आधार नहीं रहेगा तो कोई ओसामा बिन लादेन अपनी किसी सनक के लिए किसी धर्मप्राण आम आदमी को बरगला भी नहीं सकेगा। मुल्ले-मौलवियों को यह भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि - इस्लाम तलवार के बल पर फैला - जैसे आरोप का जवाब हिंसा को उकसाने वाले फतवों से नहीं, दया-करुणा-सेवा के उपक्रमों से ही दिया जा सकता है। सही यही है कि जेहाद नहीं, सेवा के बल से ही खुलेंगे जन्नत के द्वार और वे भी, इस संसार के पार किसी काल्पनिक मजहबी खयालों के नहीं, बल्कि इसी धरती पर सुकून से रहने के काबिल बेहतर दुनिया के रूप में। और असल में, यह बात सिर्फ इस्लाम पर ही नहीं, अन्य धर्मों पर भी किसी न किसी कोण से लागू होती है, क्योंकि प्राय: हर धर्म के इतिहास में कुछ न कुछ रक्तरंजित पन्ने मिल ही जाएंगे। यहीं पर यह भी स्पष्ट कर देने की ज़रूरत है कि जिस अर्थ में जेहाद (जिहाद) आजकल चर्चा में है, वह वास्तव में सिर्फ़ वैसा ही नहीं है। जेहाद की एक सकारात्मक व्याख्या भी है, जो अहिंसा-वृत्ति के इर्द-गिर्द पहुँचती है। और शायद, इस्लाम को अब ऐसी ही व्याख्याओं की ज़रूरत है।

1 Comment:

अनुनाद सिंह said...

आपके ब्लाग पर पहली बार आया। बहुत सार्थक लिखते हैं आप्। आपकी कहानी भी बहुत रोचक है। विशेषकर ये वाक्य बहुत प्रभावी है- ''अपने लिये जीना भी कोई जीना है?''