गुरुवार, 8 जनवरी 2009

चकलाघर चलाइए, रोजगार पाइए

दुनिया का सांस्कृतिक भूगोल बदल रहा है। नैतिकता के सबसे वर्जित इलाकों की बाड़ टूट रही है। कब कौन सा अजूबा घट जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। अकल्पनीय लगने वाला एक ऐसा ही अजूबा है - वेश्यावृत्ति विद्यालय। जी हाँ! बेल्जियम के एंटवर्प में चल रहे इस विद्यालय में स्त्री, पुरुष दोनों ही 'वेश्यावृत्ति' व्यवसाय की बाकायदा तालीम ले सकते हैं। अपने हिसाब से एक नई क्रांति का सूत्रपात करने वाले इसके आयोजकों के मुताबिक इस विद्यालय में स्वच्छ यौन संबंध, व्यवसाय प्रबंधन और वेश्यावृत्ति से संबंधित कानूनों की जानकारी दी जाएगी। मतलब यह कि यहाँ, वेश्यावृत्ति अपनाने वालों को ग्राहकों को लुभाने, ललचाने, पटाने और कामुकता के पाश में फांसने की सारी जुगत बताई और सिखाई जाएगी।

वेश्यावृत्ति की शिक्षा बाँटने वाले इन लोगों का कहना है कि वे इस धंधे की छवि सुधारना चाहते हैं और इस व्यवसाय के प्रति लोगों में आत्मविश्वास जगाना चाहते हैं। यानी, वेश्यावृत्ति को शुध्द व्यवसाय समझिए और इसमें कामयाबी के झंडे गाड़ने हैं तो सारी शर्मो-हया ताक पर रखकर मैदान मे कूद जाइए। मजेदार बात यह है कि इस तरह के अजूबे सबसे पहले पश्चिम में ही सुनने को मिलते हैं। मुनाफे को समर्पित पश्चिमी नजरिया दरअसल हर चीज को व्यापार और बाजार की तरह देखने का आदी होता जा रहा है। फिर तो पश्चिमी समाजों के लिए नैतिकता की आखिरी हद भी लाभ की खातिर ढहा देना वाजिब लग रहा है, तो इसमें कोई बहुत ताज्जुब की बात नहीं है। किसी भी उपभोक्तावादी समाज को बेरोजगारी की विकराल होती समस्या के चलते इस तरह की परिणतियों से गुजरना पड़ सकता है। बेरोजगारी की समस्या वास्तव में त्याग और संयम के ठीक विपरीत खड़ी उपभोक्तावादी जीवन दृष्टि की नई देन है। ऐसे में उपभोग के मंजिल विहीन मार्ग पर सरपट दौड़ लगाते समाज में रोजगार की तलाश में तमाम सनातन वर्जनाएँ भी टूटेंगी ही। यह उपभोक्तावादी संस्कृति के देह-विमर्श का अनिवार्य नतीजा है।

वेश्यावृत्ति को पश्चिम के कई देशों में जिस तरह से सम्मान दिया जाने लगा है, उसके नतीजे धीरे-धीरे पूरी दुनिया को और खास तौर से गरीब देशों को गंभीर रूप से भुगतने होंगे, यह स्पष्ट रूप से समझ लिया जाना चाहिए। पश्चिम में पनपे मूल्य, मान्यताएँ और रोग अंतत: हिन्दुस्तान जैसे गरीब देशों तक पहुँचते ही हैं और उन्हें ही ज्यादा कष्ट देते हैं। इस मामले में थाईलैंड का उदाहरण दिया जा सकता है, जहाँ की अर्थव्यवस्था में वेश्यावृत्ति के धंधे की भागीदारी बढ़ती ही जा रही है, लेकिन देश निरंतर कमजोर हो रहा है। हमारे लिए असली सवाल यह है कि किसी दिन भारतीय संस्कृति की छाती पर वेश्यावृत्ति के प्रशिक्षण संस्थान और उद्योग खड़े होंगे तो हम क्या करेंगे? भारतीय संस्कृति पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करने वाले कुछ लोगों को यह हास्यास्पद लग रहा होगा, लेकिन है यह गंभीर बात। इसी देश में जब समलैंगिकता के समर्थक खुलेआम खड़े होने लगे हैं तो वेश्यावृत्ति को वैधानिक जामा भी देर-सबेर पहनाने का काम किया ही जा सकता है।

अभी ही इस देश में जाने ही कितनी बेबस लड़कियों को वेश्यावृत्ति के इस नारकीय धंधे में जाने के लिए चोरी-छिपे मजबूर किया ही जाता है। जब यह वैधानिक तौर पर व्यवसाय का रूप लेगा तो हालात क्या होंगे, यह सोचकर सिहरन होती है। आखिर इस देश ने उपभोक्तावादी बयार में आकर अपने उन सांस्कृतिक मूल्यों को लगभग भुला ही दिया है, जिन पर चलते हुए उसके सामने बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझने का सवाल ही नहीं उठता। भारतीय समाज भी अब पश्चिम के नक्शे-कदम पर है, तो उस समाज की विकृतियाँ भी झेलनी ही पड़ेंगी। यानी, जिस भारतीय समाज में शरीर को किसी परम आध्यात्मिक उद्देश्य तक ले जाने का साधन माना जाता रहा हो, जहाँ रत्ती भर भी अनैतिक अर्थोपार्जन अमान्य हो, वहाँ भी अब अगर देह को नितांत बाजार की वस्तु बना दिया जाय और किसी दिन अपने सांस्कृतिक मूल्यों के ठीक विपरीत जगह-जगह वेश्यावृत्ति प्रशिक्षण संस्थान खोलकर उनके मुख्य दरवाजे पर 'चकलाघर चलाइए, रोजगार पाइए' जैसे आमंत्रण वाक्य चस्पाँ कर दिए जाएँ, तो फिर आश्चर्य ही क्या?

2 Comments:

बेनामी said...
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जसवंत लोधी said...

शुभ लाभ Seetamni. blogspot. in