गुरुवार, 8 जनवरी 2009

क्यों नहीं लगता विज्ञान में मन

आज विकास की दौड़ में वही देश विजयी होगा जो विज्ञान और तकनीकी में भी आगे रहेगा। इस वस्तुस्थिति की पहचान के साथ ही राष्ट्रीय विज्ञान नीति के पुनर्विश्लेषण की जरूरत है कि आखिर हमारे विद्यार्थी क्यों विज्ञान नहीं पढ़ना चाहते

भले ही दिल के खुश करने को हमारे सत्ता-रथ पर सवार लोगों को देश में विज्ञान शिक्षण का परिदृश्य सब तरफ हरा-हरा ही नजर आए, पर वस्तुस्थिति यही है कि हमारी शिक्षण संस्थाओं में विज्ञान विषय की लोकप्रियता घट रही है। निष्पक्ष सर्वेक्षणों के नतीजे चीख-चीख कर यही कह रहे हैं। और उस हाल में, जब दुनिया के मौजूदा विकास के चमकते चेहरे का मूलाधार विज्ञान बन चुका हो, तो वास्तव में भारत के लिए यह अजब विरोधाभास और विडंबनापूर्ण स्थिति ही कही जाएगी। इसके संकेत ग्रहण किए जाएं तो मजमून बहुत शुभ नहीं निकलेगा। दुर्भाग्य यह है कि जिम्मेदार लोग विज्ञान के प्रति विद्यार्थियों की विरक्ति स्वीकारते भी हैं तो इसके नकली कारण गिनाकर संतुष्ट हो जाते हैं। अक्सर विज्ञान को लेकर ढांचागत परेशानियों का रोना रोया जाता है, पर दिक्कतें नीतिगत कहीं ज्यादा हैं।

ठीक से देखें तो विज्ञान को बढ़ावा देने की कोई दुरुस्त नीति अभी तक हमारे देश में नहीं बनाई जा सकी है। नीतिगत कमजोरियां ऐसी हैं कि अनुसंधान कार्यों के लिए कोई ज्यादा राशि नहीं आवंटित की जाती, फिर भी हमारे विज्ञान और प्रौद्योगिकी के संस्थान इसका पूरा सदुपयोग नहीं कर पाते। वैज्ञानिक शोध और विकास पर हमारा पड़ोसी चीन हमसे तीन गुना, यानी 900 अरब रुपये और अमरीका 45 गुना यानी 13500 अरब रुपये खर्च करता है। इस विपुल राशि के बावजूद ये देश हर साल इस मद में खासा इजाफा करते हैं और हम हैं कि जीडीपी का 1 प्रतिशत भी इस काम के लिए नहीं निकाल पाते। भारत के एक छोटे प्रदेश से भी छोटा इजराइल जैसा देश भी जीडीपी का 5 प्रति तक इस मद में खर्च करता है। हमारी दयनीय स्थिति का अंदाजा इससे भी लगता है कि कनाडा में 1000 व्यक्ति पर 180 और रूस में 140 वैज्ञानिक हैं तो हमारे देश में सिर्फ 8 वैज्ञानिक। सौ करोड़ की आबादी के इस देश में हर साल विज्ञान विषय में सिर्फ सात हजार लोग ही डॉक्टरेट करते हैं तो इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है?
एक तरफ विकास के सबसे ऊपरी पायदान पर देश को आनन-फानन में पहुंचा देने के वादे और दावे; और दूसरी ओर जिस विज्ञान और तकनीकी के बूते ये सपने सज रहे हैं उसका ऐसा बुरा हाल! आखिर हम कब तक हाल में उभर आए समृध्दि के इने-गिने सिर्फ कुछ टापुओं को देख-देखकर खुशफहमी पालते रहेंगे? हमें याद रखना चाहिए कि यथार्थ की जमीन से उखड़े पांव सिर्फ आसमानी खयालों के सहारे देर तक टिके नहीं रह सकते।

हमारे नीति-निर्माताओं को यह सत्य अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि आज विकास की दौड़ में वही देश विजयी होगा जो विज्ञान और तकनीकी में भी आगे रहेगा। इस वस्तुस्थिति की पहचान के साथ ही राष्ट्रीय विज्ञान नीति के पुनर्विश्लेषण की जरूरत है कि आखिर हमारे विद्यार्थी क्यों विज्ञान नहीं पढ़ना चाहते? क्या वजह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शोधपत्रों के मामलों में भारत का दस फीसदी तक रहता आया योगदान आज महज ढाई फीसदी पर आकर सिमट गया है? वैसे थोड़ा गहरे उतरें तो यह समझना कोई बहुत मुश्किल नहीं है कि हमारे देश में विज्ञान के पाठयक्रम बेहद लचर हैं और शोधकार्यों के लिए समुचित प्रोत्साहन-सम्मान का प्राय: अभाव है। कुछ वर्ष पहले की स्थिति थी कि नीरस और उबाऊं पाठयक्रम के बावजूद विज्ञान विषय में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थी ठीक-ठाक संख्या में हुआ करते थे। इसकी वजह थी कि यदि विद्यार्थी थोड़ा भी प्रतिभाशाली हुआ तो उसे विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ने पर अन्य क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा प्रोत्साहन और सम्मान की आशा थी। लेकिन वर्तमान स्थिति यह है कि व्यावसायिक और औद्योगिक संस्थानों-गतिविधियों में प्रोत्साहन और सम्मान कई गुना बढ़ गया है। विज्ञान और तकनीकी कामों में लगे लोग कहीं नेपथ्य में पहुंचा दिए गए हैं, भले ही इन्हीं की मेहनत के बूते औद्योगिक प्रगति की स्थिति भी बनती हो। यही वजहें हैं कि विज्ञान के प्रतिभाशाली विद्यार्थी बड़ी-बड़ी कंपनियों के व्यावसायिक पद संभालने को प्राथमिकता देने लगे हैं। असल में विज्ञान के विद्यालयी पाठयक्रमों और वैज्ञानिक शोध के कामों में बगैर आकर्षण पैदा किए हम विद्यार्थियों की रुचि को इस तरफ नहीं मोड़ सकते।

हमारे नीति-निर्माता थोड़ी भी इच्छाशक्ति दिखाएं तो विज्ञान के पाठयक्रमों की नीरसता खत्म की जा सकती है। विज्ञान के सिध्दांत सार्वभौम हैं, वे किसी देश काल से नहीं बंधे होते, फिर विद्यार्थियों को समझाने के लिए पराए अनजाने उदाहरणों की जरूरत क्या है? गुरुत्वाकर्षण का नियम समझाने के लिए अबूझ उदाहरणों के बजाय अपने आसपास घट रही रोजमर्रा की दस-बीस घटनाओं की बात क्या ज्यादा रोचक नहीं साबित होगी? असल में विज्ञान के पाठयक्रमों में स्थानीयता का तत्तव शामिल किए जाने की जरूरत है। यह हो तो विज्ञान एक जीवंत और सरस विषय बन जाएगा। मूलत: विज्ञान के नियम तो जीवंत ही हैं, क्योंकि वे समूची सृष्टि में स्वत: व्यहृत हो रहे हैं। कमी हमारी है कि हम उन्हें भाषा की जड़ता में बांध देते हैं। विज्ञान कठिन नहीं है, पर यह हम पर निर्भर है हम उसके साथ कितनी सहज-सरल भाषा और व्यावहारिक-दिलचस्प दृष्टांत जोड़ते हैं। एक उदाहरण लें। हमारे देश में किसान मटर जैसी फसलों के साथ सदियों से सरसों भी बोते रहे हैं। मिश्रित खेती का विनाशकाल आ पहुंचने के बावजूद अभी भी यह स्थिति जहां-तहां देखी जा सकती है। अब विज्ञान ने यह सिध्द कर दिया है कि मटर जैसी फसलों के साथ सरसों की खड़ी फसल पाले के प्रभाव को रोकती है। यदि गांव के विद्यार्थी को रोजमर्रा के आंखों के सामने के इन उदाहरणों के साथ विज्ञान के सिध्दांत बताए जाएं, तो कोई कारण नहीं है कि विज्ञान विषय की रोचकता में चार चांद न लग जाएं। यह तो पढ़ाया जाता है कि धरती को हर दिन सूरज से जितनी वैद्युत चुंबकीय ऊर्जा मिलती है वह एक वर्ष में विश्व की कुल ऊर्जा खपत का सौ गुना है। लेकिन इस जानकारी के साथ विद्यार्थी को अपने गांव के क्षेत्रफल के हिसाब से सूरज से मिल रही ऊर्जा का आकलन करने और उपयोग की संभावनाओं का पता लगाने का व्यावहारिक काम दे दिया जाए, तो संभवत: इस प्रक्रिया में ही कई विद्यार्थियों का मन स्वत: ही वैज्ञानिक अनुसंधानों की दिशा में बढ़ने लगेगा।

कम से कम हाईस्कूल-इंटर तक के पाठयक्रमों का उबाऊपन तो आसानी से खत्म किया ही जा सकता है। और यदि, इस स्तर तक युवाओं में सहज वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित हो जाए, तो आगे का रास्ता अपने आप आसान हो जाएगा। विज्ञान विषय के साथ स्थानीयता का तत्तव जोड़ने का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि यदि किसी विद्यार्थी का बाद में इस विषय से नाता टूट गया, तो भी उसके जीवन में प्राप्त ज्ञान की व्यावहारिक उपयोगिता बनी रहेगी; अन्यथा, आज की स्थिति में तो विज्ञान विषय का अर्थ पढ़ाई छूट जाने के बाद सिर्फ भूल जाने तक ही रह गया है।

विज्ञान में दिलचस्पी जगाने के लिए अनुसंधान कार्यों को प्रोत्साहन और भरपूर सम्मान दिया जाना भी नितांत जरूरी है। होना यह चाहिए कि विद्यार्थी स्तर से ही अनुसंधानात्मक कार्यों के लिए प्रोत्साहन दिया जाए। देश में ऐसे अनेक प्रतिभाशाली लोग हैं जो कम पढ़े-लिखे हैं या अनपढ़ हैं, पर उन्होंने अपने ही बूते वैज्ञानिकों को भी आश्चर्य में डाल देने वाले तकनीकी काम कर दिखाए हैं। मेरठ के साधारण से मिस्त्री का स्कूटर के इंजनों को जोड़कर बनाया हेलीकाप्टर हो, पूणे के चंद्रकांत पाठक का बिना किसी ईंधन के जलापूर्ति का यंत्र हो, राजकोट के गांधीवादी वेलजी भाई देसाई का एकदम सरल तकनीक से बना सोलर कुकर हो; ये सभी आश्चर्य में डालने वाली चीजें हैं। लेखक ने स्वयं इन चीजों को नजदीक से देखा-समझा है। दुर्भाग्य से ऐसे कामों को प्रोत्साहित करने की किसी नीति का अभाव है, उल्टे ऐसे लोगों को अक्सर प्रशासनिक स्तर से प्रताड़ित करने की ही घटनाएं हुई हैं।

सही प्रोत्साहन-नीति हो तो प्रयोगशालाओं से बाहर खेत-खलिहानों में भी विद्यार्थी स्तर पर या जनसाधारण के स्तर पर भी उपयोगी अनुसंधानों की एक धारा निकल सकती है। अर्थशास्त्र के पंडितों को भले अटपटा लगे, लेकिन इस देश को विकास के ऊंचे पायदान पर पहुंचाना है तो विज्ञान और तकनीकी के लिए जीडीपी का दस प्रतिशत तक खर्च किया जाना चाहिए। मात्र 17000 कालेजों में हो रही विज्ञान की नीरस पढ़ाई से बहुत काम नहीं निकलने वाला। विकास की जिस राह पर हम खड़े हैं, वहां विज्ञान के संस्थानों की वृध्दि और अनुसंधान कार्यों पर खर्च कभी घाटे का सौदा नहीं हो सकता। विज्ञान और तकनीकी के लिए काम कर रहे साधारण लोगों से लेकर विद्यार्थी और वैज्ञानिक स्तर तक के लिए भरपूर प्रोत्साहन और पुरस्कार की योजनाएं अब बननी ही चाहिए। यह हो, तो विज्ञान में भी भविष्य उज्ज्वल दिखाई देगा। और इस तरह, जीवंत पाठयक्रम के साथ उज्ज्वल भविष्य की संभावना दिखाई दे, तो कोई कारण नहीं बचता कि देश के युवाओं में विज्ञान से विरक्ति पैदा हो।

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