रविवार, 7 दिसंबर 2008

समलैंगिकता ज़िन्दाबाद

तो क्या आने वाले दिनों में भूख, ग़रीबी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे पीछे हो जाएँगे और देश के सामाजिक संगठन समलैंगिक प्रेम की आज़ादी का आन्दोलन चलाते हुए दिखेंगे? संकेत जो मिल रहे हैं वे कुछ ऐसी ही कहानी कह रहे हैं। स्थितियाँ ऐसी बन रही हैं कि भारत में भी समलैंगिकों के समूह आजकल बल्लियों उछल रहे हैं। समाज के सबसे समझदार और स्पष्ट दृष्टिबोध की पहचान वाले लोग उन्हें खुलकर समर्थन देने लगे हैं, तो इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है? सामाजिक संगठनों के सोशल फोरम जैसे महाआयोजनों में समलैंगिकता का मुद्दा अगर विशेष महत्व पाने लगे, तो इसका अर्थ यही निकलता है कि बेहतर दुनिया बनाने की चाह रखने वालों की प्राथमिकताएँ कुछ और दिशा ले रही हैं।

 

बहरहाल, समाजकर्म में लगे सारे ही लोग भले ही इस दिशा में न हों, पर जो तसवीर उभर रही है, वह चिन्ताजनक है। जिस देश में आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी दो जून की रोटी का ठीक से इन्तज़ाम न कर पाता हो; जिस देश के लाखों बच्चों की ज़िन्दगी कूड़ा बीनने और फुटपाथों पर ठिठुरते हुए रात गुज़ारने को अभी भी अभिशप्त हो; जिस देश की स्त्रियाँ ढेर सारी वर्जनाओं में ख़ुद को आज भी जकड़ा हुआ महसूस करती हों; जिस देश के जवान सपने बेरोज़गारी के ऍंधेरे में गुम हो जाने की नियति से ग्रस्त हों; उस देश में सामाजिक सरोकारों का दम भरने वाले लोग समलैंगिकता के आज़ाद व्यवहार के छूट की माँग को अपनी प्राथमिकताओं के शीर्ष पर रखने लगें, तो यह दु:खद ही है। इसे बुनियादी सरोकारों को दरकिनार कर सिर्फ़ मौज-मस्ती के लिए एक विकृत उच्छृंखल स्वार्थवृत्ति प्रेरित स्वच्छन्द भोग की बेलगाम लालसा के अलावा और क्या कहा जा सकता है?

     

इस सूचना पर आप हँसें या तरस खाएँ, पर यह सच है कि साल भर पहले ही प्रशान्त भूषण, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, एम. जे. अकबर, सतीश गुजराल, श्याम बेनेगल, कुलदीप नैयर, आशीष नन्दी, शुभा मुद्गल, अरुन्धती राय, सुमित सरकार, बी. जी. वर्गीज, अरुणा राय और दिलीप पडगाँवकर जैसे लोग समलैंगिक आन्दोलन के पक्ष में खड़े हो चुके हैं। अमर्त्य सेन जैसे व्यक्ति ने तो यहाँ तक कह दिया कि-'समलैंगिक आचरण की स्वतन्त्रता है या नहीं, इससे तय होता है कि मानव सभ्यता का कितना विकास हुआ है।' सभ्यता के विकास के इस अजब-गज़ब पैमाने पर क्या कहा जाए? इसे एक भले दिमाग़ का बुरा इस्तेमाल न कहें तो क्या कहें?

     

इधर समलैंगिक समूह अपना एक अलग तर्कशास्त्र और जीवन-दर्शन विकसित करने में लगे हैं। इसके लिए  पत्रिकाएँ और वेबसाइटें तक चल रही हैं। कुछ वैज्ञानिक अध्ययन इस दिशा में उनके लिए ख़ासे मददगार साबित हो रहे हैं। बात-बात में वैज्ञानिक अध्ययनों का हवाला देने वाले समझदार क़िस्म के लोगों के लिए भी यह क़ायल करने वाली बात है ही। ब्रूस बागेमील, जोआन रफगार्डन, पॉल वाज़ जैसे वैज्ञानिकों के अध्ययनों का निष्कर्ष है कि मनुष्य की बात हो या मनुष्येतर प्राणियों की, नर-मादा का प्रेम स्वाभाविक नहीं है। मसलन, पक्षियों को छोड़कर अभी तक नर और मादा के बीच भावनात्मक सम्बन्धों के प्रमाण नहीं मिले हैं। या कहें यदा-कदा ही मिले हैं। वहीं दूसरी ओर, प्रकृति में नरों में आपस में और मादाओं में आपसी गहरे भावनात्मक सम्बन्धों के प्रमाण बहुत बड़ी संख्या में हैं। यह भी कि स्तनधारियों में नर और मादा का समागम केवल प्रजनन के लिए होता है और उतना ही होता है जितना कि प्रजनन के लिए ज़रूरी हो। यह समागम आनन्द और प्रेम के लिए हरगिज़ नहीं होता। यानी मनुष्यों में नर व मादा यदि प्रजनन की ज़रूरत से ज्यादा सम्बन्ध रख रहे हैं तो यह प्रकृति की व्यवस्था के ख़िलाफ़ है। कुछ वैज्ञानिक अध्ययनों का निष्कर्ष यह भी है कि चिम्पाजी की प्रजाति बोनोबोस, जिर्राफ, पेंग्विन, पैरेट, बीटल्स, व्हेल्स समेत डेढ़ हज़ार से ज्यादा प्रजातियों में होमो सैक्सुअलिटी के गुण पाए जाते हैं। नार्वे की राजधानी के 'द ओस्लो नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम' में तो पिछले दिनों बाक़ायदा इसकी एक प्रदर्शनी भी लगाई गई। यह जानना भी दिलचस्प होगा कि लगभग 23 सौ साल पहले ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने हाईनस नामक जीव में होमो सैक्सुअलिटी की बात कही थी। इसके अलावा कुछ लोग समलैंगिकता को आनुवंशिक विशेषता के तौर पर जब-तब प्रचारित करते ही रहते हैं।

     

अब, अगर ये अध्ययन और निष्कर्ष सचमुच प्रकृति में क़ायम जीवन-व्यवहार की सही व्याख्या करते हैं तो हमारे जैसे लोग इन्हें कब तक नकार पाएँगे? दुनिया के दरो-दीवार की खुलती हुई खिड़कियों से एक न एक दिन सच की रोशनी आ ही सकती है। असल में हमारी दिलचस्पी सचमुच के किसी वैज्ञानिक निष्कर्ष को नकारने की नहीं, बल्कि यह देखने की है कि क्या ये अध्ययन वैज्ञानिक ही हैं या विज्ञान के नाम पर इनमें किसी छद्म का इस्तेमाल हुआ है। अगर समलैंगिकता के झंडाबरदार इन वैज्ञानिक अध्ययनों को अपने पक्ष में अकाट्य प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत करते हुए यह कहना चाहते हैं कि स्त्री और पुरुष का समागम सिर्फ़ सन्तति के लिए है और यह आनन्द और प्रेम के लिए हरगिज़ नहीं है तो फिर उन्हें इस प्रत्यक्ष अनुभूति का भी जवाब देना होगा कि स्त्री-पुरुष समागम में आनन्दातिरेक और प्रेम की अभिव्यक्ति होती क्यों है? कोई लाख चाहे पर समागम के दौर के आनन्दातिरेक से विमुख नहीं रह सकता। समागम में आनन्द प्राप्ति जैसी कोई बात न होती तो आदमी कामान्ध होकर बलात्कार जैसी बेजां हरकतें भी क्यों करता? सहज अनुभूतियाँ जीवन-व्यवहार की सही व्याख्या करती हैं या खींच-तान कर कुछ निहित उद्देश्यों को लेकर निकाले जा रहे तथाकथित वैज्ञानिक अध्ययन? यदि यौन और प्रेम सम्बन्ध पुरुष का पुरुष या स्त्री का स्त्री के साथ ही स्वाभाविक और प्राकृतिक होता तो प्रकृति ने स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे का पूरक क्यों बना दिया? प्रकृति ने क्यों नहीं समलिंगी सम्बन्धों में ही सन्तति की सम्भावना भी बना दी? आख़िर सृष्टि को चलाए रखने के लिए नर-मादा की पारस्परिक ज़रूरत क्यों?

 

      प्राकृतिक और सहज प्रवाह को बनावटी बन्दिशों से कभी भी एक हद से ज्यादा नहीं रोका जा सकता। काम का आवेग इतना सहज है कि ब्रह्मचर्य की महत्ता पर उपदेशों-प्रवचनों के अम्बार के बाद भी कभी बृहत्तर समाज ब्रह्मचर्य का साधक नहीं बना। ब्रह्मचर्य का चोला पहने लोगों में भी गिने-चुने ही होंगे जो सचमुच काम भाव को क़ाबू में रख पाए हों। फिर, समलैंगिकता ही ज्यादा स्वाभाविक है तो समलैंगिकों की संख्या भी क्यों उँगलियों पर गिनने लायक़ ही रही?

 

      समलैंगिकता के समर्थक यदि यह तर्क प्रस्तुत कर रहे हैं कि प्रकृति में डेढ़ हज़ार से ज्यादा प्रजातियों में समलैंगिक व्यावहार पाया जाता है तो सवाल यह भी उठता है कि बाक़ी की लाखों प्रजातियों में क्यों नहीं समलैंगिकता पायी जाती? यह भी कि मनुष्य को भी इन लाखों में ही क्यों न शामिल माना जाए? और यदि हज़ार-दो-हज़ार या दस हज़ार प्रजातियों में भी समलैंगिक व्यवहार पाया जाए तो क्या सिर्फ़ इस आधार पर ही मनुष्य को भी इस राह पर चल पड़ना चाहिए? आख़िर जो लाखों प्रजातियाँ समलैंगिक व्यवहार नहीं करतीं, उन जैसा व्यवहार आदमी क्यों न करे? अधिसंख्य का व्यवहार ही मनुष्य का प्रेरक क्यों न हो? बात यह भी है कि जिन्हें हम विभिन्न प्रजातियों में समलैंगिक व्यवहार के रूप में देख रहे हैं, हो सकता है कल को वे कुछ और साबित हों। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है, क्योंकि इस तरह के अध्ययनों की प्रवृत्ति बाद में अकसर ग़लत साबित होने की रही ही है। हमने देखा ही है कि किस तरह विज्ञान के ही नाम पर डिब्बाबन्द दूध को माँ के दूध से बेहतर प्रचारित किया गया और जब स्पष्ट दुष्परिणाम दिखे तो निष्कर्ष उलट दिए गए। कहा यह भी गया कि च्युंगम चबाने से याददाश्त बढ़ती है। इससे च्युंगम बनाने वाली कम्पनियों की चाँदी हो गई। जबकि, सच यह है कि याददाश्त का सम्बन्ध च्युंगम से नहीं चबाने की क्रिया से है। इसी तरह प्रसिध्द मेडिकल मैगजीन 'लांसेट' ने एक अध्ययन रिपोर्ट छापी कि होम्योपैथी दवाओं का असर सिर्फ़ मनेवैज्ञानिक होता है और यह अवैज्ञानिक चिकित्सा पध्दति है। पत्रिका ने इस बात का उत्तर देने की ज़रूरत नहीं समझी कि अबोध शिशुओं पर होम्योपैथी दवाओं का क्यों एलोपैथी से भी बेहतर असर दिखता है? या कि जानवरों पर होम्योपैथी दवाओं का कौन सा मनोवैज्ञानिक असर होता है? असल में एलोपैथी के तौर-तरीक़े को ही मात्र विज्ञानसम्मत मानने के दुराग्रह के नाते यह मूर्खतापूर्ण अध्ययन सामने आया।

 

      सिर्फ़ विज्ञान का मुलम्मा चढ़ा देने भर से कोई अध्ययन वैज्ञानिकतापूर्ण नहीं हो जाता। ऐसा होता तो प्राय: एक शोध को सिरे से ख़ारिज कर देने वाले आए-दिन दूसरे शोध सामने न आते। पशु-पक्षियों के व्यवहार में समलैंगिकता तलाशना तो और भी सन्देहास्पद है, क्योंकि इतनी प्रगति के बाद भी हम मनुष्येतर प्राणियों की भाषा, भावना और व्यवहार पर कोई अन्तिम निर्णय देने की स्थिति में नहीं पहुँच सके हैं। यह सोचने वाली बात है कि पंजाब और हिमाचल के लायंस सफारी 'छतबीड़ जू' तथा 'रेणुका' में कुछ रोगों के कारण नस्ल ख़त्म करने के उद्देश्य से जब नर और मादा शेरों को अलग-अलग रखा गया तो देखने में यही आया कि ज्यादा समय तक मादा से दूर रहने पर नर शेर ग़ुस्से में ख़ुद को ज़ख्मी करने लगे, पर कामावेग की शान्ति के लिए उन्होंने आपस में किसी तरह का समलैंगिक व्यवहार नहीं किया। पशु-पक्षियों का कोई व्यवहार ऊपरी तौर पर आदमी जैसा दिखने भर से उसे आदमी के समकक्ष घोषित कर देना अज्ञान का परिचायक हो सकता है किसी वैज्ञानिक दृष्टि का नहीं।

 

वास्तव में यह सब विकृत शरीर सुख की आज़ादी को जायज़ ठहराने के तर्कजाल से ज्यादा और कुछ नहीं है। किसी क्रिया के प्रकृति के अनुकूल या प्रतिकूल होने का सबसे बड़ा पैमाना तो यह है कि यदि कोई क्रिया प्रकृति के अनुकूल है तो उससे प्रकृति की गति में कोई विक्षोभ नहीं पैदा होता, उसकी सुचारू गति बनी रहती है। इस अर्थ में दुनिया के सारे लोग दयावान, करुणावान, ईमानदार और एक-दूसरे के सहयोगी भाव वाले हो जाएँ तो संसार की गति में बाधा नहीं पड़ेगी, बल्कि दुनिया और भी रहने के क़ाबिल बन जाएगी। अब यदि सारे लोग बेईमान, भ्रष्ट, एक-दूसरे को बात-बात में धोखा देने वाले हो जाएँ, तो कल्पना करिए कि कितने क्षण जीवन-व्यवहार चल सकेगा? कुछ ऐसे ही, यदि सारे लोग समलैंगिकता को सहज व्यवहार मानकर अपना लें, तो हम समझ सकते हैं कि मनुष्य जाति के नष्ट होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।

 

सच तो यह है कि इस सहज सिध्द अप्राकृतिक प्रवृत्ति पर यदि बहस-मुबाहिसे की ज़रूरत पड़े तो समझ लेना चाहिए कि यह बीमार समाज की निशानी है। मानवेतर जीवन से लेकर किसी भी स्तर पर इसे अप्राकृतिक और अनुचित सिध्द किया जा सकता है। पशु-पक्षियों से लेकर मनुष्य तक में नर-मादा की एक-दूसरे के लिए पूरक होने की अनिवार्यता से ही यह सहज समझ आ जानी चाहिए कि समलैंगिकता नितान्त अप्राकृतिक है और अनुचित है। पशु-पक्षियों में विवेक न होने के बावजूद यह सहज समझ है। यदि आदमी में यह समझ गड़बड़ाने लगी है तो निश्चित रूप से उसका मानस बीमार हो रहा है। इस मायने में पश्चिम का समाज ज्यादा बीमार है। समलैंगिकता स्वस्थ और जीवन्त समाज की निशानी नहीं हो सकती। यह तो उद्देश्यहीन, भटके हुए और मुर्दा हो रहे समाज की ही पहचान है। पश्चिम की दशा यही है। उस समाज में जो जुम्बिश दिखाई दे रही है, वह जीवन्तता की कम, मौत के पहले की फड़कन ज्यादा हैं। दरअसल विज्ञान की कोख से जन्मी टेक्नॉलोजी उनके हाथ लग गई है। इसके सहारे नित नई उपभोग की विधियाँ तलाशने को ही वे अपना साध्य मान बैठे हैं। संयम का अर्थ और उसकी उपादेयता उन्हें नहीं मालूम। आदमी के होने का अर्थ भी उन्हें नहीं मालूम। जिस समाज के लोगों के लिए अपने होने का अर्थबोध सिर्फ़ इतने तक सिमट गया हो कि वे सिर्फ़ इसलिए पैदा हुए हैं कि नित नई चीज़ों का ज्यादा से ज्यादा उपभोग कर सकें तो उस समाज की निरन्तर छीजती जीवन्तता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है! वास्तव में कामुकता भोगवाद की सबसे प्रबल दैहिक अभिव्यक्ति है। और इसी नाते, समलैंगिकता जैसी काम-विकृतियाँ उन्हीं भोगवादी समाजों की ईजाद हैं। टेक्नॉलोजी की महारत ने, यह ज़रूर है कि उनमें उनके जीवन्त होने का भ्रम पैदा कर रखा है। लेकिन किसी भी विलासी समाज का इस तरह का भ्रम ज्यादा दिनों तक क़ायम नहीं रह सकता। इतिहास में तमाम पन्ने ऐसे मिलेंगे, जिनमें विलासी समाजों के पतन की महागाथाएँ मिल जाएँगी।

 

      समझदार क़िस्म के लोग अगर यह तर्क दे रहे हैं कि समलैंगिकता तो भारतीय संस्कृति में बहुत पहले से ही रही है, तो उनकी इतिहास और संस्कृति की समझ पर तरस ही खाया जा सकता है। दुनिया के भोगवादी समाजों की देन समलैंगिकता की समस्या को उन्हीं के नज़रिए से देखने पर इस तरह का दृष्टिदोष तो होगा ही। समाजकर्म का आधुनिक संस्करण दरअसल पश्चिम के ही चित्ता-मानस से गहरे तक प्रभावित हो चुका है-  सम्भवत: इसलिए भी कि एनजीओ संस्कृति में धन का प्रवाह वहीं से ज्यादा हो रहा है-  अन्यथा, समझदारों के लिए यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि समलैंगिकता का मतलब सिर्फ़ एक विकृत शरीर सुख की माँग है और भारतीयता सिर्फ़ शरीर सुख नहीं है। भारतीयता की विशेषता अपने मूल रूप में मौजूद हो तो इससे शून्य जैसे आविष्कार निकलते हैं जिससे दुनिया में विज्ञान का सफ़र आसान हो जाता है; जबकि, पश्चिम का शरीर-सुख सिफलिस और एड्स जैसे रोग देता है जो तमाम उपलब्धियों पर भी ग्रहण लगाने का काम करते हैं। ऐसे में, यह सोचना पड़ेगा कि क्या भारतीय संस्कृति-सभ्यता को हम अप्रासंगिक मान चुके है और शरीर-सुख को ही केन्द्रीय तत्तव मानकर चलने वाला पश्चिमी समाज हमारा आदर्श और लक्ष्य बन गया है? और क्या सामाजिक संगठनों को अब बेहतर दुनिया का रास्ता कुछ इसी तरफ़ से खुलता दिखाई दे रहा है?

 

      हालाँकि यह सब कहते-समझते हुए भी यह तो माना ही जा सकता है कि समलैंगिकता एक स्थिति है और समाज के किसी हिस्से का यथार्थ भी है। समलैंगिक अगर किसी को नुक़सान नहीं पहुँचाते तो सिर्फ़ इस व्यवहार की वजह से वे नफ़रत के पात्र भी नहीं बन जाते। समलैंगिकता अतृप्तता की स्थितियों में तनावों से जन्मी एक बीमार मानसिकता हो सकती है और इसके लिए प्रताड़ना और नफ़रत के बजाय सहानुभूति और इलाज की व्यवस्था की ज़रूरत है।

1 Comment:

Unknown said...

बहुत अच्छा विश्लेषणात्मक और विस्तृत लेख… समलैंगिकता भारत को पश्चिम की एक और देन(?) है, ठीक एड्स की तरह… पेज 3 कल्चर में रंगते जा रहे देश में अब मलेरिया या पेचिश नाम की बीमारी अखबारों की हेडलाइन नहीं बन सकती… मेरा ऐसा मानना है कि समलैंगिकता एक मनोविकार है और इसे मनोचिकित्सा की आवश्यकता होनी चाहिये…