अन्तरजाल के संसार में विचरते हुए जिन बन्धु ने यह प्यारी सी कहानी याद दिला दी, उनका बहुत-बहुत आभार। लीजिए, आप भी सुनिए!
महाभारत युध्द अपनी परिणति को प्राप्त हो चुका था और राज्य पाण्डवों को वापस मिल गया था। शासन की बागडोर युधिष्ठिर के हाथ थी। कहानी युधिष्ठिर के शासनकाल की ही है। एक किसान ने अपना खेत दूसरे किसान को बेच दिया। दूसरे किसान ने जब खेत जोतना शुरू किया तो हल का फल एक जगह पर अटक गया। किसान ने उस स्थान को खोदा तो स्वर्ण मुद्राओं से भरा एक कलश निकल आया। इस कलश को लेकर फौरन वह उस किसान के पास पहुँचा, जिससे उसने खेत ख़रीदा था। उसे कलश सौंपते हुए बोला कि यह लो, इस पर तुम्हारा ही अधिकार है, क्योंकि मैंने जब खेत ख़रीदा था तो सिर्फ़ मिट्टी के दाम दिए थे, इस कलश के नहीं। तुम्हारे पूर्वजों ने कभी इसे ज़मीन में गाड़ा रहा होगा, इसे अब तुम ही सँभालो। लेकिन, पहले किसान ने कलश लेने से इनकार कर दिया। उसने कहा कि मैंने तो खेत बेच दिया, अब उसमें से अनाज निकले या कुछ और, उस पर तो तुम्हारा ही अधिकार है।
बात उलझ गई। काफ़ी देर तक तर्क-वितर्क चलता रहा, पर दोनों में से कोई भी उन स्वर्ण मुद्राओं भरे कलश को अपने पास रखने को तैयार न हुआ। अन्तत: समस्या सुलटाने दोनों महाराज युधिष्ठिर के पास पहुँचे। युधिष्ठिर ने उन दोनों को ही समझाने की बहुतेरी कोशिश की, परन्तु बात न बनी। कुछ सोच-विचार कर दोनों किसानों ने सुझाव दिया कि महाराज राज्य आपका है, सो इसे आप ही सँभाले। क्यों न इन स्वर्ण मुद्राओं को राजकीय ख़जाने में जमा कर दिया जाए? पर, युधिष्ठिर भी ऐसा करने को तैयार न हुए। अन्त में यह गुत्थी इस तरह सुलझाई गई कि एक निर्धन कन्या के विवाह में इन स्वर्ण मुद्राओं को ख़र्च किया गया। यानी दोनों किसानों के साथ महाराज युधिष्ठिर ने भी उस धन पर अपना अधिकार नहीं समझा।
काश! ऐसी ईमानदारी आज के समाज में भी होती तो कल्पना करिए कि यह संसार कैसा होता! हम घर से बाहर निकलते, निर्भय-निर्द्वन्द्व। घर से खाकर निकलें या बाहर जाकर होटल-ढाबे में खा लें, बात बराबर। कहीं कोई मिलावट नहीं; खाने में असली तेल-घी है या जानवर की चर्बी, ऐसे किसी सन्देह की भी गुंजाइश नहीं। ईमानदार समाज हो तो बाज़ार में कहीं भी कुछ भी ख़रीदें तो सही दाम, ठीक सामान और फिर तो मोल-तोल की नोंक-झोंक भी क्यों? कितना सुकून मिले, जब आप किसी सरकारी दफ्तर पहुँचें और बगैर आपकी जेब पर ऑंख गड़ाए बाबू आपकी फाइलें निबटा दे, पूरी मुस्तैदी के साथ। न कोई रिश्वत न लेट-लतीफ़ी। ईमानदारी का समाज हो तो मनुष्य, मनुष्य के साथ तो विश्वासघात नहीं ही करे, प्रकृति के साथ भी समरस होकर जिए। ईमानदारी का वातावरण हो तो निठारी जैसे वीभत्स काण्ड भी न देखने पड़ें और हर तरफ़ अमन-चैन का साम्राज्य हो।
लेकिन दुर्भाग्य! आज की दुनिया में ऐसे समाज की कल्पना सिर्फ सपने की सी बात लगती है। और, ऐसा सपना देखने वाले के लिए सामान्यत: हर कोई यही कहेगा कि - दिल के बहलाने को ग़ालिब ख़याल अच्छा है। व्यवस्था के हर पायदान पर भ्रष्टाचार जो पसर चुका है। ईमानदारी तो जैसे अजायबघर की वस्तु बन गई है। हाल का ही सर्वे है कि भारत में भ्रष्टाचार निरन्तर बढ़ रहा है और ईमानदारी घट रही है। 180 देशों के बीच भ्रष्टाचार के मामले में भारत जहाँ पहले 72वें स्थान पर था, वहीं अब खिसककर और नीचे 85वें स्थान पर पहुँच गया है। ईमानदारी का अंक 3.5 से घटकर 3.4 हो गया है। दिन-दिन घटती ईमानदारी और बढ़ते भ्रष्ट आचरण का ही परिणाम है कि समाज के हर हिस्से में सड़ान्ध सा फैलता दिखाई देता है। हाल यह है कि आज दिन-दोपहर भरे बाज़ार में भी एक अकेली लड़की कहीं किसी काम से निकले तो लगता है जैसे भूखे शेर-चीतों के झुण्ड के सामने से गुज़र रही हो। सैकड़ों शिकारी निगाहें उसे घूरने लगती हैं। जबकि, होना तो यह चाहिए था कि आधी रात को भी कोई बला की ख़ूबसूरत स्त्री भी अकेली कहीं निकल जाए, तो कम से कम मनुष्य नाम के प्राणी से डरने की ज़रूरत तो उसे न ही पड़े। भय की स्थिति तो हिंस्र जानवरों को देखकर पैदा होनी चाहिए। मनुष्य को देखकर तो सुरक्षा-भाव का अहसास होना चाहिए। किसी स्वस्थ समाज की मूल पहचान वास्तव में यही है।
परन्तु आज, इस तरह के समाज-निर्माण की बात करिए तो लोग आप पर हँस पड़ेंगे और फ़ब्ती कसते हुए कहेंगे कि बन्धुवर! इस युग में ईमानदारी की राह चलेंगे तो कभी आगे नहीं बढ़ सकेंगे।
क्या सचमुच ईमानदारी की राह इतनी कठिन हो गई है; या कि ईमानदारी भरे जीवन की नियति असफलता के अन्धकार में पहुँचकर विलीन हो जाना है? नहीं, बिलकुल नहीं! ऐसा नैराश्य तो प्रतिगामी लोगों के मन में ही पैदा हो सकता है। डगर कठिन अवश्य है, पर इतनी बड़ी निराशा की कोई वजह नहीं है। रास्ते कण्टकाकीर्ण हो सकते हैं, पर बन्द नहीं हैं। असल बात हौसले की है, इच्छाशक्ति की है। प्रश्न यह है कि हमारा मन्तव्य क्या है? हमारी चाह सकारात्मक है, हम ईमानदार जीवन जीना चाहते हैं, तो ईश्वर की इस सृष्टि में सम्भावनाओं के द्वार चारो ओर खुले हुए हैं। याद रखिए कि इस संसार के विभिन्न मानवीय समाजों में व्यवस्था नाम की कोई भी चीज़ अगर बची हुई है, तो वह बेईमानी नहीं ईमानदारी के कारण है। जिस ईमानदारी को लोग जीवन से बेदख़ल करके सफल होना चाहते हैं, अगर वह पूरी तरह समाप्त हो जाए तो यह संसार चल नहीं सकता। हर तरफ़ बेईमानी का अर्थ है कि हर व्यक्ति अपना स्वार्थ साधने को हर समय सामने वाले को धोखा देने को तैयार दिखाई देगा। कोई किसी पर ज़रा भी विश्वास नहीं करेगा। और तब, जीवन-व्यवहार क्षणमात्र भी नहीं चल सकता। सिर्फ़ बेईमानी से काम निकालने का अर्थ है कि हम एक-दूसरे को ही समाप्त करने पर तुले होंगे। यहाँ तक कि न बाप-बेटे में आपसी विश्वास होगा और न भाई-बहन में। सही बात तो यह है कि यदि आएदिन हम विश्वासघात की कहानियाँ सुनते हैं तो इसका अर्थ यही है समाज में कहीं न कहीं विश्वास बचा हुआ है, जिसे कि कुछ स्वार्थी लोग तोड़ते हैं।
वास्तव में समाज में सुव्यवस्था की जो भी स्थितियाँ हैं, वे ईमानदारी के कारण हैं और दुर्व्यवस्था की जो स्थितियाँ हैं, वे बेईमानी के कारण हैं। हाँ, लोगों में अपने दायित्वों के प्रति ईमानदारी की मात्रा ज्यादा होगी तो सुव्यवस्था ज्यादा होगी और बेईमानी की मात्रा ज्यादा होगी तो दुर्व्यवस्था ज्यादा होगी। सुन्दर समाज के आकांक्षी लोगों को चाहिए कि वे जहाँ भी हैं, जैसे भी हैं, ईमानदारी को प्रोत्साहित करें। स्वयं तो ईमानदार रहें ही, अच्छी बात है, पर औरों को भी ईमानदार रहने की प्रेरणा दें तो और अच्छी बात है। ईमानदारी का सुकून बेईमानी की तमाम सुख-सुविधाओं पर निश्चित रूप से भारी है; पर याद यह भी रखना चाहिए कि निर्वीर्य ईमानदारी का इस युग में बहुत अर्थ नहीं है। ईमानदारी मजबूरी का नाम नहीं होना चाहिए। ईमानदारी का वास्तविक रूप वास्तव में मनुष्य को अपने काम में योग्य बनाता है, उसे दक्षता की दिशा में ले जाता है। अकुशलता, फूहड़पना एक तरह से अपनी स्वाभाविक क्षमता के प्रति बेईमानी है। ईमानदार व्यक्ति कार्यकुशल हो तो वह कभी बेकार नहीं रह सकता। भ्रष्टाचार चाहे जितना बढ़ जाए, पर ईमानदार आदमी की आवश्यकता कभी ख़त्म नहीं हो सकती। सचाई तो यह है कि बेईमान भी चाहता है कि उसके यहाँ काम करने वाला उसके साथ ईमानदारी से रहे। मतलब कि बेईमान को भी एक स्तर पर जाकर ईमानदार की ही जरूरत है। बस, चाहिए यह कि यदि हम अपने साथ दूसरों का बरताव ईमानदारी भरा चाहते हैं, तो हम भी दूसरों के साथ ईमानदारी से प्रस्तुत हों। जीवन-व्यवहार का यही मूल रहस्य समझने-समझाने की है। हमारा जीवन ज्यादा से ज्यादा सौ-सवा सौ साल का है। अपवाद के तौर पर बहुत ज्यादा जी लेंगे तो डेढ़-दो सौ साल। इसी से हम सोच सकते हैं कि काल के अखण्ड प्रवाह में मनुष्य का भरपूर जीवन भी समन्दर में बूँद बराबर भी न होगा। ऐसे में, याद रखना चाहिए कि बेईमानी की बैसाखी मजबूती का सिर्फ़ भ्रम पैदा कर सकती है और बीच डगर में कभी भी धोखा दे सकती है। शाश्वतता तो सत्य, ईमानदारी से नि:सृत मूल्यों की ही रहती है। आख़िर बेईमानी के व्यापार से कुछ लाख या करोड़ रुपए इधर-उधर करके भी हम कौन से नए सूरज, चाँद, सितारे गढ़ लेंगे!
आइए, अपनी अन्तरात्मा में थोड़ा आत्मबल जगाएँ, ईमानदारी की राह पर दो पग बढ़ाएं, अपने सगे-सम्बन्धियों-पड़ोसियों को भी इस राह का राही बनने की थोड़ी प्रेरणा दें - और इस तरह, इस संसार को थोड़ा और रहने के क़ाबिल बनाएं। मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है।
सोमवार, 15 दिसंबर 2008
बिन ईमानदारी दुनिया कहाँ रहेगी
प्रस्तुतकर्ता संत समीर पर 1:15 am
लेबल: ईमानदारी, जीवन-दर्शन, जीवन-व्यवहार, भ्रष्टाचार, संस्कृति, समाज
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1 Comment:
आपके लेख ने बहुत कुछ सोंचने को मजबूर कर दिया ...आपकी कही अंतिम पंक्तियों को हम समझ लें तो अभी भी सबकुछ ठीक हो जाए। कितना अच्छा कहा आपने...;आइए, अपनी अन्तरात्मा में थोड़ा आत्मबल जगाएँ, ईमानदारी की राह पर दो पग बढ़ाएं, अपने सगे-सम्बन्धियों-पड़ोसियों को भी इस राह का राही बनने की थोड़ी प्रेरणा दें - और इस तरह, इस संसार को थोड़ा और रहने के क़ाबिल बनाएं। मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है।
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