बुधवार, 7 जनवरी 2009

अपना डॉक्टर आप बनने का जोख़िम उठाएँ

इस लेख का शीर्षक पढ़कर पाठक कुछ आश्चर्य में पड़ सकते हैं, क्योंकि पत्र-पत्रिकाओं से लेकर टेलीविजन तक में जनसामान्य के लिए यही मशवरा दिया जाता है कि किसी को अपना डॉक्टर ख़ुद बनने का जोख़िम नहीं उठाना चाहिए। लोग बग़ैर किसी डॉक्टरी सलाह के अपनी छोटी-मोटी तकलीफ़ों के लिए मनमर्ज़ी से दवाएँ खाकर अक्सर ही जिस तरह से बड़ी-बड़ी तकलीफ़ों को न्यौता दे बैठते हैं, उसे देखते हुए डॉक्टरी सलाह से ही दवा खाने के मशवरे को जायज़ कहा ही जाएगा, लेकिन मैं अगर अपना डॉक्टर आप बनने की सलाह दे रहा हूँ तो उसकी भी जायज़ वजहें हैं।
मेरा मानना है कि लोग अपना डॉक्टर ख़ुद बनने का जोख़िम नहीं उठाते, इसीलिए दुनिया में बीमारियाँ बढ़ रही हैं और सेवाभाव वाली चिकित्सा मुनाफ़े का व्यवसाय बना दी गई है। मौजूदा हालात ये हैं कि जिसके पास पर्याप्त धन है वह तो आसानी से चिकित्सा सुविधाएँ जुटा लेता है, पर सामान्य आदमी के लिए साधारण बीमारी भी मुसीबतों का पहाड़ लेकर आती है। आदमी ज्यादा ग़रीब हुआ तो कई बार डॉक्टरी फ़ीस की व्यवस्था न कर सकने के कारण साधारण बुख़ार भी उसके लिए मौत का पैग़ाम बन जाता है। सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था का हाल यह है कि बड़े शहरों में बड़े लोगों के लिए तो बड़ी-बड़ी सुविधाएँ हैं, पर गाँव-देहात और छोटे शहरों के लिए बुनियादी सुविधाएँ तक नदारद हैं। देश की 90 फ़ीसदी आबादी बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं से दूर है। देश के लगभग 25 हज़ार प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों का हाल भी बुरा ही है। इसी का नतीजा है कि प्राइवेट नर्सिंग होमों और अस्पतालों में सुविधा के नाम पर मरीज़ों को बेरहमी से लूटा जाता है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य की हालत यह है कि देश की लगभग एक तिहाई महिलाएँ और आधे से भी ज्यादा बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। लगभग 55 प्रतिशत महिलाओं और 75 प्रतिशत बच्चों में ख़ून की कमी है। देश के हर पंद्रहवें शिशु की एक वर्ष के भीतर ही मौत हो जाती है। औसतन 10 में 4 नवविवाहिताओं को प्रजनन संबंधी कम से कम एक स्वास्थ्य समस्या ज़रूर रहती है। लगभग दो-तिहाई महिलाओं को अपनी प्रजनन संबंधी समस्याओं के लिए दवाएँ नहीं मिल पातीं। यदि इन समस्याओं का समुचित इलाज नहीं हो पाता तो वे गंभीर बीमारियों से भी ग्रस्त हो जाती हैं। ऐसे में आने वाली संतति का स्वास्थ्य भला कैसे बेहतर रह सकता है? सामान्य आबादी के हिसाब से देखें तो औसतन 1 लाख की आबादी वाले छोटे से इलाक़े में भी लगभग तीन हज़ार लोग दमा से, पाँच-छह सौ लोग टी. बी. से, लगभग डेढ़ हज़ार लोग पीलिया से और लगभग 4 हज़ार लोग मलेरिया से ग्रस्त मिल जाएँगे। छोटी-मोटी बीमारियों से तो हर कोई परेशान मिलेगा। आज के समाज में पूरी तरह से एक स्वस्थ आदमी को ढूँढ़ निकालना दुनिया का सबसे बड़ा अजूबा ही होगा।
स्वास्थ्य विज्ञान की ढेरों उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने के बाद भी राष्ट्रीय स्वास्थ्य की यह दशा है तो इसका एक बड़ा कारण यही है कि लोगों का स्वास्थ्य ठीक रखने की ज़िम्मेदारी मुनाफ़े को ही अपना धर्म मान चुके डॉक्टरों, नर्सिंग होमों और अस्पतालों को ही सौंप दी गई है और लोगों को डराया जा रहा है कि वे अपनी चिकित्सा ख़ुद करने का ख़तरा मोल न लें। ऐसे में हो यह रहा है कि जागरूक क़िस्म के लोग भी स्वास्थ्य विज्ञान को सिर्फ़ चिकित्सा व्यवसाय से जुड़े लोगों का ही विषय मानकर इसकी साधारण जानकारी तक करने की ज़रूरत नहीं समझते; और अगर, कभी किसी सामान्य सी तकलीफ़ में डॉक्टर की फ़ीस से बचने के लिए या लापरवाही में ही किसी सुनी-सुनाई दवा का इस्तेमाल कर लेते हैं तो अक्सर इसका दुष्प्रभाव भी उन्हें झेलना ही पड़ जाता है।
वास्तव में स्वास्थ्य विज्ञान की ज़रूरी जानकारी तो हर व्यक्ति को ही होनी चाहिए। सिर्फ़ आहार-विहार की ही समुचित जानकारी हो तो आधी से ज्यादा बीमारियाँ पास ही न फटकने पाएँगी। दुनिया के हर पशु-पक्षी को अपने आहार-विहार का सहज ज्ञान है। उसे किसी अस्पताल की ज़रूरत नहीं पड़ती, लेकिन सृष्टि के सबसे बुध्दिशाली मनुष्य का हाल यह है कि उसे ही नहीं मालूम कि वह क्या खाए, क्या पिए, कैसे सोए, कैसे रहे? यहाँ एक जानने लायक़ महत्वपूर्ण बात यह है कि प्राचीन भारतीय व्यवस्था में आज के जैसी स्थिति नहीं थी। हमारी प्राचीन संस्कृति में हर विद्यार्थी के लिए ही स्वास्थ्य शिक्षा अनिवार्य रही है। तब जीवन के अन्य ज़रूरी ज्ञान के साथ आयुर्वेद का भी ज्ञान शिक्षा का ज़रूरी हिस्सा था। आयुर्वेद का अर्थ सिर्फ़ जड़ी-बूटियों से ही नहीं, बल्कि उस समय तक विकसित समूचे चिकित्साविज्ञान से था। तब के साधारण आदमी को भी जड़ी-बूटियों आदि के बारे में इतना गहरा ज्ञान होता था कि ज्यादातर बीमारियों को वह ख़ुद ही ठीक कर सकता था। किसी विशेषज्ञ वैद्य के पास तो कुछ विशेष परिस्थितियों में ही जाने की नौबत आती थी। स्वास्थ्य के प्रति इस दृष्टिकोण का ही नतीजा है कि प्राचीन सांस्कृतिक धारा छिन्न-भिन्न हो जाने के बावजूद अभी-भी कहीं किसी गाँव-गिराँव में कोई न कोई बूढ़ा-बुजुर्ग़ जड़ी-बूटियों का थोड़ा-बहुत जानकार मिल ही जाता है।
आज भी ज़रूरत इसी बात की है कि कम से कम समाज के जागरूक और पढ़े-लिखे लोगों को स्वास्थ्य विज्ञान का अध्ययन ज़रूर करना चाहिए और आमतौर पर होने वाली अधिकांश बीमारियों का इलाज करने में उन्हें सक्षम होना चाहिए। ऐसा हो तो वे अपना स्वास्थ्य तो ठीक ही रख सकेंगे, अपने परिवार और गाँव-समाज के ग़रीब लोगों की भी बड़ी सेवा कर सकेंगे। एलोपैथी को अगर ख़तरे की पध्दति मानकर छोड़ भी दिया जाय तो प्राकृतिक चिकित्सा, एक्यूप्रेशर, आयुर्वेद और होम्योपैथी-बायोकैमी जैसी चिकित्सा पध्दतियों को तो आसानी से सीखा ही जा सकता है। प्राकृतिक चिकित्सा और एक्यूप्रेशर की बुनियादी बातें तो अनपढ़ लोगों को भी सिखाई जा सकती हैं। इतनी जानकारी से ही ढेर सारी तकलीफ़ों से निजात मिल सकती है। जो लोग पढ़े-लिखे और जागरूक क़िस्म के हैं उन्हें आयुर्वेद और होम्योपैथी जैसी पध्दतियों को गंभीरता से सीखना चाहिए। होम्योपैथी तो आधुनिक युग के लिए बहुत ही क्रांतिकारी पध्दति है। यही एक पध्दति ऐसी है जिससे गंभीर आनुवंशिक बीमारियाँ तक बड़ी आसानी से ठीक की जा सकती हैं। इसके अलावा एलोपैथी में जिन बीमारियों में शल्यक्रिया अनिवार्य बताई जाती है उनमें भी लगभग 90-95 फ़ीसदी स्थितियाँ होम्योपैथी में बिना किसी चीड़-फाड़ के ठीक की जा सकती हैं। यह एक आश्चर्यजनक बात है कि कई असाध्य बीमारियाँ इस पध्दति में आसानी से साध्य हो जाती हैं।
यह सब जो मैं कह रहा हूँ तो इसलिए कि इसका मैं प्रत्यक्ष अनुभवकर्ता भी हूँ। बचपन से लेकर कुछेक वर्ष पहले तक मैंने काफ़ी बीमारियाँ भुगती हैं। एलोपैथी की कितनी दवाएँ और कितने इंजेक्शन मेरे शरीर में समा चुके हैं, इसकी गिनती कर पाना मेरे लिए भी मुश्किल ही है। और तो और, इन दवाओं का दुष्प्रभाव यह हुआ कि मेरे लीवर, फेफड़े, गुर्दे और ऑंतें बुरी तरह प्रभावित हो गए। यदि अभी तक डॉक्टरों अस्पतालों के ही चक्कर में होता तो एक तो ख़र्च लाखों में पहुँचता ही और तब पर भी मेरे अभी तक जीवित बचे रहने की गारंटी होती, इसमें भी संदेह ही था। जीवन को संकटग्रस्त जानकर मैंने आत्मबल जुटाया और अपना डॉक्टर आप बनने की शुरूआत की। प्राकृतिक चिकित्सा, आयुर्वेद, एक्यूप्रेशर, होम्योपैथी का मैंने विशेष अध्ययन किया तो आज स्थिति यह है कि मैं अपने स्वास्थ्य की रक्षा तो कर ही रहा हूँ, प्रतिदिन अपने व्यस्त समय में से एक दो घंटे निकालकर लोगों को चिकित्सा परामर्श और होम्योपैथी की नि:शुल्क दवाएँ भी देता हूँ। इस दौरान शायद उन ग़रीब मरीज़ों को भी उतनी ख़ुशी न हुई होगी जितनी कि उनकी कई असाध्य बीमारियाँ ठीक करने के बाद मुझे हुई हैं।
हर परिवार में न सही तो हर गाँव में ही यदि एक-दो लोग भी इन दुष्प्रभावहीन चिकित्सा पध्दतियों की जानकारी कर लें तो डॉक्टरों अस्पतालों की लूट पर अंकुश लग जाए। एक व्यक्ति का सालाना चिकित्सा ख़र्च यदि औसतन हज़ार रुपये भी मानकर चलें तो दस लोगों के सामान्य परिवार का इस तरह कम से कम दस हज़ार रुपया हर साल बच सकता है। पूरे गाँव के स्तर पर यह रक़म लाखों में पहुँचेगी और इस बचत से गाँव के विकास के कई ज़रूरी काम किए जा सकते हैं। तो निष्कर्ष साफ़ है कि जागरूक लोग अपना डॉक्टर ख़ुद बनने का जोख़िम जरूर उठाएँ, लेकिन अधकचरेपन के साथ नहीं। दो-चार दवाओं के ही नाम न रटें, बल्कि चिकित्सा विज्ञान के सिध्दांतों की समझ बनाएँ तो 'नीम हक़ीम ख़तरे जान' वाली स्थिति नहीं रहेगी। एलोपैथी दवाओं में विशेष सावधानी की ज़रूरत इसलिए पड़ती है कि इसकी ज्यादातर दवाएँ दुष्प्रभाव भी करती हैं। हालाँकि एलोपैथी का सीखना भी होम्योपैथी वग़ैरह से कठिन नहीं है, पर दवाओं के मिश्रणों के समुचित ज्ञान के बगैर इनका इस्तेमाल मनमानी तरीक़े से नहीं ही करना चाहिए। ऐसे में एलोपैथी दवाओं के लिए डॉक्टर की सलाह ज्यादा ज़रूरी हो जाती है; अन्यथा, इस पध्दति की भी पर्याप्त जानकारी हो तो कोई संकट नहीं है।
इस तरह की सलाह पर अमल करके यदि गाँव-गाँव में लोग चिकित्सा सेवा के काम करने लगें तो एक बड़ी अड़चन यह आएगी कि सरकार इस बात की इजाज़त नहीं देगी। चिकित्साशास्त्र की पढ़ाई के लिए बड़े-बड़े मेडिकल कालेज खुले हैं और बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ दी जाती हैं। विज्ञान की पढ़ाई अनिवार्य है। ऐसे में मान लिया गया है कि बिना कालेज की पढ़ाई किए चिकित्साशास्त्र का ज्ञान असंभव है। एलोपैथी की जान-बूझकर जटिल बनाई गई पध्दति के लिए इस धारणा को किंचित ठीक मान भी लें, तो आयुर्वेद या होम्योपैथी के लिए तो इस तरह के अध्ययन की व्यवस्था सरासर अनुचित ही है। होम्योपैथी के बारे में तो यह ग़ज़ब का सच है कि जिसका भी मनोविज्ञान में, सोच-विचार में, समाजसेवा करने में रुचि हो, वह इस पध्दति का बेहतर चिकित्सक बन सकता है।
सिर्फ़ मेडिकल कालेज की डिग्री वालों को ही चिकित्सा क्षेत्र में आने की छूट है, तो इसलिए कि यह अब सेवा का क्षेत्र न रहकर धंधा बन गया है और चिकित्सा माफ़िया नहीं चाहते कि व्यक्ति, परिवार या गाँव-समाज अपने स्वास्थ्य की देख-रेख खुद कर ले। लेकिन यदि राष्ट्रीय स्वास्थ्य की विकराल होती समस्याओं पर क़ाबू पाना है, तो जो भी लोग सेवाभाव से चिकित्सा का काम करना चाहते हैं, उनके लिए बिना कालेज की डिग्री की अनिवार्यता के भी चिकित्साशास्त्र की पढ़ाई की सहूलियत सरकारों को देनी चाहिए। वैसे सरकारी सहूलियत न भी मिले तो भी हर जागरूक व्यक्ति को प्राकृतिक, आयुर्वेदिक, एक्यूप्रेशर, होम्योपैथी आदि में से एक या एकाधिक पध्दतियों की जानकारी करके कम से कम अपना डॉक्टर ख़ुद बनने का पुरुषार्थ तो करना ही चाहिए। वास्तव में संपूर्ण स्वास्थ्य का सपना पूरा हो सकता है तो कुछ इसी तरह।

3 Comments:

Dr. G. S. NARANG said...

apke kahna bahut had tak bilkul sahi hai.

सागर नाहर said...

बहुत सही जानकारी दी आपने, आभार।

निर्मला कपिला said...

बिल्कुल सहि कहा आपने अस्पताल मे नौकरी कर्ते हुये भी मेने अपने और परिवार के लिये आयुर्वेद अक्युप्रेशर, व होमोपथी को ही अप्नाया है प्राकृ्तिक उपचार लाभ्कारी रहता है