शनिवार, 13 दिसंबर 2008

हौसले की जीत

शायद मेरी यह आपबीती आपको भी जीने का हौसला दे, इसलिए सुनाता हूँ। बचपन में ही कुछ ऐसे हादसों से गुज़रना पड़ा कि एकबारगी जीने की आस छोड़ ही चुका था। डॉक्टरों का अनुमान था कि मैं तीस वर्ष की उम्र शायद ही पार कर पाऊँ। ऑंतें, यकृत, फेफड़े और गुर्दे एक ऐसे बीमार शरीर की तस्वीर प्रस्तुत कर रहे थे, जो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिए भी असाध्य ही था। कम उम्र में ही अम्लपित्त, अल्सर, मेनिनजाइटिस, डायबिटीज, पोलीपस और नजला जैसी कई-कई बीमारियों का दंश सहना पड़े तो आख़िर शरीर भी कितना साथ देगा? कल्पना करिए कि युवावस्था की देहली पर क़दम रखते ही किसी युवक को यह बता दिया जाए कि उसकी ज़िन्दगी के इने-गिने सिर्फ़ चार-छह वर्ष ही शेष हैं, तो उसके दिल पर क्या गुज़रेगी? शायद निराशा उसे और भी पहले मार देगी।
ख़ैर, मौत एक प्रश्नचिह्न बनकर मेरे भी सामने खड़ी थी। लेकिन मैं निराश नहीं हुआ। मुसीबतें निजी हों या दूसरों की, परेशान तो करती हैं; बल्कि दूसरों के दुख मुझे ज्यादा परेशान करते हैं, पर हताशा या निराशा जैसी चीज़ को कभी मैंने पास नहीं फटकने दिया है और न ही मैं मुश्किलों से कभी घबराता हूँ। यह मेरा कोई जन्मजात गुण नहीं है, बल्कि अभ्यास के द्वारा इसे मैंने हासिल किया है। बचपन में जितने डरपोक स्वभाव का मैं रहा हूँ शायद कम लोग वैसे होंगे। लेकिन पुस्तकें जुटाने और स्वाध्याय की प्रवृत्ति मेरी शुरू से रही तो महापुरुषों और क्रांतिकारियों की जीवनियाँ भी मैंने ख़ूब पढ़ीं। जीवन को सार्थक बनाने की प्रेरणा मुझे समाज परिवर्तन के लिए किए गए इन युगपुरुषों के संघर्षों से ही मिली। राम, कृष्ण, बुध्द, ईसा, मुहम्मद साहब या कार्ल माक्र्स तक जहाँ भी मुझे कुछ बेहतर मिला मैंने स्वीकार करने में हिचक नहीं दिखाई। मुश्किलों से पार पाने का संघर्ष मैंने स्वामी दयानन्द और महात्मा गाँधी के जीवन-दर्शन से विशेष रूप से सीखा।
कहने का अर्थ यही है कि जीवन के प्रति एक सार्थक और सकारात्मक दृष्टि ने मुझे इतनी हिम्मत दी कि मौत के आगे इतनी आसानी से घुटने तो न ही टेकूँ। मैंने सोचा कि प्रकृति के जिन भी नियमों के तहत इस संसार में भेजा गया हूँ वे यह संकेत तो देते ही हैं कि मुझे भी एक भरी-पूरी ज़िन्दगी जीने का हक़ है। तो फिर, जीने की कोशिश और आस क्यों छोड़ी जाय? सकारात्मक सोच से यह पैदा हुआ कि दुनिया में समस्याएं हैं तो समाधान भी होंगे ही। मौत आने में जितने भी दिन शेष हैं उन दिनों में हताश होकर ऑंसू बहाने के बजाय समाधान तलाशने की कोशिश तो की ही जा सकती है। और इस तरह, रोज़मर्रा के तमाम काम करते हुए अपनी बीमारियों से निजात पाने की राह खोजने को भी मैंने एक मिशन के रूप में लिया।
अब मेरा परिचय एक नई दुनिया से हुआ, जिसका सामना लोगों को आए दिन करना ही पड़ता है, पर प्राय: वे उसके विषय में ज्यादा कुछ नहीं जानते; यानि- चिकित्सा शास्त्र, चिकित्सा पध्दतियाँ, और चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों की दुनिया। ख़ैर, मेरे सामने जो भी विकल्प आए उनका मैंने अध्ययन किया। आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा, एक्यूप्रेशर और होम्योपैथी; या और भी कुछ छिटपुट चीज़ें। एलोपैथी का औषधि विधान और सैध्दान्तिक पक्ष मैंने कुछ-कुछ पढ़ा, पर इसे अपने दायरे से बाहर रखा। इसके दो कारण थे। एक तो यह कि मेरे स्वास्थ्य की समस्याओं के मूल में बहुत कुछ एलौपैथी ही थी। असल में बचपन में मुझे कुत्तों ने काट खाया था तो गाँव-घर के लोगों की अपनी समझ के हिसाब से कुछ झाड़-फूँक करके इलाज की इतिश्री कर ली गई थी। इसका दुष्परिणाम तत्काल तो नहीं, पर साल भर बाद मुझे भोगना पड़ा। कोई 8-9 बरस की उम्र रही होगी, जबकि मैं बुरी तरह बीमार पड़ा। परिवार के लोगों ने मेरे बचने की उम्मीद ही छोड़ दी थी। कई बडे ड़ॉक्टरों ने अपने हाथ खड़े कर लिए थे और किसी बड़े अस्पताल में ले जाने की सलाह दी थी। मैं होनहार क़िस्म का बालक माना जाता था, बल्कि प्राइमरी का विद्यार्थी होने पर भी हाईस्कूल तक की क़िताबें मज़े में पढ़ सकता था, तो घर ही नहीं, गाँव के लोगों ने भी किसी भी कीमत पर मेरा इलाज कराने का तय किया।
खैर, इलाज चलता रहा और कई महीनों के लिए मेरी दुनिया चारपाई के इर्द-गिर्द ही सिमटकर रह गई। और एक दिन सबके चेहरे ख़ुशी से खिल उठे जब डॉक्टर ने कहा कि अब यह बच्चा ख़तरे से उबर चुका है। इस तरह मैं बच तो गया, पर इस दौरान मेरे शरीर में कितने इंजेक्शन, कैप्सूल और टेबलट प्रवेश कर चुके थे, उनकी गिनती कर पाना मुश्किल है। दवाओं के ज़हर के रूप में अब मेरे सामने एक नई समस्या थी। इन दवाओं का पार्श्वप्रभाव इतना बुरा था कि बाद के लगभग बीस बरस के लिए मैं ठीक से कह नहीं सकता कि किसी हफ्ते या महीने पूरी तरह स्वस्थ और प्रसन्न रहा होऊँ। कोई न कोई नई तकलीफ़ अक्सर उठ खड़ी होती और निजात पाने के लिए हर बार एलोपैथी की ही शरण में पहुँचा दिया जाता। परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे मेरे फेफड़े, यकृत, गुर्दे जवाब देने लगे और अन्तत: मधुमेह तक का शिकार मुझे होना पड़ा। एक बार लगा कि शायद ऑंखों की रोशनी अब नहीं बचेगी। दो-ढाई साल तक तो मेरे सामने शाम का धँधलका ही छाया रहा।
दरअसल, इन्हीं वजहों ने मुझे एलोपैथी पर कुछ अलग ढंग से सोचने पर विवश किया। धीरे-धीरे मेरी स्पष्ट धारणा बनती गई कि इस पैथी के विकास में विज्ञान का आधार ज़रूर लिया गया है, पर इसमें अवैज्ञानिकता का अंश बहुत ज्यादा है। इसी वजह से एलोपैथी के बारे में मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इस पध्दति में आज तक एक भी दवा ऐसी नहीं बनाई जा सकी है जिसे कि पूरी तरह निरापद कहा जा सके। निरापद घोषित की गई दवाओं के दुष्परिणाम भी कालान्तर में उजागर होते ही रहे हैं यह कोई बहुत बताने की बात नहीं है। इस तरह, अगर मैं कहूँ कि एलोपैथी का अभी तक का विकास स्वास्थ्य के स्थायी साधन के रूप में नहीं, बल्कि आपातकालीन साधन के रूप में ही हो पाया है तो शायद ज्यादती नहीं होगी। असल में यह ही दूसरी वजह थी जिसके चलते मैंने इस पध्दति को अपने दायरे से बाहर रखा।
खैर, तमाम वैकल्पिक चिकित्सा पध्दतियों और नई संभावनाओं का अध्ययन-मनन करते हुए मेरी धरणा यह भी बनी कि चिकित्सा पध्दतियों का विभेद कई अर्थों में बेमानी है। अलग-अलग पध्दतियों का अस्तित्व मानवीय दुराग्रहों का परिणाम है; अन्यथा, प्रकृति के नियम तो अपनी सम्पूर्णता में काम करते हैं। यदि हमारे चिकित्साशास्त्री अपनी ज़िदें और दुराग्रह त्याग दें और सम्पूर्ण स्वास्थ्य को लक्ष्य मानकर काम करें तो शायद हर चिकित्सा पध्दति का नकारात्मक अंश दूर हो जाय और सबका सकारात्मक पक्ष मिलकर एक बेहतर और निरापद चिकित्सा व्यवस्था बन जाए।
बहरहाल, मैंने तय किया कि मैं पैथियों की ज़िद में न पड़कर अपने लिए उपयोगी हो सकने वाले हर पक्ष को आज़माऊँगा। आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, एक्यूप्रेशर, योग और होम्योपैथी को एक साथ सम्मिलित करके मैंने कुछ उपचार क्रम तैयार किए। मैंने यह भी सोच लिया कि यदि ज़रूरत पड़ी तो एलोपैथी के सर्जरी पक्ष को भी शामिल करने में संकोच नहीं करूँगा, पर उसकी नौबत नहीं आयी। हालाँकि अलग-अलग पध्दतियों के इस तरह के घालमेल के लिए एक बड़े विवेक की ज़रूरत थी, और मैं कह सकता हूँ कि यह मुझे आयुर्वेद के त्रिदोष सिध्दान्त से मिला। मैं समझता हूँ कि चिकित्सा जगत में इससे ज्यादा दिलचस्प और वैज्ञानिक सिध्दान्त अभी तक और कोई नहीं आ पाया है।
कफ-पित्ता-वात के प्रकृतिगत अध्ययन से मुझे यह तय करने में मदद मिली कि अलग-अलग पध्दतियों की कौन-कौन सी चीजें बिना एक-दूसरे को बाधा पहुँचाए भी साथ-साथ काम कर सकती हैं। ऑंतों को ठीक करने के लिए कब मुझे एनिमा लेना चाहिए; कब ईसबगोल का सेवन करना चाहिए या ईसबगोल से किसी मुश्किल की आशंका हो तो कैसे कितनी मात्रा में उसमें त्रिदोषशामक ऑंवला मिलाया जा सकता है; मिट्टी की पट्टी का कितना उपयोग किया जा सकता है; एक्यूप्रेशर के कौन से दबाव बिन्दु उपयोगी हो सकते हैं; योग के आसनों ओर प्राणायाम का कितना सहारा लिया जा सकता है; शीर्षासन कब उपयोगी और कब अनुपयोगी हो सकता है-- आदि-आदि बातों का क्रम मैंने बहुत कुछ इसी आधार पर तय किया।
वैसे उपरोक्त उपचार क्रम को भी मैं मात्र सहायक साधन ही कहूँगा क्योंकि मुख्य सहायता मुझे होम्योपैथी से मिली। आधुनिक विज्ञान पढ़े हुए लोग पहली बार होम्योपैथी का सिध्दान्त पढें या सुनें तो शायद उन्हें यह बकवास से ज्यादा और कुछ नहीं लगेगा, पर इसका असर और मर्म समझ लेने के बाद विज्ञान के एक नए ही आयाम का पता चलेगा। एलोपैथी के लोग अपने दुराग्रह छोड़कर होम्योपैथी का विज्ञान ठीक से समझ लें तो अपनी तमाम दवाओं को पार्श्वप्रभावों से मुक्त बना सकेंगे; बल्कि ज़हर जैसी कई चीज़ों से भी अमृत का काम लिया जा सकेगा।
होम्योपैथी शुरू में मुझे भी एक टोने-टोटके जैसी अनर्गल सी चीज़ लगी थी, पर मैं साधुवाद दूँगा इलाहाबाद के अतिशय सेवाभावी होम्योपैथ डॉ. दिनेश प्रसाद को, जिन्होंने मुझे इस पध्दति का व्यावहारिक प्रभाव दिखाया और कई बारीक़ बातें समझाईं। उन्हीं की चयनित दवा का प्रत्यक्ष प्रभाव मैंने अपने ऊपर पहली बार महसूस किया और होम्योपैथी का अध्येता बन गया। इस पध्दति की सैध्दान्तिक समझ बनाने के बाद मैंने दवाओं के क्रम तय किए और उन्हें आज़माना शुरू किया। हालाँकि होम्योपैथी के साथ प्राय: अन्य पैथियों को आज़माना सख्ती से मना किया जाता है, पर मैं होम्योपैथी के विद्वानों से क्षमा चाहूँगा कि मैंने इस तरह की पाबंदियों पर बहुत ध्यान नहीं दिया। किसी भी दवा की प्रकृति को समझते हुए मैंने इतना ध्यान अवश्य रखा कि किसी अन्य पध्दति की कोई क्रिया प्रतिकूल न हो। जब यह अनुभव आया कि कॉफी, कपूर और कच्ची प्याज जैसी चीजें सचमुच कुछ दवाओं का असर कम करती हैं तो उनसे यथासंभव परहेज़ किया। जिन दवाओं का मैंने अपने उपचार क्रम में समय-समय पर इस्तेमाल किया उनमें सल्फर, लाइकोपोडियम, सीपिया, कल्केरिया कार्ब, काली कार्ब, पल्साटिल्ला, आर्सेनिक अल्बम, इपिकाक, एण्टिम क्रूड, एनाकार्डियम, एलो, एकोनाइट, क्रियोजोटम, कॉफिया, कालीफास, कल्केरिया फास, कार्बोवेज, काली बाईक्रोम, कास्टिकम, फास्फोरस, कैलेण्डूला, चेलिडोनियम, जेल्सिमियम, ब्रायोनिया, बेलाडोना, नक्स वोमिका, मर्कसोल, स्टैफिसेग्रिया, चाइना, सैंग्वीनेरिया, सोराइनम, हीपर सल्फ, बर्बरिस बल्गैरिस, फेरमफास, नेट्रमफास, नेट्रम सल्फ, साइलीशिया वग़ैरह का नाम ले सकता हूँ। ज्यदातर दवाएं मैंने 200 शक्ति में सेवन कीं। एकदमर् नई तक़लीफ़ों में प्राय: 30 शक्ति या कुछ दवाओं के मदर टिंचर भी प्रयोग किए। बायोकैमी दवाएं प्राय: 6 शक्ति या कुछ की ऊपर की शक्तियाँ मेरे लिए मुफ़ीद रहीं।
तो यह कहानी हुई मौत से जूझने और उस पर विजय पाने की। अब मैं काफ़ी ठीक हूँ। यकृत पूरी तरह ठीक है। मौत के आख़िरी दिन तक साथ निभाने वाली डायबिटीज को भी पूरी तरह अलविदा कह चुका हूँ। फेफड़े और गुर्दो की स्थिति में भी काफ़ी सुधार है। शरीर ज़रूर कमज़ोर है, पर वह भी सुधार पर ही है। उम्र के सैंतीसवें वर्ष में प्रवेश कर चुका हूँ। कुल मिलाकर मृत्यु की डॉक्टरी भविष्यवाणी को झुठलाकर फिलहाल 6-7 साल ज्यादा जी गया हूँ। किसी हादसे का शिकार न हुआ तो उम्मीद करता हूँ कि सौ साल जीऊँगा। सोचता हूँ कि ज़िन्दगी की मुश्किलों, संघर्षों से डर जाने से क्या हासिल होगा, क्यों न उन्हें अपना संगी-साथी ही मानकर चला जाए।
और अब मैं जहाँ भी रहता हँ, लोगों की सेवा का कोई भी मौक़ा हाथ से नहीं जाने देता। रोज़मर्रा के कामों से एक-दो घंटे बचाकर अपने अनुभवों से औरों को भी लाभान्वित करने की कोशिश करता हूँ। रोगियों को संघर्ष का हौसला देता हूँ। लोगों को इस बात के लिए उत्साहित करता हूँ कि यदि वे अपने बच्चों को स्वास्थ्य संबंधी कुछ बुनियादी बातें भी बता सकें तो उनका जीवन आनन्दमय हो जाएगा और हमारे नौनिहाल नब्बे फ़ीसदी से भी अधिक बीमारियों से बड़ी आसानी से बचे रह सकेंगे। मैंने अपने अनुभवों पर आधारित आयुर्वेद पर दो पुस्तकें भी लिखीं हैं जो जनसाधारण के अलावा स्वामी रामदेव जैसे योग के विद्वानों द्वारा भी सराही गई हैं। इसके अलावा जो मुझसे इलाज कराना चाहते हैं अक्सर उनसे उनकी एकाध बुरी आदत छोड़ने का संकल्प दिलाता हूँ और बदले में विभिन्न पध्दतियों से स्वास्थ्य परामर्श और होम्योपैथी की नि:शुल्क दवाएं देता हूँ। जीवन का असली आनन्द इससे अलग और क्या हो सकता है!

1 Comment:

बेनामी said...

aapke hausle ki daad denipadegi,itani bimaarise ladhna aasaan nahi hota.aap dusron ki maddat kar rhe hai bahut nek kaam hai.kehte hai na paisa nahi tona sahi.ek healthy body hona bahut jaruri.bhagwan aapko hamesha healthy rakhe ahi dua.